शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग -१

 ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः 

नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं? 

ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?

यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|

उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...

मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|

उस समय मेरा मन भी इस  प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|

जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य  मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|

उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|

'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी  सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|

मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|

'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के  आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से  'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'

'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|

'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद  वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|

'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|

एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...

करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'

'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग - २

 आखिर में उन्होनें आश्वस्त होकर निम्न बातें बताई| हमारा गुरु मंत्र 'ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः' का बाह्य अर्थ है, कि, - 'ही नारायण! आप सभी तत्वों के भी मूल तत्व हैं और सभी साकार और निर्विकार शक्तियों से भी परे हैं, हम आपको गुरु रूप में श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं|'...यह मंत्र किसी के द्वारा रचित नहीं है, जब गुरुदेव के चरण पहली बार दिव्य भूमि सिद्धाश्रम में पड़े, तो स्वतः ही दसों दिशाएं और सारा ब्रह्माण्ड इस तेजस्वी मंत्र की ध्वनि से गुंजरित हो उठा था, ऐसा लग रहा था, मानो सारा ब्रह्माण्ड उस अद्वितीय अनिर्वचनीय विभूति का अभिनन्दन कर रहा हो...'

'उसी दिन से गुरुदेव अपने शिष्यों को दीक्षा देते समय यही मंत्र प्रदान करते हैं, जो कि वास्तव में ब्रह्माण्ड द्वारा गुरुदेव के वास्तविक स्वरुप का प्रकटीकरण है|'

'तो क्या वे...' - मैं अपने आपको रोक न सका| 'श S S  S ..'  उन्होनें अपने मूंह पर उंगली रखते हुए मुझे आलोचनात्मक दृष्टी से देखा - 'बीच में मत बोलो, बस ध्यानपूर्वक सुनते रहो|

मुझे आखें नीचे किये सर हिलाते देख कर वे आगे बोले - 'यह सोलह बीजाक्षरों से युक्त मंत्र उन षोडश दिव्य कलाओं को दर्शाता है, जिसमें गुरुदेव परिपूर्ण हैं| ये ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ अनिर्वचनीय सिद्धियों के भी प्रतिक हैं| अब में एक-एक करके इस मंत्र के हर बीज को तुम्हारे सामने स्पष्ट करूंगा और उसमें निहित शक्तियों के बारे में बताउंगा| अच्छा, ज़रा तुम गुरु मंत्र बोलो तो!'

"ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः"

'बहुत खूब!, उन्होनें मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा - 'अच्छा, तो सबसे पहले हम पहला बीज 'प' लेते हैं| क्या तुम इसके बारे में बता सकते हो? नहीं, तो मैं बताता हूं| इसका अर्थ है - 'पराकाष्ठा', अर्थात जीवन के हर क्षेत्र में, हर आयाम में सर्वश्रेष्ठ सफलता, ऐसी सफलता जो और किसी के पास न हो| इस बीज मंत्र के जपने मात्र से एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवन को सफलता की अनछुई उंचाई तक ले जा सकता है, चाहे वह भौतिक जीवन हो अथवा आध्यात्मिक| ऐसे व्यक्ति को स्वतः ही अटूट धन-संपदा, ऐश्वर्य, मान, सम्मान प्राप्त हो जाता है| वह भीड़ में भी 'नायक' ही रहता है, वह मानव जाति का 'मार्गदर्शक' कहलाता है और आने वाली पीढियां उसे 'युगपुरुष' कह कर पूजती हैं|

'इसके द्वारा व्यक्ति को सूक्ष्म एवं दिव्य दृष्टी भी प्राप्त हो जाती ई और वह 'काल ज्ञान' में भी पारंगत हो जाता है| अतः वह आसानी से किसी भी व्यक्ति, सभ्यता और देश के भूत, भविष्य और वर्त्तमान को आसानि से देख लेता है|'

'वाह!' - मेरे मूंह से सहज निकल पडा|  'हां, पर ... क्या तुम और भी जानना चाहोगे या तुम इतने से ही खुश हो' - उनकी आँखों में शरारत झलक रही थी|

'नहीं! रुकिए मत! मैं सब कुछ जानना चाहता हूं|' वे मेरी परेशानी में प्रसन्नता महसूस कर रहे थे और मेरी व्यग्रता उन्हें एक संतोष सा प्रदान कर रही थी|

'तो अब हम दुसरे बीज 'र' को लेते हैं| यह शरीर में स्थित 'अग्नि' को दर्शाता है, जिसका कार्य व्यक्ति को रोग, दुष्प्रभावों आदि से बचाना है| इसके अलावा यह इच्छित व्यक्तियों को 'रति सुख' (काम) प्रदान करता है, जो मानव जीवन की एक आवश्यकता है|'

'यह सूक्ष्म अग्नि का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो कि ऊपर बताई गई अग्नि से भिन्न होता हैं इसका कार्य, व्यक्ति के चित्त से उसकी सारी कमियों और विकारों को जला कर पवित्र करता है| ये विकार 'पांच विकारों' के नाम से जाने जाते हैं| अच्छा ज़रा बताओ तो, वे कौन-कौन से हैं?'

'काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार|'

'बिल्कुल सही| इन पांच मुख्य व्याधियों अथवा विकारों को नष्ट करने से मानव चेतना का पवित्रीकरण हो जाता है, उसमें दिव्यता आ जाती है और सबसे बड़ी बात यह है, कि सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसके मस्तिष्क में स्थित हो जाता है|'

'ऐसा व्यक्ति सबके द्वारा पूजनीय 'अग्नि विद्या' में पारंगत हो जाता है, और यदि वह पूर्ण विधि-विधान के साथ सही ढंग से इस बीज मंत्र का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है, तो वह किसी भी इच्छित अवधि तक जीवित रह सकता है, सरल शब्दों में कहे तो भीष्म की तरह वह इच्छा मृत्यु की स्थिति प्राप्त कर लेता है|'

'तीसरा बीज है 'म', जो कि 'माधुर्य' को इंगित करता है| माधुर्य का तात्पर्य है - शरीर के अन्दर छिपा हुआ सत चित आनन्द, आत्मिक शान्ति| इस बीज को साध लेने से व्यक्ति के जीवन में, चाहे वह पारिवारिक हो अथवा सामाजिक, एक पूर्ण सामंजस्य प्राप्त हो जाता है, उसके जीवन के सभी बाधाएं एवं परेशानियां समाप्त हो जाती हैं| परिणाम स्वरुप उसे असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और वह हर चीज को एक रचनात्मक दृष्टी से देखता है| उसकी संतान उसे आदर प्रदान करती है, उसके सेवक और परिचित उसे श्रद्धा से देखते है एवं उसकी पत्नी उसे सम्मान देती है और आजीवन वफादार रहती है| बेशक वह स्वयं भी एक दृढ़ एवं पवित्र चरित्र का स्वामी बन जाता है|'

'चौथा बीज 'त' तत्वमसि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका अर्थ है वह दिव्य स्थिति, जो कि उच्चतम योगी भी प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं| तत्वमसि का अर्थ है - 'मैं तत्व हूं' या 'मैं ही वही हूं'| यह वास्तव में एके आध्यात्मिक चैतन्य स्थिति है, जब साधक पहली बार यह एहसास करता है, कि वह ही सर्वव्याप, सर्वकालीन एवं सर्वशक्तिशाली आत्मा है उसमें और परमात्मा (ब्रह्म) में लेश मात्र भी अन्तर नहीं है|

'इस बीज का अनुष्ठान सफलता पूर्वक करने पर व्यक्ति स्वतः ही अध्यात्म की उच्चतम स्थिति पर अवस्थित हो जाता है, यहां तक की आधिदैविक स्थितियां भी उसमे सामने स्पष्ट हो जाती हैं और वह इस बात से अनभिज्ञ नहीं रह जाता, कि वह पूर्ण 'ब्रह्ममय' हैं उसे जो उपलब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं, उसका तुम अनुमान भी नहीं कर सकते और न ही उन्हें शब्दों में ढालना संभव है| क्या अव्यक्त को व्यक्त किया जा सकता है? उसको तो केवल स्वयं ऐसी स्थिति प्राप्त कर अनुभव किया जा सकता है| बस तुम्हारे लिए इतना समझना काफी है, कि उससे असीमित शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं| अच्छा पांचवा बीज बोलना तो ज़रा|'

'पांचवा बीज है.. ॐ परम तत्वा... 'वा'..."

"हां, यह मानव शरीर में व्याप्त पांच प्रकार की वायु को दर्शाता है, वे हैं - प्राण, अपान, व्यान, सामान और उदान| इन पांचो पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर ही, व्यक्ति क्रिया योग में पारंगत हो पाता है| 'क्रिया' का अर्थ उस तकनीक से है, जिसे इस्तेमाल कर व्यक्ति इच्छित परिणाम प्राप्त कर लेता है|  क्रिया से मुद्राओं, बंधों एवं आसनों का अभ्यास शमित है, परन्तु यह एक लम्बी और दुस्साध्य प्रक्रिया है, जिसमें कोई ठोस परिणाम प्राप्त करने में कई वर्ष लग सकते हैं|"

'परन्तु इस गुरु मंत्र के उच्चारण से, जिसमें क्रिया योग का तत्व निहित है, व्यक्ति इस दिशा में महारत हासिल कर सकता है और अपनी इच्छानुसार कितने ही दिनों की समाधि ले सकता है|'

'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति 'लोकानुलोक गमन' कि सिद्धि प्राप्त कर लेता है और पलक झपकते ही ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में जा कर वापिस आ सकता है| दूसरी उपलब्धि जो उसे प्राप्त होती है, वह है - 'वर' अर्थात वह जो कुछ कहता है, वह निकट भविष्य में सत्य होता ही है| सरल शब्दों में वह किसी को वरदान या श्राप दे सकता है|'

'परन्तु यह तो एक खतरनाक स्थिति है है, क्या आपको ऐसा नहीं लगता? मेरा मतलब है, कि व्यक्ति किसी को भी अवर्णनीय नुकसान पहुंचा सकता है|'

'अरे बिल्कुल नहीं! क्योंकि इस स्थिति पर पहुंचने पर साधक दया, ममता और मानवीयता के उच्चतम सोपान पर पहुंच जाता है| ऐसे व्यक्ति बिल्कुल लापरवाह नहीं होते और स्वार्थ से कोसों दूर होते हैं| अतः दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की कल्पना वे स्वप्न में भी नहीं कर सकते| ठीक है न! अब मैं आगे बोलू?'

मैंने हां में सर हिलाया|