सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

दीपावली सम्पूर्ण लक्ष्मी पूजन

भगवती श्री-लक्ष्मी का विधिवत पूजन जिसमे ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ का पूजन समाहित है | 


श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यां बहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि 
रूप मश्विनो! इष्णन्निषाणां मुम्म ईषाणा सर्वलोकम्म ईषाणा | 

हे जगदीश्वर! ये समस्त ऐश्वर्य और समग्र शोभा अर्थात 'लक्ष्मी' और 'श्री' दोनों ही आपकी पत्नी तुल्य हैं, दिन और रात आपकी सृष्टि में विचरण करते रहते हैं, सूर्य चंद्र आपके मुख हैं | नक्षत्र आपके रूप है, मैं आपसे समस्त सुखों की कामना करता हूं |

यही प्रश्न हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषि-मुनियों के मन में भी अवश्य आया होगा, तभी उन्होनें लक्ष्मी की पूर्ण व्याख्या की | प्रारम्भ के श्लोक में यही विवरण आया है कि लक्ष्मी, जो 'श्री' से भिन्न होते हुए भी "श्री" का ही स्वरुप हैं, जो पालनकर्ता विष्णु के साथ रहती हैं, जिनके चारों ओर सारे नक्षत्र, तारे, विचरण करते हैं, जो सारे लोकों में विद्यमान हैं, उस 'श्री'का मैं वन्दन करता हूं |

अर्थात 'श्री' ही मूल रूप से लक्ष्मी हैं और इसीलिए हमारी संस्कृति में  'मिस्टर' की जगह 'श्री' लिखा जाता है|  अर्थात वह व्यक्ति, जो श्री से युक्त है, उसी के नाम के आगे 'श्री' लगाकर सम्बोधित किया जाता है|

'श्री सूक्त' जिसे 'लक्ष्मी सूक्त' भी कहा जाता है, उसमें लक्ष्मी का श्री रूप से ही प्रार्थना की गई है, जो वात्सल्यमयी हैं,धन-धान्य, संतान देने वाली हैं, जो मन और वाणी को दीप्त करती हैं, जिनके आने से दानशीलता प्राप्त होती है, जो वनस्पति और वृक्षों में स्थित हैं, जो कुबेर और अग्नि अर्थात तेजस्विता प्रदान करने वाली हैं, जो जीवन में परिश्रम का ज्ञान कराती हैं, जिसकी कृपा से मन में शुद्ध संकल्प और वाणी में सत्यता आती है,जो शरीर में तरलता और पुष्टि प्रदान करने वाली हैं, उस श्री के सांसारिक जीवन में स्थायी स्थान के लिए बार-बार प्रार्थना और नमन किया गया है |

श्री सूक्त में एक विशेष बात यह कही गई है कि लक्ष्मी की जेष्ट भगिनी अर्थात अलक्ष्मी अर्थात अलक्ष्मी अर्थात दरिद्रता है जो भूख और प्यास के साथ दुर्गन्धयुक्त है, अर्थात यदि जीवन में धन तो है लेकिन तृष्णाएं यथावत हैं, मानसिक रूप से विकारों में मलिनता है तो वह लक्ष्मी 'श्री' रुपी लक्ष्मी नहीं है और वह लक्ष्मी स्थायी रह भी नहीं सकती है |

जो 'श्री' रुपी लक्ष्मी है, वही जीवन में स्थायी रह सकती है, और इस श्री रुपी लक्ष्मी की नौ कलाओं का जब जीवन में पदार्पण होता है तभी जीवन में पूर्णता आ पाती है |

लक्ष्मी की नौ कलाएं 
जिस व्यक्ति में लक्ष्मी की इन नौ कलाओं का विकास होता है, वहीं लक्ष्मी चिरकाल के लिए विराजमान होती है|

१. विभूति  - सांसारिक कर्तव्य करते हुए दान रुपी कर्तव्य जहां विद्यमान होता है, अर्थात शिक्षा दान, रोगी सेवा, जल दान इत्यादि कर्तव्य हैं, वहां लक्ष्मी की 'विभूति' नामक पीठिका है, यह लक्ष्मी की पहली शक्ति है |

२. नम्रता  - दूसरी शक्ति है नम्रता | व्यक्ति जितना नम्र होता है, लक्ष्मी उसे उतना ही ऊंचा उठाती है |

३. कान्ति - जब विभूति और कान्ति दोनों कलाएं आ जाती हैं, तो वह लक्ष्मी की तीसरी कला 'कान्ति' का पात्र हो जाता है, चेहरे पर एक तेज आता है |

४. तुष्टि  - इन तीनों कलाओं की प्राप्ति होने पर 'तुष्टि' नामक चतुर्थ कला का आगमन होता है, वाणी सिद्धि, व्यवहार, गति, नए-नए कार्य, पुत्र-प्राप्ति, दिव्यता-सभी उसमें एक रास होती हैं|

५. कीर्ति - यह लक्ष्मी की पांचवी कला है, इसकी उपासना करने से साधक अपने जीवन में धन्य हो जाता है, संसार के आधार का अधिकारी हो जाता है |

६. सन्नति - कीर्ति-साधना से लक्ष्मी की छटी कला सन्नति मुग्ध होकर विराजमान होती है|

७. पुष्टि - इस कला द्वारा साधक अपने जीवन में जो सन्तुष्टि अनुभव करता है| उसे अपने जीवन का सार मालूम पड़ता है |

८. उत्कृष्टि - इस कला से जीवन में क्षय-दोष होता है वह समाप्त हो जाता है | केवल वृद्धि ही वृद्धि होती है |

९. ऋद्धि - सबसे महत्वपूर्ण, सर्वोत्तम कला ऋद्धि पीठाधिष्ठात्री है, जो बाकी आठ कलाओं के होने पर स्वतः ही समाविष्ट हो जाती है |

दीपावली रात्रि को विधिवत पूजन से श्री-लक्ष्मी, नौ कलाओं सहित घर में स्थायी निवास करती है |

पूजन सामग्री

कुंकुम,मौली, अगरबत्ती, केशर, कपूर, सिन्दूर, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, फल, पुष्प माला, गंगाजल, पंचामृत (दूध,  दही, घी, शहद और चीनी), यज्ञोपवीत, वस्त्र, मिठाई एवं पंचपात्र|

पवित्रीकरण 

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा | 
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः || 

संकल्प 
दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़े -

ॐ विष्णु विर्ष्णुः श्री मदभगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मनोहि द्वितीय परार्द्वे श्वेतवाराह्कल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे जम्बु द्वीपे भारतवर्षे अस्मिन पवित्र क्षेत्रे भौमवासरे अमुक गोत्रोत्पन्नहं (अपना गोत्र बोले), अमुक शर्माहं (अपना नाम बोले) यथा मिलितोपचारैः श्री महालक्ष्मी प्रीत्यर्थे तदंगत्वेन गणपति पूजनं च करिष्ये | 

जल भूमि पर छोड़ दें |

गुरु पूजन 
सामने गुरु यंत्र व् गुरु चित्र स्थापित कर लें तथा दोनों हाथ जोड़ कर निम्न मन्त्र का उच्चारण करें -

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर | 
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः || 
गुरुं आवाहयामि स्थापयामि नमः | 
पाद्यं स्नानं तिलकं पुष्पं धूपं 
दीपं नैवेद्यं च समर्पयामि नमः |

ऐसा बोलकर पाद्य, जल स्नान, तिलक, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि समर्पित करें, फिर दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें -

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया | 
चक्षुरन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः || 

गणपति-पूजन 
इसके बाद दोनों हाथ जोड़ कर भगवान् गणपति का ध्यान करें -

गजाननं भूत गणाधिसेवितं,
कपित्थ जम्बूफल चरुभक्षणं| 
उमासुतं शोक विनाश कारकं ;
नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम || 
ॐ गणेशाय नमः ध्यानं समर्पयामि || 

भगवान् गणपति को आसन के लिए पुष्प समर्पित करें |  इसके बाद सामने स्थापित 'महागणपति-महालक्ष्मी' यंत्र अथवा विग्रह को जल से स्नान करावें, फिर पंचामृत स्नान करावें, स्नान के समय निम्न मन्त्र बोलें -

पञ्च नद्यः सरस्वती मपियन्ति सस्त्रोतसः | 
सरस्वती तू पञ्चधा सोदेशेभवत सरित || 

इसके बाद चन्दन, अक्षत, पुष्पमाला, नैवेद्य आदि समर्पित करें तथा धुप-दीप दिखाएं -

चन्दनं अक्षतान पुष्प मालां 
नैवेद्यं च समर्पयामि नमः | 
धूपं दीपं दर्शयामि नमः || 

इसके बाद तीन बार मुख शुद्धि के लिए आचमन करायें, इलायची और लौंग आदि से युक्त पान चढ़ायें|  फिर दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें  -

नमस्ते ब्रह्मरूपाय विष्णुरूपाय ते नमः | 
नमस्ते रुद्ररूपाय करिरूपाय ते नमः || 
विश्वरूपस्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मचारिणे | 
भक्तिप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक || 
ॐ गं गणपतये नमः | 
निर्विघ्नमस्तु|  निर्विघ्नमस्तु | निर्विघ्नमस्तु | 
अनेन कृतेन पूजनेन सिद्धि बुद्धि सहितः || 
श्री भगवान् गणाधिपतिः प्रीयन्ताम || 

इसके बाद दोनों हाथ जोड़ कर भगवती महालक्ष्मी का ध्यान करें -

ॐ अम्बेअम्बिके अम्बालिके न मा नयति कश्चन| 
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः आवाहनं समर्पयामि || 

महालक्ष्मी ध्यान 
दोनों हाथ जोड़कर मन ही मन स्मरण करें कि भगवती महालक्ष्मी आकर विराजमान हो, प्रार्थना करे  -

पदमासना पदमकरां पदममाला विभूषिताम | 
क्षीर सागर संभूतां हेमवर्ण समप्रभाम || 
क्षीर वर्ण समं वस्त्रं दधानं हरिवल्लभाम | 
भावये भक्तियोगेन भार्गवीं कमलां शुभां || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः ध्यानं समर्पयामि || 

आसन 
आसन के लिए पुष्प अर्पित करें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः आसनं समर्पयामि नमः || 

पाद्य 
पाद्य के लिए दो आचमनी जल चढ़ायें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः पाद्यं समर्पयामि | 
अर्घ्यं आचमनीयं स्नानं च समर्पयामि || 

पंचामृत स्नान 
पंचामृत से भगवती महालक्ष्मी को स्नान कराये -
मध्वाज्यशर्करायुक्तं दधिक्षीरसमन्वितम | 
पंचामृतं गृहाणेदं पंचास्यप्राणवल्लभे |
श्री महालक्ष्म्यै नमः पंचामृत स्नानं समर्पयामि || 

शुद्धोदक स्नान 
इसके बाद उन्हें शुद्ध जल से स्नान करायें -
परमानन्द बोधाब्धि निमग्न निजमूर्तये | 
शुद्धोदकैस्तु स्नानं कल्पयाम्यम्ब शंकरि || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः  शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि || 

वस्त्र 
वस्त्र समर्पित करे  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः वस्त्रं समर्पयामि || 

आभूषण 
श्री महालक्ष्म्यै नमः आभूषणं समर्पयामि || 

गन्ध 
इत्र चढ़ावें
श्री महालक्ष्म्यै नमः गन्धं समर्पयामि || 

अक्षत 
श्री महालक्ष्म्यै नमः अक्षतान समर्पयामि || 

पुष्प 
श्री महालक्ष्म्यै नमः पुष्पाणि समर्पयामि || 

इसके बाद कुंकुम, चावल तथा पुष्प मिला कर निम्न मन्त्रों का उच्चारण करते हुए यंत्र पर चढ़ायें -

ॐ चपलायै नमः पादौ पूजयामि || 
ॐ चञ्चलायै नमः कटिं पूजयामि || 
ॐ कमलायै नमः कटिं पूजयामि || 
ॐ कात्यायन्यै नमः नाभिं पूजयामि || 
ॐ जगन्मात्रे नमः जठरं पूजयामि || 
ॐ विश्ववल्लभायै नमः वक्षःस्थलं पूजयामि || 
ॐ कमलवासिन्यै नमः हस्तौ पूजयामि || 
ॐ पाद्याननायै नमः मुखं पूजयामि || 
ॐ कमलपत्राख्यै नमः नेत्रत्रयं पूजयामि || 
ॐ श्रियै नमः शिरः पूजयामि || 
ॐ महालक्ष्म्यै नमः सर्वाङ्गं पूजयामि || 
धूप 
श्री महालक्ष्म्यै नमः धूपं आघ्रापयामि || 

दीप 
श्री महालक्ष्म्यै नमः दीपं दर्शचयामि || 

नैवेद्य 
नाना विधानी  भक्ष्याणी
व्यञ्जनानी       हरिप्रिये |
यथेष्टं   भूङक्ष्व    नैवेद्यं |
षडरसं   च    चतुर्विधम || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः नैवेद्यं निवेदयामि || 
नैवेद्य समर्पित कर तीन बार जल का आचमन कराएं |

ताम्बूल 
लौंग इलायची युक्त पान समर्पित करें -
श्री महालक्ष्म्यै नमः ताम्बूलं समर्पयामि || 

दक्षिणा 
दक्षिणा द्रव्य समर्पित करें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः दक्षिणां समर्पयामि || 

इसके बाद 'कमलगट्टे की माला' से निम्न मन्त्र का १ माला मन्त्र जप करें -

|| ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्मी आगच्छ आगच्छ धनं देहि देहि ॐ || 

आरती 
इसके बाद घी की पांच बत्ती की आरती बना कर आरती करें  -
लक्ष्मी आरती के लिए यहां क्लीक करें  - लक्ष्मी आरती 

जल आरती 
तीन बार आचमनी से जल लेकर दीपक के चरों ओर घुमायें तथा निम्न मन्त्र का उच्चारण करें -

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष (गूं ) शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्ति 
रोषधयः शान्तिः |  वनस्पतयः शान्ति र्विश्वे देवाः शान्तिः ब्रह्म 
शान्तिः सर्व (गूं ) शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि || 

 पुष्पाञ्जलि 
दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न मन्त्र का उच्चारण करें तथा यंत्र अथवा विग्रह पर चढ़ा दे -
नाना सुगंध पुष्पाणि यथा कालोदभवानि च |
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण जगदम्बिके || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः पुष्पांजलि समर्पयामि || 

समर्पण 
इसके बाद निम्न समर्पण मन्त्र का उच्चारण करते हुए पूजन व् जप भगवती लक्ष्मी को समर्पित करें, जिससे कि इसका फल आपको प्राप्त हो सके -

ॐ     तत्सत         ब्रह्मार्पणमस्तु,
अनेन कृतेन पूजाराधन कर्मणा | 
श्री  महालक्ष्मी  देवता  परासंवित 
स्वरूपिणी                प्रियनताम || 

एक आचमनी जल लेकर, पूजन की पूर्णता हेतु भूमि पर छोड़ दें | इसके बाद वहा उपस्थित परिवार के सभी सदस्यों एवं स्वजनों को प्रसाद वितरित करें|

इस प्रकार यह सम्पूर्ण पूजन व् साधना संपन्न होती है| साधना समाप्ति के पश्चात सवा माह तक नित्य कमलगट्टे की माला से - || ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्मी आगच्छ आगच्छ धनं देहि देहि ॐ ||  मंत्र का १ माला जप करें | सवा माह पश्चात माला तथा यंत्र को जल में विसर्जित कर दें | 

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

शास्त्रार्थ

हरिस्ते शान्तत्वं भवत जन कल्याण इति  वै
समस्त ब्रह्माण्ड ज्ञनद वद श्रेयं परित च ।
ऋषिरवै हुंकार क्वच क्वद च शास्त्रार्थ करतुं  
अहत हुंकारैर्ण  श्लथ भवतु योगीर्न श्रीयतः ।।  
         
सिद्धाश्रम अपने आप में शांत था और यहा स्थित तपस्वी आत्मकेंद्रित। पहली बार आपने उनके ज्ञान को, उनके पौरुष को और उनके जीवन को ललकारने का दुस्साहस किया, पहली  बार आपने उनके 'अहं' को चोट दी, पहली बार आपने उनको बताया, कि केवल एक स्थान पर बैठ कर साधना या तपस्या करने से कुछ नहीं होता; अपितु समाज में जाकर आपने ज्ञान के सूर्य की रश्मियां फैलाने में ही पूर्णता है। 'स्व ' को विकसित करने की अपेक्षा समस्त ब्रह्माण्ड को और उसमें स्थित प्राणियों को विकसित करने से ही पूर्णता और श्रेयता प्राप्त हो सकती है ।

पहली बार आपने विव्दाग्नी ऋषि के प्रचंड क्रोध का सामना किया, पहली बार सुश्रवा, मुद्गल आदि ऋषियों से शास्त्रार्थ कर उनके अहं को परास्त किया, और पहली बार आपने सिद्धाश्रम में डंके की चोट पर ऐलान किया - "जिस किसी भी में अहं हो और जो भी योगी, संन्यासी, सिद्ध किसी भी स्थान पर, किसी भी विषय पर, कभी भी शास्त्रार्थ करना चाहे, मैं तैयार हूं।

पर आपकी इस हुंकार ने उनको अपनी-अपनी कुटियाओं में दुबक कर बैठने के लिए विवश कर दिया ।

नतमस्तक होना और पराजित होना तो शायद आपने सीखा ही नहीं। जीवन में जो कुछ भी किया, पूर्ण पौरुषता के साथ किया । आपने अपने ज्ञान से, अपनी चेतना से इस बात को समझा कर पुरे सिद्धाश्रम  में यह स्पष्ट कर दिया, कि आप से टक्कर लेने वाला कोई दुसरा योगी, यति या संन्यासी पैदा ही नहीं हुआ, और अभी हजार वर्ष तक भी कोई पैदा नहीं हो पाएगा ।

एक प्रकार से देखा जाय, तो भारतीय ज्ञान को पूर्णता के साथ स्पष्ट करने की क्रिया केवल आप ही के माध्यम से हुई है । यदि वेद को कोई आकार दे दिया जाय, तो वह केवल आप हैं । आप स्वयं वेदमय हैं, वेद आप में समाहित हैं, और आपको देखकर ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद की सांकार प्रतिमा आंखो के सामने स्पष्ट हो जाती है ।  

रविवार, 6 मार्च 2011

मृत्योर्मा अमृतं गमय - ४

जो झूठ और असत्य से, छल और कपट से परे रहते हो| जिनका जीवन अपने आप में सात्विक हो, जो अपने आप में देवात्मा हो, अपने आप में पवित्र हों, दिव्य हो, ऐसे स्त्री और पुरुष श्रेष्ठ युगल कहें जाते हैं और यदि ऐसे स्त्री और पुरुष के गर्भ में हम जन्म लें, तो अपने आप में अद्वितीयता होती है, क्या हम कल्पना कर सकते हैं की देवकी के अलावा श्रीकृष्ण भगवान् किसी ओर के गर्भ में जन्म ले सकते थे? क्या हम सोच सकते हैं कौशल्या के अलावा किसी के गर्भ में इतनी क्षमता थी की भगवान् राम को उनके गर्भ में स्थान दे सकें? नहीं| इसके लिए पवित्रता, दिव्यता, श्रेष्ठता, उच्चता जरूरी है| मगर प्रश्न यह उठाता है की क्या हम मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, क्या हमारी चेतना बनी रह सकती है और क्या मृत्यु को प्राप्त होने के बाद ऐसी स्थिति, कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी विशिष्टता है की हम श्रेष्ठ गर्भ का चुनाव कर सकें? वह चाहे किसी शहर में हो , वह चाहे किसी प्रांत में हो, वह चाहे किसी राष्ट्र में हो, जहां जिस राष्ट्र में चाहे, भारतवर्ष में चाहे, जिस शहर में चाहे, जिस स्त्री या पुरुष के गर्भ से जन्म लेना चाहे, हम जन्म ले सकें कोई ऐसी स्थिति है? यह प्रश्न हमारे सामने सीधा, दो टूक शब्दों में स्पष्ट खडा रहता है और इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है|

हमारे पास नहीं है मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, हम विवश हो जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं, लाचार हो जाते हैं, यह कोई स्पष्ट नहीं है की हम दो साल बाद, पांच साल बाद, दस साल बाद, पंद्रह या बीस साल बाद, पचास साल बाद उस पितृ लोक में भटकते हुए कहीं जन्म ले लें| हो सकता है किसी गरीब घराने में जन्म लें, कसाई के घर में जन्म ले, हम किसी दुष्ट आत्मा के घर में जन्म ले लें, हम किसी व्याभिचारी के घर में जन्म ले लें और हम किसी मां के घर में जन्म ले लें की भ्रूण ह्त्या हो जाए, गर्भपात हो जाए, हम पूरा जन्म ही नहीं ले सकें| आप कल्पना करें कितनी विवशता हो जायेगी हमारे जीवन की और हम इस जीवन में ही उस स्थिति को भी प्राप्त कर सकते हैं की हम मृत्यु के बाद भी उस प्राणी लोक में, जहां करोडो प्राणी हैं, करोडो आत्माएं है उन आत्माओं में भी हम खड़े हो सके और हमें इस बात का ज्ञान हो सके की हम कौन थे कहां थे किस प्रकार की साधनाएं संपन्न की और क्या करना है? और साथ ही साथ इतनी ताकत, इतनी क्षमता, इतनी तेजस्विता आ सके कि सही गर्भ का चुनाव कर सकें और फिर ऐसी स्थिति बन सके कि तुरन्त हम उस श्रेष्ठ गर्भ में प्रवेश कर सकें और जन्म ले सकें| चाहे उसमे कितनी भीड़, चाहे कितनी ही दुष्ट आत्माएं हमारे पीछे हो| हा उसके बीच में से रास्ता निकाल कर के उस श्रेष्ठ गर्भ का चयन कर  सकें और ज्योंही गर्भ खुल जाए उसमें प्रवेश कर सके| इसको अमृत साधना कहा गया है और यह अपने अपने आप में अद्वितीय साधना है, यह विशिष्ट साधना| इसका मतलब है कि इस साधना को संपन्न करने के बाद हमारा यह जीवन हमारे नियंत्रण में रहता है, मृत्यु के बाद हम प्राणी बनकर के भी, जीवात्मा बनकर के भी हमारा नियंत्रण उस पर रहता है और उस जीवात्मा के बाद गर्भ में जन्म लेते हैं, गर्भ में प्रवेश करते हैं| तब भी हमारा नियंत्रण बना रहता है| यह पूरा हमारा सर्कल बन जाता है की हम हैं, हम बढें, हम मृत्यु को प्राप्त हुए, जीवात्मा बनें फिर गर्भ में प्रवेश किया| गर्भ में प्रवेश करने के बाद जन्म लिया और जन्म लेने के बाद खड़े हुए| ये पूरी एक स्टेज, एक पूरा वृत्त बनाता है| पुरे वृत्त का हमें भान रहता है और कई लोगों को ऐसे वृत्त का भान रहता है, ज्ञान रहता है कि प्रत्येक जीवन में हम कहां थे| किस प्रकार से हमने जन्म लिया? ऐसे कई अलौकिक घटनाएं समाज में फैलती हैं जिसको पुरे जन्म का ज्ञान रहता है| मगर कुछ समय तक रहता है|

प्रश्न तो यह है की हम ऐसी साधनाओं को संपन्न करें जो कि हमारे इस जीवन के लिए उपयोगी हो और मृत्यु के बाद हमारी प्राणात्मा  इस वायुमंडल में विचरण करते रहती है तो प्राणात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे| साधना के माध्यम से वह डोर टूटे नहीं, डोर अपने आप में जुडी रहे और जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ में हम प्रवेश कर सकें| ऐसा नहीं हो कि हम लेने के लिए ५० वर्षों तक इंतज़ार करते रहे| हम चाहते हैं कि हम वापिस जल्दी से जल्दी जन्म लें, हम चाहते हैं कि इस जीवन में जो की गई साधनाएं हैं वह सम्पूर्ण रहे और जितना ज्ञान हमने प्राप्त कर लिया उसके आगे का ज्ञान हम प्राप्त करें क्योंकि ज्ञान को तो एक अथाह सागर हैं, अनन्त पथ है| इस जीवन में हम पूर्ण साधनाएं संपन्न नहीं कर सकें, तो अगले जीवन में हमने जहां छोड़ा है उससे आगे बढ़ सकें, क्योंकि ये जो इस जीवन का ज्ञान है वह उस जीवन में स्मरण रहता है| यदि उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ पर हमारा नियंत्रण रहता है, गर्भ में जन्म लेने पर हमारा नियंत्रण रहता है| जन्म लेने के बाद गर्भ से बाहर आने कि क्रिया पर नियंत्रण रहता है, इसलिए इस अमृत साधना का भी हमारे जीवन में अत्यंत महत्त्व है क्योंकि अमृत साधना के माध्यम से हम जीवन को छोड़ नहीं पाते, जीवन पर हमारा पूर्ण अधिकार रहता है| जिस प्रकार क़ी सिद्धि को चाहे उस सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं|

प्रत्येक स्त्री और पुरुष को अपने जीवन काल में जब भी अवसर मिले, समय मिले अपने गुरु के पास जाना चाहिए| मैं गुरु शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं, जिसको इस साधना का ज्ञान हो वह गुरु| हो सकता है, ऐसा गुरु आपका भाई हो, आपकी पत्नी हो, आपका पुत्र हो सकता है यदि उनको इस बात का ज्ञान है और यदि नहीं ज्ञान है जिस किसी गुरु के पास इस प्रकार का ज्ञान हो उसके पास हम जाए| उनके चरणों में बैठे, विनम्रता के साथ निवेदन करें कि हम उस अमृत साधना को प्राप्त करना चाहते हैं| क्योंकि इस जीवन को तो हम अपने नियंत्रण में रखें ही, उसके बाद हम जब भी जन्म लें तो उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर भी हमारा नियंत्रण बना रहे और हम जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ को चुनें, श्रेष्टतम गर्भ को चुने, अद्वितीय उच्चकोटि क़ी मां को चुने, उस परिवार को चुने जहां हम जन्म लेना चाहते हैं| उस गर्भ में जन्म ले सके| हम एक उच्च कोटि के बालक बनें क्योंकि साधना से उच्च कोटि के मां-बाप का चयन भी कर सकते हैं और यदि हम चाहे अमुक मां-बाप के गर्भ से ही जन्म लेना है, तब भी ऐसा हो सकता है| यदि हम चाहे उस शहर के उस मां-बाप के यहां जन्म लेना है यदि वह गर्भ धारण करने क़ी क्षमता रखते हैं तो वापिस उसमें प्रवेश करके जन्म ले सकते हैं| ऐसे कई उदाहरण बने हैं| जिस मां के गर्भ से जन्म लिया और किसी कारणवश मृत्यु को प्राप्त हो गए, तो उस मां के गर्भ में वापिस भी जन्म लेने की स्थिति बन सकती है| खैर ये तो आगे क़ी स्थिति है, इस समय तो स्थिति है कि हम इस अमृत साधना के माध्यम से अपने वर्त्तमान जीवन को अपने नियंत्रण में रखे इस मृत्यु के बाद जीवात्मा क़ी स्थिति पर नियंत्रण रखें| हम जो गर्भ चाहे, श्रेष्टतम गर्भ में प्रवेश कर सकें, पूर्णता के साथ कर सकें और जन्म लेने के बाद विगत जन्म का स्मरण हमें पूर्ण तरह से रहे| जैसे कि उस जीवन में जो साधना क़ी है उस साधना को आगे बढ़ा सकें| उस जीवन जिस गुरु के चरणों में रहे हैं, उस गुरु के चरणों में वापिस जल्दी से जल्दी जा सकें, आगे क़ी साधना संपन्न कर सकें| ये चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, साधक हो, साधिका हो प्रत्येक के जीवन क़ी यह मनोकामना है कि वह इस साधना को सपन्न कर सकता है| मैंने अपने इस प्रवचन में तीन साधनों का उल्लेख किया| मृत्योर्मा साधना, अमृत साधना और गमय साधना और इन तीनों साधनाओं को मिलाकर 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' शब्द विभूषित किया गया है| इसलिए इशावास्योपनिषद में और जिस उपनिषद् में इस बात क़ी चर्चा है वह केवल एक पंक्ति नहीं हैं, 'मृत्योर्मा अमृत गमयं '|

मृत्यु से अमृत्यु के ओर चले जाए, हम किस प्रकार से जाए, किस तरकीब से जाए इसलिए उन तीनों साधनाओं के नामकरण इसमें दिए हैं, इसको स्पष्ट किया| इन तीनों साधनाओं को सामन्जस्य से करना, इन तीनो साधनाओं को समझना हमारे जीवन में जरूरी है, आवश्यक है और हम अपने जीवन काल में ही इन तीनों साधनाओं को संपन्न करें, यह हमारे लिए जरूरी है, उतना ही आवश्यक है और जितना जल्दी हो सके अपने गुरु  के चरणों में बैठे, जितना जल्दी हो सके उनके चरणों में अपने आप को निवेदित करें| अपनी बात को स्पष्ट करें की हम क्या चाहते हैं और वो जो समय दें, वह जो परीक्षा लें, वह परिक्षा हम दें|  वह जिस प्रकार से हमारा उपयोग करना चाहे, हम उपयोग होने दें| मगर हम उनके चरणों में लिपटे रहे क्योंकि हमें उनसे प्राप्त करना है| अदभुद ज्ञान, अद्वितीय ज्ञान, श्रेष्टतम ज्ञान| बहुत कुछ खोने के बाद बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है| यदि आप कुछ खोना नहीं चाहें और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहें तो तो ऐसा जीवन में संभव नहीं हो सकता| अपने जीवन को दांव पर लगा करके, प्राप्त किया जा सकता है| यदि आप जीवन को बचा रहे हैं, तो जीवन को बचाते रहे और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहे तो ऐसा संभव नहीं हो सकता| इसीलिये इस उपनिषदकार ने इस मृत्योर्मा अमृतं गमयं  से सम्बंधित कुछ विशिष्ट मंत्रो का प्रयोग किया| यद्यपि इसकी साधना पद्धति बहुत सरल है, सही है कोई भी स्त्री या पुरुष इस साधना को संपन्न कर सकता है| यद्यपि इस साधना के लिए गुरु के चरणों में पहुँचना आनिवार्य है, क्योंकि इसकी पेचीदगी गुरु के द्वारा ही समझी जा सकती है| उनके साथ, उनके द्वारा ही मन्त्रों को प्राप्त किया जा सकता है| यदि इन मन्त्रों को हम एक बार श्रवण करते हैं तब भी हमारे जीवन क़ी चैतन्यता बनती है, तब भे हम जीवन के उत्थान क़ी ओर अग्रसर होते हैं, तब ही हम मृत्यु पर विजय प्राप्त  करने क़ी साहस और क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और तभी हम मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर होते हैं, जहां मृत्यु हम पर झपट्टा मार नहीं सकती, जहां मृत्यु हमको दबोच नहीं सकती, समाप्त नहीं कर सकती और हम जितने वर्ष चाहे जितने युगों चाहे जीवित रह सकते हैं| 

-- सदगुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस