पौष की कडकडाती ठंड में ऋषि गर्ग विचार मग्न बैठे हुए थे .. सांझ की बेला थी| ठंड कम करने के लिये कोयलों से भरा अलाव धधक रहा था| गर्ग का प्रिय शिष्य 'विश्रवानंद', जिसके ज्ञान की गरिमा कि चर्चा जनमानस में फैलती जा रही थी, इस बात से उसे धीरे-धीरे अभिमान हो गया और गुरु आश्रम त्यागने का निश्चय कर वह गुरु के पास गया ... ऋषि गर्ग उसकी मनोस्थिति को पढ़ रहे थे| पर फिर भी मौन थे, उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था, कि मेरे द्वारा लगाया हुआ पौधा मुरझा नहीं सकता| विश्रवानंद ने गुरु से आज्ञा मांगी| ऋषि गर्ग मौन बैठे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होनें धदकते अलाव से एक कोयले के तुकडे को, जो काफी तेजी से दहक रहा था ... बाहर निकाला ..कोयले का टुकड़ा कुछ देर तो जलता रहा ... पर धीरे-धीरे उसकी दहकता शांत हो गयी, उस पर राख की परत चढ़ती गयी, देखते-देखते उसकी आभा धूमिल हो गयी| विश्रवानंद खड़े-खड़े यह क्रिया देख रहे थे .. समझ लिया गुरु के मौन संकेत को ... और चुपचाप आश्रम के अन्दर जा कर साधनारत हो गए|
शनिवार, 8 मई 2010
तिमिर
पौष की कडकडाती ठंड में ऋषि गर्ग विचार मग्न बैठे हुए थे .. सांझ की बेला थी| ठंड कम करने के लिये कोयलों से भरा अलाव धधक रहा था| गर्ग का प्रिय शिष्य 'विश्रवानंद', जिसके ज्ञान की गरिमा कि चर्चा जनमानस में फैलती जा रही थी, इस बात से उसे धीरे-धीरे अभिमान हो गया और गुरु आश्रम त्यागने का निश्चय कर वह गुरु के पास गया ... ऋषि गर्ग उसकी मनोस्थिति को पढ़ रहे थे| पर फिर भी मौन थे, उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था, कि मेरे द्वारा लगाया हुआ पौधा मुरझा नहीं सकता| विश्रवानंद ने गुरु से आज्ञा मांगी| ऋषि गर्ग मौन बैठे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होनें धदकते अलाव से एक कोयले के तुकडे को, जो काफी तेजी से दहक रहा था ... बाहर निकाला ..कोयले का टुकड़ा कुछ देर तो जलता रहा ... पर धीरे-धीरे उसकी दहकता शांत हो गयी, उस पर राख की परत चढ़ती गयी, देखते-देखते उसकी आभा धूमिल हो गयी| विश्रवानंद खड़े-खड़े यह क्रिया देख रहे थे .. समझ लिया गुरु के मौन संकेत को ... और चुपचाप आश्रम के अन्दर जा कर साधनारत हो गए|
गुरुवार, 18 जून 2009
ज्ञान वही है, जो व्यवहार में काम आए
गुरु के द्वार पर जाना ही है ... ऐसा सोचकर पहला शिष्य कांटे चुभ रहे थे फिर भी कुटिया तक पहुंच गया और कुटिया के बाहर बैठ गया। दुसरा शिष्य कांटो से बचकर निकल आया फिर भी एकाध कांटा जो चुभ गया उसको शांति से निकाला। तीसरे शिष्य ने आकर देखा तो उसने झाडू ली। पहले बड़े बड़े कांटो को घसीटकर दूर फ़ेंक आया। फिर झाडू से कांटे बुहारकर दूर कर दिया और हाथ-मुंह धोकर कुटिया के पास आया। आचार्य कुटिया में से तीनों की गतिविधि देख रहे थे। जिसने कांटे हटाकर मार्ग साथ-सुथरा कर दिया था वह तीसरा शिष्य ज्यों ही आया, तो आचार्य ने कुटिया के द्वार खोले एवं कहा वत्स, तुम्हारा ज्ञान पूरा हो गया। तुम मेरी अंतिम परीक्षा में पास हो गए।
ज्ञान वही है जो व्यवहार में काम आए। तुम्हारा ज्ञान व्यवहारिक हो गया है। तुम उत्तीर्ण हो गए हो। तुम संसार में रहोगे फिर भी तुम्हें कांटे नहीं लगेंगे और तुम दूसरों को भी कांटे लगने नहीं दोगे वरन कांटे हटाओगे। फिर पहले एवं दुसरे शिष्य की ओर देखकर कहा - तुमको अभी कुछ दिन और आश्रम में रहना पडेगा। ज्ञान प्राप्ति का मतलब केवल पढ़कर या सुनकर उसे रटना नहीं, वरन उसे व्यवहार में लाना है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को जो व्यवहार में लाता है, उसका ज्ञान पाना सार्थक हो जाता है।
गुरुवार, 21 मई 2009
वास्तविक ज्ञान
यवक्रित ने कारण पूछा तो वृद्ध ब्राह्मण ने उत्तर दिया - लोगों को यहां गंगा के उस पार जाने में असुविधा होती है, अतः मैं इस रेत से नदी पर सेतु निर्माण कर रहा हूं। यवक्रित ने कहा - भगवन! इस महाप्रवाह को बालूरेत बांधना असंभव है। आप निष्फल प्रयत्न कर रहे है। तब वृद्ध ब्राह्मण ने यवक्रित से कहा - ठीक उसी तरह तुम उग्र तप से गुरु के बगैर वैदिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो। तत्काल यवक्रित ने ब्राह्मण को पहचान लिया। यवक्रित ने इंद्र से क्षमा मांगी और स्वीकारा कि गुरु के बगैर ज्ञान असंभव है। विशेषकर यदि उसमे हठ और अंहकार है, तब तो वह सम्भव हो ही नहीं सकता। विद्या के लिए गुरु कि कृपा और निरन्तर अध्ययन अनिवार्य है। यदि कोई हठ कर स्वयं ही विद्या प्राप्त करने का प्रयास करे तो उसके प्रयास निष्फल होने का खतरा बना रहता है। अतः गुरु कृपा की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
केवल, और केवल गुरु का ही कार्य है कि वह शिष्य को उचित ज्ञान प्रदान करें। शास्त्रों में जप-तप-भजन-ध्यान-धारणा, सब का विवेचन आया है, लेकिन अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है और उसी ज्ञान से भौतिक जीवन में तथा आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त हो सकती है। केवल गुरु ही शिष्य के नेत्रों में ज्ञान की शलाका से अज्ञान का अन्धकार दूर कर सकते है। पुस्तकें तो लाखों है, चार वेद, छः वेदान्त, अठारह पुराण, १०८ उपनिषद् तथा हजारों मिमांसाएं हैं लेकिन सदगुरू के श्रीमुख से निकला हुआ एक वचन ही सब से भारी है।
गुरुवार, 28 अगस्त 2008
नैना अंतरि आव तूं
स्वामी विवेकानंद किस प्रकार में गुरुत्व को उतार कर, साक्षात श्री रामकृष्ण परमहंस का 'मुख' ही कहेलाने के बाद भी अंतिम क्षणों तक केवल शिष्य ही बने रहे, इसके संदर्भ में एक घटना का विवरण रोचक रहेगा।
... प्रारम्भ के दिन थे जब स्वामी विवेकानंद, स्वामी विवेकानंद नहीं वरन नरेंद्र दत्त और अपने गुरु के लिए केवल नरेन् ही थे। नरेन् अपने गुरुदेव से मिलने प्रायः दक्षिणेश्वर आया करते थे और गुरु शिष्य की यह अमर जोड़ी पता नहीं किन-किन गूढ़ विषयों के विवेचन में लीन रहकर परमानंद का अनुभव करती थी। एक बार पता नहीं श्री रामकृष्ण को क्या सूझा, कि उन्होनें नरेन् के आने पर उससे बात करना तो दूर, उसकी ओर देखा तक नहीं। स्वामी विवेकानंद थोडी देर बैठे रहे और प्रणाम करके चले गए। अगले दिन भी यही घटना दोहराई गई और अगले तीन-चार दिनों तक यही क्रम चलता रहा। अन्ततोगत्वा श्री रामकृष्ण परमहंस ने ही अपना मौन तोडा और स्वामी विवेकानंद से पूछा
"जब मैं तुझसे बात नहीं करता था तो तू यहां क्या करने आता रहा?"
प्रत्युत्तर में स्वामी विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण परमहंस को ( जिन्हें वे 'महाराज' से सम्भोधित करते थे) कुछ आश्चर्य से देखा और सहज भाव से बोल पड़े-
"आपको क्या करना है, क्या नहीं करना है, वह तो महाराज आप ही जाने। मैं कोई आपसे बात करने थोड़े ही आता हूं... मैं तो बस आपको देखने आता हूं... "
... और गुरु को केवल देख-देख कर ही स्वामी विवेकानंद कहां पहुंच गए इसको स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में जिसे स्वामी विवेकानंद ने 'देखना' कहा वह निहारना था गुरुदेव को। जिसने गुरुदेव को 'निहारने' की कला सीख ली फिर उसे और कुछ करने की आवश्यकता ही कहां? दृष्टि भी एक पथ ही होती है जिस पर जब शिष्य अपने आग्रह के पुष्प बिखेर देता है तो गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता से उस पथ पर अपने पग रखते हुए स्वयंमेव आकर शिष्य के ह्रदय में समा जाते है।
सोमवार, 9 जून 2008
मैं भक्तन को दास
एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे। उनके मकान की उपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय मै ले जाता। बाबा की सेवा करनेवाले वे शिष्य जवान लड़के थे।
एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी मदत करता हूं"
बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर घुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है"।
जाते-जाते वह युवक लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"
बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"
जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है?'
एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"
बाबा की सुंदर समाज जगी। उनको शक होने लगा की 'हो न हो, यह तो अपनेवाला ही, जो किसीका बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'
बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुजे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो भले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं"
देखते-देखते भगवन जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।
"देवधि देव ! सर्वलोके एकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"
तब मंद मुस्कुराते हुए भगवन बोले "महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र, तर-तीव्र, मंद प्रारब्ध। सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है। तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवन के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है। रामावतार मै मैंने बलि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।
तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है। आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है अभी पुरा हो जाय...और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही होता, भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"
"प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव ! ॥" कहेते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों मै गिर पड़े और भावान्मधुर्य मै भाग्वात्शंती मै खो गए। भगवान अंतर्धान हो गए।
रविवार, 4 मई 2008
श्रद्धा - सिद्धि की कुंजी
वहां उनके पास जिज्ञासापूर्ण दृष्टी लेकर एक शिष्य आया। उसकी ओर देखते हुए ऋषि ने पूछा, "वत्स, तुम्हें क्या बात विचलित कर रही है?"
शिष्य बोला, गुरु जी, बात यह कि आप जिस प्रकार भूमि पर चलते हैं, उसी प्रकार सरलता से पानी कि सतह पर चल सकते हैं? किंतु हम जब पानी में जाते हैं तो छटपटाते हैं, और डूबने लगते हैं।"
गुरुदेव बोले, "जिसके दिल में श्रद्धा है और जिसकी आंखों में निष्ठा का प्रकाश है - वह मछियारे कि नाव कि भांति आराम से पानी पर चल सकता हैं।"
शिष्य बोला, "स्वामी जी, जब से मैंने आपको देखा हैं, मुझमें आपके लिये हमेशा निष्ठा रही है, मैं भी आपकी तरह आस्थापूर्ण हूं और मेरी श्रद्धा मुझे विश्वास पूर्ण बनाती है।"
ऋषि बोले, "तब मेरे साथ आओ और हम मिल कर पानी पर चलते हैं।" शिष्य उनके पीछे-पीछे चल पडा। दोनों गुरु-शिष्य पानी पर चलने लगे। अचानक एक विशाल लहर उठी। ऋषि तो उस लहर पर चलने लगे, किंतु शिष्य डूबने लगा। ऋषि ने पुकारा, "वत्स तुम्हें क्या हुआ है?"
उत्तर देते हुए शिष्य कि आवाज में भय था, "गुरुदेव, जब मैंने उस विशाल लहर को अपनी ओर आते देखा, तो लगा वह मुझे निगल जायेगी। मेरे दिल में डर पैदा हुआ और मैं डूबने लगा। मेरे प्रिय गुरुदेव, मुझे बचा लीजिये, नहीं तो मैं डूब जाऊंगा।"
और ऋषि बोले, "अफसोस! मेरे बच्चे, तुम ने लहरों को तो देखा और उनसे डर गए, किंतु तुमने लहरों के स्वामी को नहीं देखा जो सदा तुम्हारी सहायता के लिये तत्पर है।"