रविवार, 25 मई 2008

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना

कर्ज का भार व्यक्ति के जीवन में अभिशाप की तरह होता है, जो व्यक्ति की हंसती हुई जिन्दगी में एक विष की भांति चुभ जाता है, जो निकाले नहीं निकलता और व्यक्ति को त्रस्त कर देता है। ऋण का ब्याज अदा करते-करते लम्बी अवधि हो जाती है, पर मूल राशी वैसी की वैसे बनी रहती है। नवरात्रि में ऋण मोचन लक्ष्मी की साधना करने से व्यक्ति कितना भी अधिक ऋणभार युक्त क्यों न हो, उसकी ऋण मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

नवरात्री में अथवा इस काल में संकल्प लेकर किसी भी सप्तमी से नवमी के बीच साधना कर सकता है। इस प्रयोग के लिए प्राणप्रतिष्ठायुक्त 'ऋण मुक्ति यंत्र' और 'ऋण मोचन लक्ष्मी तंत्र फल' की आवश्यकता होती है। साधना वाले दिन साधक प्रातः काल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने पवित्र आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर किसी पात्र में यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर कुंकुम से अपना नाम अंकित कर दें, उस पर तंत्र फल को रख दें। धुप-दीप से संक्षिप्त पूजन करें। वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो। फिर निम्न मंत्र का डेढ़ घंटे जप करें -

मंत्र
॥ ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्रीं श्रीं क्लीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मम गृहे धनं देही चिन्तां दूरं करोति स्वाहा ॥


अगले दिन यंत्र को जल मे विसर्जीत कर दें तथा, ऋण मोचन फल को प्रयोगकर्ता स्वयं अपने हाथों से किसी गरीब या भिखारी को अतिरिक्त दान-दक्षिणा, फल-फूल आदि के साथ दें। कहा जाता है, की ऐसा करने से उस तंत्र फल के साथ ही व्यक्ति की ऋण बाधा तथा दरिद्रता भी दान में चली जाती है और उसके घर में भविष्य में फिर किसी प्रकार की दरिद्रता का वास नहीं रहता।

यदि दान लेने वाला नहीं मिले, तो प्रयोगकर्ता स्वयं किसी मन्दिर में जाकर दक्षिणा के साथ उस तंत्र फल को भेट चढ़ा दे। इस प्रयोग को संपन्न करने के बाद तथा तंत्र फल दान कर पुनः घर आने पर लक्ष्मी आरती अवश्य संपन्न करें। इस प्रकार प्रयोग पूर्ण हो जाता है।
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका, फरवरी २००८

सोमवार, 19 मई 2008

शिष्य धर्म


  • शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।

  • चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।

  • गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।

  • शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।

  • और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।

  • जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।

  • और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।

  • जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।

  • गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

न गुरोरधिकं न गुरोरधि के न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः

  • जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।

  • शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।

  • गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।

  • सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।

  • जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।

  • गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।

  • यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।

  • शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।

  • शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।

  • मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।

  • वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।

-सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमालीजी

रविवार, 11 मई 2008

हेरम्ब गणपति साधना


रोग, चिंता, सर्वदुःख निवारण के लिए

रोग, चिंता, मानसिक तनाव आदि मानव जीवन का अभिशाप है, जो अच्छे-भले चल रहे जीवन में विष घोल देता है। रोग छोटा या बड़ा कोई भी हो, यदि उसका समय पर निवारण न किया जाए, तो मनुष्य की समस्त कार्यशक्ति क्षीण हो जाती है, और वह कुछ भी नहीं कर पाता है, दूसरों की दया दृष्टी पर निर्भर होकर मात्र पंगु बनकर रह जाता है। आज जिस वातावरण में हम सांस ले रहे है, इसमे मनुष्य का रोगी होना स्वाभाविक है। जहां न शुद्ध वायु है, न जल है, और न ही शुद्ध भोजन है, ऐसी स्थिति में रोगी होना कोई आश्चर्यजनक नहीं। इसलिए मधुमेह, ह्रदय रोग, टी. बी. आदि असाध्य रोग तीव्रता से हो रहे है।

हेरम्ब गणपति साधना आरोग्य एवं मानसिक शांति प्राप्ति का एक सुंदर उपाय है, इसके प्रभाव से जहां कायाकल्प होता है, वहीं साधक में एक संजीवनी शक्ति का संचार होता है, जिससे उसे कैसा भी भयंकर रोग हो, उस पर नियंत्रण प्राप्त कर वह स्वस्थ, यौवनवान बन जाता है।

आप प्रातः स्नान आदि नित्य क्रिया के बाद अपने पूजा स्थान में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें। धुप और दीप जला लें। अपने सामने पंचपात्र में जल भी ले लें। इन सभी सामग्रियों को आप चौकी पर रखें जिस पर लाल वस्त्र बिछा हुआ हो। पहले स्नान, तिलक, अक्षत, धुप, दीप, पुष्प आदि से गुरु चित्र का संक्षिप्त पूजन करें। उसके बाद गुरु मंत्र की दो माला जप करें।

गणपति पूजन
फिर गुरु चित्र के सामने किसी प्लेट पर कुंकुम या केसर से स्वस्तिक चिन्ह बनाकर 'हेरम्ब गणपति यंत्र' को स्थापित करें।

दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करें -

ॐ गनाननं भूत गणाधिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारू भक्षणं ।
उमासुतं शोकविनाशकरकंनमामि विघ्नेश्वर पंड़्क्जम ॥

फिर निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए पूजन करें -

ॐ गं मंगलमूर्तये नमः समर्पयामी ।
ॐ गं एकदन्ताय नमः तिलकं समर्पयामी ।
ॐ गं सुमुखाय नमः अक्षतान समर्पयामी ।
ॐ गं लम्बोदराय नमः धूपं दीपं अघ्रापयामी , दर्शयामि ।
ॐ गं विघ्ननाशाय नमः पुष्पं समर्पयामी ।


इसके बाद अक्षत और कुंकुम से निम्न मंत्र बोलते हुए यंत्र पर चढाएं -

ॐ लं नमस्ते नमः । ॐ त्वमेव तत्वमसि । ॐ त्वमेव केवलं कर्त्तासि ।
ॐ त्वमेवं केवलं भार्तासि । ॐ त्वमेवं केवलं हर्तासी ।


फिर 'हेरम्ब माला' से निम्न मंत्र की ५ माला ११ दिन तक जप करे -


ॐ क्लीं ह्रीं रोगनाशाय हेरम्बाय फट


- मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, फरवरी 2008

रविवार, 4 मई 2008

श्रद्धा - सिद्धि की कुंजी

एक बार एक ऋषि समुद्र के किनारे खड़े सूरज की भव्यता देख रहे थे। वे एक पेड़ के नीचे शांत वातावरण में खड़े थे। समुद्र की ओर से ठंडी, ताजगी भरी हवा चल रही थी और उसके साथ वृक्षों के उपरी भाग-हल्के झूम रहे थे, बहुत दूर नीले पर्वतों पर बादल छाये हुए थे।

वहां उनके पास जिज्ञासापूर्ण दृष्टी लेकर एक शिष्य आया। उसकी ओर देखते हुए ऋषि ने पूछा, "वत्स, तुम्हें क्या बात विचलित कर रही है?"

शिष्य बोला, गुरु जी, बात यह कि आप जिस प्रकार भूमि पर चलते हैं, उसी प्रकार सरलता से पानी कि सतह पर चल सकते हैं? किंतु हम जब पानी में जाते हैं तो छटपटाते हैं, और डूबने लगते हैं।"

गुरुदेव बोले, "जिसके दिल में श्रद्धा है और जिसकी आंखों में निष्ठा का प्रकाश है - वह मछियारे कि नाव कि भांति आराम से पानी पर चल सकता हैं।"

शिष्य बोला, "स्वामी जी, जब से मैंने आपको देखा हैं, मुझमें आपके लिये हमेशा निष्ठा रही है, मैं भी आपकी तरह आस्थापूर्ण हूं और मेरी श्रद्धा मुझे विश्वास पूर्ण बनाती है।"

ऋषि बोले, "तब मेरे साथ आओ और हम मिल कर पानी पर चलते हैं।" शिष्य उनके पीछे-पीछे चल पडा। दोनों गुरु-शिष्य पानी पर चलने लगे। अचानक एक विशाल लहर उठी। ऋषि तो उस लहर पर चलने लगे, किंतु शिष्य डूबने लगा। ऋषि ने पुकारा, "वत्स तुम्हें क्या हुआ है?"

उत्तर देते हुए शिष्य कि आवाज में भय था, "गुरुदेव, जब मैंने उस विशाल लहर को अपनी ओर आते देखा, तो लगा वह मुझे निगल जायेगी। मेरे दिल में डर पैदा हुआ और मैं डूबने लगा। मेरे प्रिय गुरुदेव, मुझे बचा लीजिये, नहीं तो मैं डूब जाऊंगा।"

और ऋषि बोले, "अफसोस! मेरे बच्चे, तुम ने लहरों को तो देखा और उनसे डर गए, किंतु तुमने लहरों के स्वामी को नहीं देखा जो सदा तुम्हारी सहायता के लिये तत्पर है।"
- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका, फरवरी २००८