गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २

परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।
ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।


--योगी विश्वेश्रवानंद

रविवार, 29 नवंबर 2009

गुरुदेव का सुन्दर भजन


यह परम पूज्य सदगुरुदेव का बहुत ही अप्रतिम और सुन्दर भजन है.


शनिवार, 21 नवंबर 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ३


परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का व्यक्तित्व अपने-आप में अप्रतिम, अदभुतऔर अनिर्वचनीय रहा है। उनमें हिमालय सी ऊंचाई है, तो सागरवत गहराई भी; साधना के प्रति वे पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और सहृदय भी; वेद, कर्मकांड और शास्त्रों के प्रति उनका अगाध और विस्तृत ज्ञान है, तो मंत्रों और तंत्रों के बारे में पूर्णतः जानकारी भी। यह एक पहला ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें प्रत्येक प्रकार की साधनाएं समाहित हैं, उच्चकोटि के वैदिक और दैविक साधनाओं में जहां वे अग्रणी हैं, वहीं औघड शमशान और साबर साधनाओं में भी अपने-आप में अन्यतम हैं।

मैंने उन्हें हजारों-लाखों की भीड़ में प्रवचन देते हुए सूना है। उनका मानस अपने-आप में संतुलित है, किसी भी विषय पर नपे-तुले शब्दों में अजस्त्र, अबाध गति से बोलते रहते हैं। लीक सी एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटते। मूल विषय पर, विविध विषयों की गहराई उनके सूक्ष्म विवेचन और साधना सिद्धियों को समाहित करते हुए वे विषय को पूर्णता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, कि सामान्य मनुष्य भी सुनकर समझ लेता है और मंत्रमुग्ध बना रहता है।

मैं उनके संन्यास और गृहस्थ दोनों ही जीवन का साक्षी हूंहजारों संन्यासियों के भीड़ में भी उन्हें बोलते हुए सूना है उच्चस्तरीय विद्वत्तापूर्ण शुद्ध सुसंस्कृत में अजस्त्र, अबाध रूप से और गृहस्थ जीवन में भी उन्हें सरल हिन्दी में बोलते हुए सूना है - विषय को अत्याधिक सरल ढंग से समझाते हुए बीच-बीच में हास्य का पुट देते हुए मनोविनोद के साथ अपनी बात वे श्रोताओं के ह्रदय में पूर्णता के साथ उतार देते हैं।

मुझे उनका शिष्य बनने का सौभाग्य मिला है और मैं इसमें अपने-आप को गौरवान्वित अनुभव करता हूं। उनके साथ काफी समय तक मुझे रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मैंने उनके अथक परिश्रम को देखा है, प्रातः जल्दी चार बजे से रात्री को बारह बजे तक निरंतर कार्य करते हुए भी उनके शरीर में थकावट का चिन्ह ढूंढने पर भी अनुभव नहीं होता।

वे उतने ही तरोताजा और आनंदपूर्ण स्थिति में बने रहते हैं, उनसे बात करते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम प्रचण्ड ग्रीष्म की गर्मी से निकलकर वट वृक्ष की शीतल छाया में आ गए हों, उनकी बातचीत से मन को शान्ति मिलती है जैसे कि पुरवाई बह रही हो, और सारे शरीर को पुलक से भर गई हो।

जीवंत व्यक्तित्व
ऐसे ही अद्वितीय वेदों में वर्णित सिद्धाश्रम के संचालक स्वामी सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य योगिराज निखिलेश्वरानंद है, जिन पर सिद्धाश्रम का अधिकतर भार है। वे चाहे संन्यासी जीवन में हो और चाहे गृहस्थ जीवन में, रात्री को निरंतर नित्य सूक्ष्म शरीर से सिद्धाश्रम जाते हैं, वहां की संचालन व्यवस्था पर बराबर दृष्टि रखते हैं। यदि किसी साधक योगी या संन्यासी की कोई साधना विषयक समस्या होती है तो उसका समाधान करते हैं और उस दिव्य आश्रम को क्षण-क्षण में नविन रखते हुए गतिशील बनाए रखते हैं। वास्तव में ही आज सिद्धाश्रम का जो स्वरुप है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी निखिलेश्वरानंद जी को है, जिनके प्रयासों से ही वह आश्रम अपने-आप में जीवंत हो सका।

आयुर्वेद के क्षेत्र में भी उन्होनें उन प्राचीन जडी-बूटियों पौधों और वृक्षों को ढूंढ निकाला है जो कि अपने-आप में लुप्त हो गए थे। वैदिक और पौराणिक काल में उन वनस्पतियों का नाम विविध ग्रंथों में अलग है परन्तु आप के युग में वे नाम प्रचलित नहीं हैं। अधिकांशजडी-बूटियां काल के प्रवाह में लुप्त हो गई थी।

अपने फार्म में उसी प्रकार का वातावरण बनते हुए उन जडी-बूटियों को पुनः लगाने और विकसित करने का प्रयास किया। मील से भी ज्यादा लम्बा चौडा ऐसा फार्म आज विश्व का अनूठा स्थल है, जहां पर ऐसी दुर्लभ जडी-बूटियों को सफलता के साथ उगाने में सफलता प्राप्त की है, जिनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोग दूर किए जा सकते हैं। उनके गुण दोषों का विवेचन, उनकी सेवन विधि, उनका प्रयोग और उनसे सम्बंधित जीतनी सूक्ष्म जानकारी उनको है वह अपने आप में अन्यतम हैं।

पारद के सोलह संस्कार हे नहीं, अपितु चौवन संस्कार द्वारा उन्होनें सिद्ध कर दिया कि इस क्षेत्र में उन्हें जो ज्ञान है वह अपने-आप में अन्यतम है। एक धातु से दुसरे धातु में रूपांतरित करने की विधियां उन्होनें खोज निकाली और सफलतापूर्वक अपार जन समूह के सामने ऐसा करके उन्होनें दिखा दिया कि रसायन क्षेत्र में हम आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। कई शिष्यों नें उनके सान्निध्य में रसायन ज्ञान प्राप्त किया है और ताम्बे स्व स्वर्ण बनाकर इस विद्या को महत्ता और गौरव प्रदान किया है।

सिद्धाश्रम के प्राण

सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ और अन्यतम स्थान है। जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते हैं। प्रयेक संन्यासी अपने मन में यही आकांक्षा पाले रहता कि जीवन में एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाय। यह शाश्वत पवित्र और दिव्य स्थल, मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टी से देखा जाना सम्भव नहीं। जिनके ज्ञान चक्षु जागृत हैं, जिनके ह्रदय में सहस्रार का अमृत धारण है, वही ऐसे सिद्ध स्थल को देख सकता है।

ऋग्वेद से भी प्राचीन यह स्थल अपने-आप में महिमामण्डितहै। विश्व में कई बार सृष्टि का निर्माण हुआ और कई बार प्रलय की स्थिति बनी, पर सिद्धाश्रम अपने-आप में अविचल स्थिर रहा। उस पर न काल का कोई प्रभाव पड़ता है न वातावरण अथवा जलवायु का। वह इन सबसे परे आगम्यऔर अद्वितीय है। ऐसे स्थान पर जो योगी पहुंच जाता है, वह अपने आप में अन्यतम और अद्वितीय बन जाता है।

महाभारत कालीन भीष्म, कृपाचार्य, युधिष्ठिर, भगवान् कृष्ण, शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि योगी आज भी वहां सशरीर विचरण करते देखे जा सकते हैं, अन्यतम योगियों में स्वामी सच्चिदानन्द जी, महर्षि भृगु आदि हैं, जिनका नाम स्मरण ही पुरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनने के लिए पर्याप्त है।

यह मीलों लंबा फैला हुआ सिद्धि क्षेत्र अपने-आप में अद्वितीय है। जहा न रात होती है और न दिन। योगियों के शरीर से निकलने वाले प्रकाश से यह प्रतिक्षण आलोकित रहता है। गोधूली के समय जैसा चित्तार्शक दृश्य और प्रकाश व्याप्त होता है ऐसा प्रकाश वहां बारहों महीने रहता है। उस धरती पर सर्दी गर्मी आदि का कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता। ऐसे सिद्धाश्रम पर रहने वाले योगी कालजयी होते हैं, उन पर ज़रा मृत्यु आदि का प्रभाव व्याप्त नहीं होता।

यह उनके ही प्रबल पुरुषार्थ का फल है कि सिद्धाश्रम अपने-आप में जीवन्त स्थल है, जहां मस्ती आनन्द, उल्लास, उमंग और हलचल है गति है जहां चेतना और आज सिद्धाश्रम को देखने पर ऐसा लगता हैं कि यह नन्दन कानन से भी ज्यादा सुखकर और आनन्ददायक है।

एक मृतप्राय सा सिद्धाश्रम उनके आने से ही आनन्दमय हो गया और सही अर्थों में सिद्धाश्रम बन गया। सिद्धाश्रम में उच्चकोटि के योगी वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, कणाद, आद्य शंकराचार्य, कृष्ण आदि सभी विद्यमान हैं। उच्चकोटि के योगी पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा करने के बाद यह बाहरी नश्वर शरीर छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए सिद्धाश्रम चले जाते हैं। सिद्धाश्रम के श्रेष्ठ योगीजन आंखें बिच्चा बैठे रहते हैं, कि कब निखिलेश्वरानंद जी आएं और उनकी चरण धूलि मिले, ऋषि-मुनि अपनी साधनाएं बीच में ही रोककर उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं, जहां से निखिलेश्वरानन्द जी गुजरने वाले होते हैं। प्रकृति भी अपने आप में नृत्यमय हो जाती है, क्योंकि सिद्धाश्रम जिस प्राणश्चेतना से गतिशील है, उसी प्राणश्चेतना के आधार हैं, निखिलेश्वरानंद जी।

सिद्धाश्रम, जहां उच्चकोटि की अप्सराएं निरंतर अपने नृत्य से, अपने गायन से, अपने संगीत से पुरे सिद्धाश्रम को गुंजरित बनाएं रखती हैं। एक अदभुद वातावरण है वहां का, ऐसा लगता है, जैसे स्वर्ग भी इसके सामने तुच्छ है और वास्तव में ही स्वर्ग और इंद्र लोक अत्यधिक तुच्छ हैं इस प्रकार के सिद्धाश्रम के सामने, जहां सिद्धयोगा झील गतिशील है, जिसमे स्नान करने से ही समस्त रोग मिट जाते हैं, जिसके किनारे बैठने से ही अपने-आप में सम्पूर्ण पवित्रता का बोध हो जाता है, उसमें अवगाहन करने से ही पूर्ण शीतलता और शान्ति महसूस होने लगती है, इसमें स्नान करने से ही इस देह को, जिस देह में हम गतिशील हैं, तुरंत भान हो जाता है, कि हम पांच हजार साल पहले कौन थे? या तो इस प्रकार के उच्चकोटि के योगियों के पास बैठने से उनके द्वारा ज्ञात हो सकता है या फिर सिद्धयोगा झील में स्नान करने से स्मरण हो जाता हैं।

मैं उनके इस जीवन का साक्षी रहां हूं, और आत्री, कणाद, गौतम, वशिष्ठ सदृश उच्चकोटि के योगी भी निखिलेश्वरानंद जी के व्यक्तित्व को देखकर आल्हादित और रोमांचित हो उठाते हैं। उनके जीवन का स्वप्न ही यह रहता है, कि निखिलेश्वरानंद जी के साथ रहे, उनसे बात-चीत करें और उनकी बात-चीत के प्रत्येक अंश में कोई न कोई साधना निहित रहती हैं। वास्तव में देखा जाए, तो वे योगियों में परम श्रेष्ठ, अदभुद, तेजस्वी एवं अद्वितीयता लिए हुए महामानव हैं।

जो योगीजन उनके साथ सिद्धाश्रम गए हैं, उन्होनें उनके व्यक्तित्व को पहिचाना है। उन्होनें देखा है, कि हजारों साल कि आयु प्राप्त योगी भी, जब 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' सिद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं, तो अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं, और उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए एक रेलम-पेल सी मच जाती है, चाहे साधक-साधिकाएं हों, चाहे योगी हों, चाहे अप्सराएं हों, सभी में एक ललक, एक ही पुलक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है, कि 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' के चरणों को स्पर्श कर लिया जाए, जो गंगा की तरह पवित्र हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में वन्दनीय हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में ही अहोभाग्य हैं, और वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं, जहां-जहां उनके चरण-चिन्ह पड़ते हैं, वहां की धूलि उठाकर उच्चकोटि के संन्यासी, योगी ओने ललाट पर लगाते हैं, साधिकाएं उस माटी को चंदन की तरह अपने शरीर मर लगाती हैं और अपने आप को धन्य-धन्य अनुभव करती हैं।

वे किसी को भी अपने साथ सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं, चाहे वह किसी भे जाती, वर्ग, भेद, वर्ण, लिंग का स्त्री, पुरूष हो, इसके लिए सिद्धाश्रम से उन्हें एक तरंग प्राप्त होती है, एक आज्ञा प्राप्त होती है, फिर स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी उस व्यक्तित्व को चाहे उसने साधना की हो या न की हो, अपने साथ ले जाते हैं, परन्तु उनके साथ वही जा सकता हैं, जो भाव से समर्पित शिष्य हो।

-योगी विश्वेश्रवानंद

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ४

सिद्धाश्रम के संचालक, 'परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी है', वे तो अपने-आप में अन्यतम,अद्वितीय विभूति हैं, समस्त देवताओं, के पुंञ्ज से एकत्र होकर के उनका निर्माण हुआ है, सब देवताओं ने अपना-अपना अंश देकर के ऐसे अदभुद व्यक्तित्व का विकास किया है, जिन्हें सच्चिदानन्द जी कहते हैं।

परमहंस, प्रातः स्मरणीय 'पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी' के आशीर्वाद तले ऐसा सिद्धाश्रम गतिशील है, जहां की माटी कुंकुम की तरह है, जिसे ललाट पर लगाने की इच्छा की जाती है, जहां पर महाभारत काल और त्रेता युग के योगी व् सन्यासी निरंतर विचरण करते हैं, गतिशील हैं।

सच्चिदानन्द जी ने हजारों साल के अपने जीवन में केवल तीन ही शिष्य बनाएं हैं, अत्यन्त कठोर उनकी क्रिया है, जो उन क्रियाओं पर खरा उतरता है, उसे वे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। पूज्य गुरुदेव ऐसे ही अदभुद व्यक्तित्व हैं, जिन्होनें पूर्णता के साथ 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' से दीक्षा प्राप्त की हैं, और पूरा सिद्धाश्रम ही नहीं वरन पूरा ब्रह्माण्ड इस बात के लिए गौरवान्वित है, कि वे 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' के शिष्य है।

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका विचरण स्थल है
यही नहीं अपितु कई संन्यासियों ने उन्हें इंद्र लोक, पाताल लोक, सूर्य लोक, चन्द्रमा तथा अन्य लोकों में विचरण करते हुए देखा है। शुक्र ग्रह में कई योगी उनके साथ गाएं हैं, क्योंकि ये सूक्ष्म शरीर को इतना उंचा उठा लेते है, कि ये ब्रह्माण्ड का एक भाग बन जाते हैं, और उस भाग से वे समस्त ग्रहों में विचरण करते रहते हैं, उनका बाहरी शरीर यहीं पडा रहता हैं एक सामान्य शरीर की तरह, मगर आभ्यातारिक शरीर समस्त ग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र गृह में उनको देखने के लिए लोग मचल पड़ते हैं, दौड़ते हैं, और उनकी एक झलक देख कर वे अपने-आप को परम सौभाग्यशाली समझते हैं।

मैंने उनके साथ उन लोकों की भी यात्रा की हैं, और यह देखा है कि वे जितने मृत्यु लोक में प्रिय हैं, जितने सिद्धाश्रम में प्रिय हैं, उससे भी ज्यादा शुक्र गृह और अन्य लोकों में प्रिय हैं। सभी लोकों में निरंतर प्रतीक्षा होती रहती हैं। जहां भी मैंने उनको देखा हैं, ऐसा लगता हैं कि यह पुरे ब्रह्माण्ड में बिखरा हुआ व्यक्तित्व है। कोई एक गृह या एक स्थान ही उनको महत्त्व नहीं देता, अपितु पुरे ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह उनको महत्त्व देता है। वे अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण कर सकते हैं और विराट स्वरुप भी धारण कर सकते हैं। वे एक ही क्षण में एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। वे हिमालय की उंची-उंची चोटियों पर उसी पारकर विचरण करते हैं, जैसे मैदान में चल रहे हों, तथा गहन और गहन गुफाओं में मैंने उनको निरंतर साधना करते हुए अनुभव किया हैं।

साबर साधनाओं के अन्यतम योगी
साबर साधनाएं जीवन की सरल, सहज और मत्वपूर्ण साधना है। ऐसी साधनाएं हैं जिनमे जटिल विधि विधान नहीं है जिनमे लम्बा-चौड़ा विस्तार नहीं है, जिनमे सूक्ष्म-श्लोक संस्र्कुत नहीं अपितु सरल भाषा है। संसार की आठ क्रियाएं ऐसी है जो कई हजार वर्ष पहले पूर्व विकास पर थी परन्तु आज ये विद्याएं प्रायः लुप्त हैं और शायद ही उनके बारे में योगियों को जानकारी होगी। सिद्धाश्रम में इनके बारे में निरंतर शोध हो रही हैं और उन चिन्तनों तथा साधना विधियों को ढूं ढूं निकाला गया है।

मैंने देखा कि इस व्यक्तित्व में असीम प्राण चेतना है, सत्य और वास्तविकता से झुठलाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। प्रहार कर इसकी गति को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता बहलाकर इसे चुप नहीं किया जा सकता। इसके मन में भारत वर्ष के प्रति आसीम त्याग और आगाध श्रद्धा है। यह भारतवर्ष को पुनः उस स्थिति में ले जाना चाहता है जो कि इसका वास्तविक स्वरुप है। वह ऋषि मुनियों के मन्त्रों साधनाओं और सिद्धियों को सही तरीके से पुनः स्थापित करना चाहता है। ज्योतिष। और आयुर्वेद के खोये हुए स्थान को पुनः दिलाना चाहता है।

उनको देखते ही ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राचीन समय का आर्य अपनी पूर्ण शारीरिक क्षमता और ज्ञान गरिमा को लेकर साकार है। शरीर लम्बा-चौड़ा, आकर्षक और चुम्बकीय नेत्र, वाणी में गंभीरता और गरिमा, दृढ़तायुक्त सिंहवत चाल और ह्रदय में पौरुष यह सब मिलाकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में आर्य कहा है, जो हमारे सही अर्थों में पूर्वज है।

यह व्यक्तित्व अंत्यंत ही सरल, सौम्य और सहज है, किसी प्रकार का आडम्बर या प्रदर्शन इनके जीवन में नहीं हैं, आतंरिक और बाह्य जीवन में किसी प्रकार का कोई लुकाव छिपाव नहीं हैं, जो कुछ जीवन में है वही यथार्थ में है, और यही इसकी विशेषता है।

कभी-कभी तो इनके इस सरल व्यक्तित्व को देखकर खीज होती है। इतने उच्चकोटि का योगी, इतना सरल सहज और सामान्य जीवन व्यतीत करता है कि इन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि यह साधनों के क्षेत्र में अप्रतिम है। सिद्धियों का हजारवा हिस्सा भी यदि किसी के पास होता है तो वह अहम् के मद में चूर रहता धरती पर पांव ही नहीं रहता।

ज्योतिर्विज्ञान के पुरोधा
ज्योतिष के क्षेत्र में स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने जो काम किया है, वह पूर्ण साधनात्मक संस्था भी नहीं कर सकती। उन्होनें अकेले जितना और जो कुछ कार्य किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। ज्योतिष की दृष्टि से जन्म कुण्डली में दुसरा भाव द्रव्य से सम्बंधित है। और स्वामी जी ने ज्योतिष के नविन सूत्रों की रचना की। ज्योतिष के उन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज के युग के अनुरूप है, जो वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था में सही है उन छोटे-छोटे ग्रंथों के माध्यम से उन्होनें पुरे देश में एक चेतना पैदा की। ज्योतिष के प्रति उनके मन में चाह उत्पन्न की, उन्हें विश्वास दिलाया, ज्योतिष के क्षेत्र में नविन कार्य हुए, बिखरे हुए ज्योतिषियों को एक मंच दिया, उन्हें यह समझाया कि यह विज्ञान तभी सफल हो ससकता है जब इसे पूर्ण समर्पित भाव से किया जाए।

आयुर्वेद का आधारभूत व्यक्तित्व
आयुर्वेद के क्षेत्र में योगिराज पूज्य गुरुदेव जी का योगदान बेजोड़ है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखे, तो ज्योतिष और आयुर्वेद दो ही विद्याएं भारतवर्ष के पास थी जिसमें वह पुरे विश्व का अग्रणी था। आज भी विज्ञान के क्षेत्र में विश्व भले ही बहुत आगे बढ़ गया हो, उन्होनें नई से नई टेक्नोलॉजी प्राप्त कर ली है परन्तु इन दोनों क्षेत्रों में आज भी पूरा विश्व भारतवर्ष की और ही देखता है।

सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ तो लगभग लुप्त हो गए थे, जो कुछ ग्रन्थ बच गए थे, उनमें जिन जड़ी-बूटियों का विवरण का वर्णन मिलता था वे आज के युग में ज्ञात नहीं थी। उस समय पर वनौषधियों को संस्कृत नाम से पुकारते थे परन्तु आज उन शब्दों से परिचय ही नहीं है, इसीलिए उन वनौषधियों की न पहिचान हो रही थी और न उसकी सही अर्थों में उपयोग ही हो रहा था।

यह अपने आप में अंधकारपूर्ण स्थिति थी। ऐसी स्थिति में किसी भी वनस्पति को किसी भी नाम की सज्ञा दे दी जाती थी। उदाहरण के लिए तेलियाकंद भारतवर्ष की एक अदभुदएवं आश्चर्यजनक गुणों से युक्त दिव्या औषधि है। पर पीछ वैध सम्मलेन में लगभग १८ व्यक्तोयों ने १८ प्रकार के विभिन्न पौधे लाकर उस सम्मलेन में रखे और सभी ने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया किउसने जिस पौधे की खोज की है वह प्रामाणिक और असली तेलियाकंद है जिसका विवरण वर्णन प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है। जबकि वास्तविकता यह थी, कि उसमें से एक भी पौधा तेलियाकंद नहीं था।

ऐसी स्थिति में निखिलेश्वरानंद जी ने उन प्राचीन जड़ी-बूटियों को खोज निकाला, जिसका विवरण वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है उनके चित्र गुन धर्म पहचान आदि की विस्तृत व्याख्या कर समझाया और उन जड़ी-बूटियों से आयुर्वेद जगत को परिचित कराया।

स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का आधिकांश समय हिमांचल में व्यतीत हुआ है और वे हिमालय के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। प्रत्येक स्थान, उसकी महत्ता उसकी भौगोलिक और पौराणिक स्थिति का ज्ञान तो स्वामी जी को है ही, साथ ही साथ वहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों को भी उन्हें विस्तृत ज्ञान है।

आप ने एक शिष्य के सहयोग से नैनीताल और रानीखेत के बीच एक बहुत बड़ा फार्म तैयार करवाया है जो लगभग एक मील चौड़ा और ढाई मील लंबा है। इस पुरे फार्म में उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों को उगाने का प्रयास किया है जो धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। हिमालय के सुदूर अंचल से ऐसे पौधे लाकर वहां स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उन्होनें एक छोटी सी पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होनें उन ६४ दुर्लभ जड़ी-बूटियों का परिचय दिया है जिनका धीरे धीरे लोप हो रहा है। यदि समय रहते उनका सवर्द्वन नहीं हो सका तो निश्चय ही वे पौधे समाप्त हो जायेंगे।

इतना व्यस्त व्यक्तित्व होते हुए भी ऐसे पौधों के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनाता है। उन्होनें कुछ पौधों को हिमालय की बहुत ही ऊंचाई से प्राप्त कर बड़ी कठिनाई से उस फार्म में आरोपित किया है और उनका पालन पोषण उसी प्रकार से किया जैसे कि मां अपने शिशु का करती है।

उन्होनें कहां प्रकृति हामारी शत्रु या प्रतिस्पर्धी नहीं अपितु सहायक है। उसके साथ द्वंद्व करके सफलता नहीं पाई जा सकती है, अपितु उसके साथ समन्वय करके ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसी स्थिति को और सिद्धांत को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने जो साधनाएं स्पष्ट की, उनके माध्यम से योगियों नें आसानी से प्रकृति पर विजय प्राप्त की।
- स्वामी विश्वेश्रवानंद

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ५

हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें - १. परकाया सिद्धि २. आकाश गमन सिद्धि ३. जल गमन प्रक्रिया सिद्धि; ४ हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है| ५. कादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता| ६. काली सिद्धि - जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है, देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों| ७. संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है| ८. इच्छा मृत्यु साधना - जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है| ९. काया कल्प साधना - जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर अपने कार्यों में सफलता पा सकता है| १०. लोक गमन सिद्धि -जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक, सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे लोक तक जा सकता है| ११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है| १२. सूर्य विज्ञान - जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|


अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना, इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है| शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है| यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया|

परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|

उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है| उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|

मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा| जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है और यही गुण उनकी महानता का परिचय है|

सूर्य सिद्धांत के आचार्य
पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है, क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|

शिष्य ज्ञान
मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे| गुरुदेव हम सभी कों लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले - 'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|

गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए| अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|

तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष
सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना| प्रारम्भ में तो तंत्र भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया था|

तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ| जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है| मंत्र का तात्पर्य है प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं|

तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|

उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम  और सरल है| स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की|

त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र में अंतिम नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय रहे है|
- योगी विश्वेश्रवानंद

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

महालक्ष्मी आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसी दिन सेवत, हर विष्णु धाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

उमा, रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता ।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

दुर्गा रूप निरंजनि, सुख संपत्ति दाता ।
जो कोई तुमको ध्याता, रिधि सिधि धन पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता ।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भव निधि की त्राता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

जिस घर तुम रहती तहं, सदगुण आता ।
सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान पान का वैभव सब तुमसे आता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

शुभ गुण मन्दिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहिं पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...

महालक्ष्मी जी की आरती, जो कोई नर गाता ।
आ आनन्द समाता, पाप उतर जाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...


- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अक्टूबर २००८

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

शंकराचार्य विचारित - लक्ष्योत्तमा साधना

आदिगुरू शंकराचार्य के सम्बन्ध में हजारों कथाएं हैं उनमें से कुछ कथाएं उनके शिष्यों, भक्तों के अनुभव के आधार पर रचित की गई। इन सब कथाओं के सार में एक बात पूर्ण रूप से स्पष्ट होती है कि शंकराचार्य ने अपनी जीवन यात्रा में योगियों, यतियों और सन्यासियों से ज्ञान ग्रहण किया। ओंकारेश्वर में अपने गुरु गोविन्द्पादाचार्यसे दीक्षा प्राप्त कर उनके आर्शीवाद से आगे की यात्रा को निकल पड़े। धन के नाम भिक्षा का खाली झोला सा लेकिन दिमाग साधनाओं, मंत्र-तंत्र से भरपूर। उन्होनें अपने जीवन यात्रा में एक गरीब ब्राह्मणी के घर साधना प्रयोग कर धन प्रदान (जिसे कालांतर में धन वर्षा कहा गया) किया और आगे की यात्रा में निकल पड़े थे।

इसके मूल में अनेक रहस्य उदघाटित होते होते है, संभवतः उन सबका विवेचन करना तो सम्भव नहीं हैं, परन्तु मूल विषय है, कि क्या स्तुति के माध्यम से धनवर्षा सम्भव है या शंकराचार्य ने किस मार्ग को अपनाया, कि वे लक्ष्मी को आबद्ध कर इच्छित स्थान पर धनवर्षा कराने में सक्षम हो सके?

इस प्रश्न का उत्तर यहीं है, कि मात्र स्तुति के माध्यम से लक्ष्मी आबद्ध करना सम्भव नहीं है, यदि स्तुति के माध्यम से लक्ष्मी आबद्ध की जा सकती है, तो प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति के घर वह व्यक्ति, जो नित्य अपने व्यवसाय स्थल पर जाकर लक्ष्मी की स्तुति करता है, उनके घरों में अब तक तो धन का ढेर लग जाना चाहिए था।

... परन्तु ऐसा प्रायः सम्भव नहीं होता, कोई भी व्यक्ति, जो स्तुति करता है, उसके घर धन की वर्षा नहीं होती, उनके घरों में धन का ढेर नहीं लगता; वे अपने पुरे जीवन में लक्ष्मी की स्तुति तो करते है, फिर भी कर्जदार ही बने रहते है, धन का उन्हें कोई अजस्त्र स्रोत नहीं मिलता, अतः स्पष्टतः शंकराचार्य ने अवश्य ही कोई ऐसा प्रयोग संपन्न किया होगा, जिसके माध्यम से वे लक्ष्मी को आबद्ध कर सकने में समर्थ हुए।

'तंत्र' एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसमें अनेक विद्याएं, अनेक ऐसे प्रयोग हैं, जिनका ज्ञान यदि व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो उसके माध्यम से वह किसी भी देवी-देवता को आबद्ध करने में समर्थ हो सकता है।

शंकराचार्य तो तंत्र के उच्चकोटि के ज्ञाता थे, उन्होनें ही बौद्ध धर्म को सम्पूर्ण भारतवर्ष से विस्थापित कर पुनः हिंदुत्व की स्थापना कि। तंत्र ही वह सबल माध्यम था, जिसके द्वारा शंकराचार्य कम उम्र में ही अपने लक्ष्य की पूर्णता प्राप्त सके। वास्तव में देखा जाय, तो शंकराचार्य का जीवन अनेक रहस्यों से ओत-प्रोत है, जिसकी विवेचना करना, अनेक गोपनीय रहस्यों को उजागर करना ही होगा।

शंकराचार्य के जीवन का गोपनीय तत्थ्य ही है, कि संन्यासी होते हुए भी, संन्यास धर्म का पालन करते हुए भी किसी के समक्ष याचना नहीं की, वरन स्वयं तो समर्थ हुए ही, साथ ही सब कुछ प्रदान करने में सक्षम भी हुए।

जब शंकराचार्य ने देखा, कि समाज कि व्यवस्था में असंतुलन आ जाने के कारण उच्चकोटि की आध्यात्मिक विभूतियाँ भी भीक्षा मांग कर जीवन मांग कर जीवन यापन करने पर विश्वास करने लगी है एवं साधनों का महत्त्व न्यूनतर होता जा रहा है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कर्मक्षेत्र एवं साधनापक्ष को छोड़कर भिक्षावृत्ति में विश्वास करने लगे हैं, तब शंकराचार्य को इन सभी परिस्थितियों से बहुत ग्लानी हुई। वे चाहते, कि भारतवर्ष का कोई भी व्यक्ति भूखा, गरीब लाचार, बीमार तथा ज्ञान के अभाव में न जिये; जिये तो पौरूषता का जीवन जिये, श्रेष्ठता का जीवन जिये।

... और तब उन्होनें अथक परिश्रम एवं खोजबीन के पश्चात अत्यन्त दुर्लभ अवं गोपनीय प्रयोगों का अन्वेषण किया। इन प्रयोगों को स्वयं सिद्ध कर दिखा दिया, कि एक सन्यासी भी सभी दृष्टियों से पूर्णता युक्त जीवन जी सकता है, एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी साधना के माध्यम से आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त कर सकता है ... और यह सिद्ध किया एक ब्राह्मणी के घर में इस प्रयोग के माध्यम से धन वर्षा करवा कर ... जिससे उस समय के लोग तो आचम्भित हुए बिना नहीं रह सके।

व्यक्ति के जीवन में इतनी आधिक विषमताएं उत्पन्न हो चुकी है, कि उसे समाज में प्रतिष्ठित व् सम्मानित होने कल लिए होने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है, बिना धन के तो वह समाज में अपनी प्रतिष्ठा व् सम्मान स्थापित कर ही नहीं सकता।

आज छोटी-छोटी वस्तु की भी यदि आवश्यकता होती है, तो बिना धन के हम उसे खरीद नहीं सकते, ललचायी नजरों से दूसरों की और ताकेंगे या किसी अन्य माध्यम से उसे प्राप्त करने का प्रयास करेंगे, क्योंकि वस्तु की आवश्यकता हमें यह सब करने पर मजबूर करेगी, परन्तु यह नैतिकता के और समाज के नियमों के विपरीत है।

ऐसी दशा में यह आवश्यक हो गया है, कि हम साधना के महत्त्व को समझें। हम सभी अपने जीवन में साधनाओं को स्थान दे और अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति का हेतु साधनाओं को बनाएं।

शंकराचार्य कृत विविध प्रयोगों में एक प्रयोग 'लक्ष्योत्तमा प्रयोग' भी है, जो धन वर्षा कराने में सक्षम है। यह अपने आपमें अद्वितीय प्रयोग है। यह साधना अत्यन्त सरल, सटीक तथा शीघ्र प्रभाव देने वाली कही गई है। यदि यह प्रयोग पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास एवं पूर्ण प्रामाणिक सामग्री तथा विधि-विधान के साथ किया जाय, तो अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है।

यह प्रयोग तब अब तक गोपनीय ही रहा है, किंतु पत्रिका के उद्देश्य को ध्यान में रखकर साधकों के समक्ष उच्चकोटि की इस साधना को पत्रिका के इन पन्नों पर जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं -

साधना विधान
  • इस साधना में आवश्यक है सामग्री है - 'लक्ष्म्योत्तमा यंत्र' तथा कमलगट्टे की माला ।
  • यह रात्रिकालीन साधना है और २१ दिनों तक नियमित रूप से की जाती है। साधना काल में एक समय सात्विक भोजन करें व् ब्रह्मचर्य का पालन करें।
  • इस साधना को आप पूर्णिमा से या किसी भी रविवार से प्रारम्भ कर सकते हें।
  • साधक सफेद रंग की धोती पहने तथा स्नान आदि कर रात्री के १० बजे के बाद साधना प्रारम्भ करें।
  • लकडी के बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछा लें उस पर एक ताम्र पात्र में केसर से 'श्री' बीज अंकित कर, उस पर यंत्र स्थापित कर यंत्र का पूजन करें।
  • बाजोट पर दाहिनी ओर चावलों की ढेरी बनाकर कमलगट्टे की माला को स्थापित कर पुष्प, कुंकुम तथा अक्षत से संक्षिप्त पूजन करें।
  • घी का दीपक तथा धुप लगाकर उनका अक्षत तथा कुंकुम से पूजन करें।
  • देवी का ध्यान करें -

अरुणकमलसंस्था तद्रजः पुंजवर्णा,
करकमल ध्रुतेष्टामितिमाम्बुजाता ।
मणिमुकुट विचित्रालंकृता कल्पजालै;
सकल भुवंमाता सततं श्रीः श्रीयै नमः ॥

  • कमलगट्टे की माला से नित्य २१ माला निम्न मंत्र का जप करें -

ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ॐ नमः

  • साधना समाप्त होने पर अगले दिन यंत्र माला को बाजोट पर बिछे लाल रंग के कपड़े में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें।

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका, सितम्बर 2009

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

जब गुरुदेव से प्राप्त हुई - पराम्बा दीक्षा

जिस प्रकार एक बालक मां के गोद में होता है और मां उसके सर पर हाथ फेरती हुई निर्भयता प्रदान करती है उसी प्रकार सदगुरुदेव अपने शिष्य के मस्तक ललाट पर स्पर्श कर उसे शक्ति से युक्त करते है। यही तो शक्तिपात की क्रिया है। जिसमे शक्ति का एक अविरल प्रवाह गुरु से शिष्य को प्राप्त होता है।

शाक्त-उपासकों-साधकों की यह इच्छा रहती है कि उन्हें भगवती जगदम्बा पराम्बा आद्या शक्ति के दर्शन हो, यह सम्भव है केवल गुरु कृपा और गुरु शक्तिपात से। मेरा सौभाग्य है कि सदगुरुदेव से मुझे 'पराम्बा शक्तिपात दीक्षा' प्राप्त हुई और मैं माँ भगवती की साधना निरंतर कर सका।

देवालयों की मधुर घंटा ध्वनि ! कुमारिकाओं का झुंड देव पूजन कर वापिस चल पडा था। बगल में माँ गंगा की निर्मल धारा अविराम गतिशील थी, वहीं मेरी आत्मा के छवि, जिसकी प्रतीति गुरु चरणों से हो सकी थी। प्रथम बार मैंने अनुभव किया, एक गंगा मेरे भीतर भी सतत प्रवाहमान है। इसी निर्मल आकाश का प्रतिबिम्ब लिए हुए और उस पुण्यसलिला गंगा की एक-एक हिलोरे मन में उतर कर आसुओं के रूप में तरंगित हो उठी।

बचपन से मातृहीन था, तब भी किसी की माँ-माँ की पुकार मात्र से मेरी आखें सजल हो उठातीं। किसीप्रकार धरा पर लौटते हुए ह्रदय की ज्वाला शांत करने का यत्न करता। पिताअवश्य ही ऋषितुल्य व्यक्ति थे, उनके प्रगाढ़ धर्मानुराग से ही मेरे भीतर सदभावना के बीजों का अंकुरण हुआ था। लेकिन 'मां-मां' पुकार से शान्ति बोध करने पर भी 'मां' ही प्राणी मात्र का सर्वस्व है - इस सत्य का बोध न हुआ। सदा ही यह आकांक्षा बनी रहती, कि एक सजीव मूर्तिमयी मां का दर्शन लाभ प्राप्त करून, जिसकी स्निग्ध , ज्योतिर्मय दृष्टी से यह दग्ध ह्रदय ही बदल जाय।

मातृ-भाव की इस चरम क्षुधा को शांत करने का कोई उपाय न था। यत्र-तत्र परिव्राजक के समान भ्रमण करता फिरता रहा, परन्तु अपने प्राणों के लिए जिस वास्तु को व्याकुल भाव से खोज रहा था, उसे कहीं न पाने से, ज़रा भी तृप्ति नहीं होती थी, संसार की किसी भी योग्य वास्तु में मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं था, ह्रदय में जो व्याकुलता, वेदना घनीभूत होकर मुझे पीड़ित कर रही थी, उसके प्रभाव से संसार का कोई भी रमणीय दृश्य चित्त में परिवर्तन नहीं कर सका था। घंटों मौन भाव से किनारे बैठा संन्यासी वेश धारियों को निहारा करता था, कि ... शायद कहीं कोई अवलंबन मिल जाय।

जीवन के इस वर्तुल में वह क्षण भी आ पहुंचा, जब स्वयं काल ने ही मुझे धकेल कर उस पथ पर खडा कर दिया, जो गुरु का पथ है, शाश्वत पथ। निश्चित रूप से उस नित्य लीला विहारिणी की इच्छा के बिना, उसकी कृपा गुजरे बिना, कोई शाश्वत पथ पर जा ही नहीं सकता। यह न तो मेरे पुण्य कर्मों का सफल लगा और न ही मेरा कोई प्रकृति प्रदत्त अधिकार, बल्कि प्रकृति स्वरूपा मां भगवती ही कोई कृपा-कटाक्ष, उनकी अनुकम्पा मुझे गुरुदेव के पास ले चला, ... बिना शक्तिमय हुए भला कौन गुरु साहचर्य में जा सका है?

... और इस प्रकार जगज्जननी काल के किसी विशेष क्षण पर आरूढ़ होकर, मेरी उंगली पकड़ कर उस चैतन्य माध्यम तक ले आयीं, जो परम पूज्य गुरुदेव का पवित्र विग्रह है। मेरा परिचय मेरे प्राणाधार गुरु से करवा आयी। परन्तु जो कटाक्ष, जो संकेत आज गूढ़ रहस्यों को उदघाटित करते प्रतीत हो रहे है, तब क्या वे समझ में आ सके थे? पूर्णतया अनजान था मैं ... एक अबोध शिशु की ही भांति, जिसे किसी हलचल व् उत्सव का बोध तो है, किंतु वह उसका कारण अर्थ नहीं समझता। उस समय तो सब कुछ एक कौतुक ही लगा था।

शुष्क देह में प्राणों का संचार
गुरु दीक्षा प्रदान करने के उपरान्त गुरुदेव समझा रहे थे - 'शक्ति मंत्र तुम्हारा इष्ट है। जगज्जननी महाशक्ति की मातृभाव से उपासना करके ही तुम्हें साधना क्षेत्र में अग्रसर होना होगा। अभी से उसके लिए प्रस्तुत हो जाओ, स्वयं संतान होकर जगज्जननी को प्रत्यक्ष अनुभव करने की अभिलाषा करो तथा समग्र रमणी मूर्ति में ही उस परम मातृशक्ति को देखने का अभ्यास करो'। इस प्रकार मेरी अन्तः प्रकृति को अपने विशुध्व दिव्य चक्षुओं के माध्यम से गुरुदेव ने पल भर में ही भांप लिया था।

मन में विचित्र आन्दोलन उपस्थित हुआ। मंत्र साधना, अनुष्ठान आदि के गूढ़ विषयों पर तो कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया था। अत्यन्त असहाय और कातर नेत्रों से सर उठा कर गुरुदेव की और निहारने लगा। कुछ क्षणों में मेरी आग्रहपूर्ण प्रार्थना का स्नेहिल प्रत्युत्तर मिला। स्मित हास्य के साथ गुरुदेव कह रहे थे- 'तुम्हारी अन्तः वेदना मुझसे छिपी नहीं है, आज ही तुम्हें विशेष शक्तिपात युक्त दीक्षा प्रदान करूंगा। योग कि कठिन क्रियाओं में जीवन खपाने की फिर तुम्हें कोई आवश्यकता नहीं होगी, दीक्षा के द्वारा वही असंभव प्रतीत होने वाला कार्य क्षण भर में पूर्ण हो सकता है'।

दिवस पर्यंत निराहार रहने के उपरांत जब डूबते सूरज की सिन्दूरी रंग पत्ते-पत्ते पर बिखरता हुआ गुरुधाम को लालिमा और सुनहरी आभा से भरता हुआ मानों गुरु चरणों में अभ्यर्थना कर रहा था, पूज्यपाद गुरुदेव मुझे आंगन में बिठा कर दीक्षा देने में संलग्न थे - "पूर्ण शक्तिपात युक्त पराम्बा दीक्षा' - जिसमें मेरी अंतर्देह को विशिष्ट मंत्रों और अपनी तेजस्विता व् तपः ऊर्जा द्वारा झंकृत कर रहे थे; पुरे अंतराल में मैं अपने शरीर के कण-कण में नविन प्राणों को संचरण स्पष्ट अनुभव कर रहा था। दीक्षा के अंत में रोम-रोम में गुंजरित होती पूज्यपाद के आर्शीवाद की ध्वनि, वृक्ष पल्लवों से छन कर आती शरद की सुखद उष्मा युक्त सूर्य की किरणों के समान मुझे चैतन्य व् पुलकित कर गई थी।

तद्पुरान्त एक विशिष्ट यंत्र एवं प्राणाश्चेतानायुक्त दिव्य माला प्रदान कर मुझे वापस लौट जाने की आज्ञा मिली। मैं भावविभोर हो चला था। अन्ततः गुरु चरणों में सर्वस्व आत्म समर्पण का संकल्प करते हुए वापिस काशी की और प्रस्थान किया। मंत्र तथा उसके विधि-विधान को स्पष्टता के साथ डायरी में लिख लिया था, परन्तु साधनात्मक पृष्ठभूमि न होने के कारण मेरा मन सदैव आशंकित रहता, अनुष्ठान प्रारंभ करने का साहस ही नहीं कर पा रहा था। कभी-कभी क्षुब्ध होकर सोचता, केवल युक्ति तर्क के द्वारा साधक के लिए आध्यात्मिक जीवन में अग्रसर होना सम्भव नहीं। विश्वास ही मूल है, जो लौकिक दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है, विश्वास के बल से ही वह संघटित हो सकता है। अतः मन-प्राण से सदगुरू का आश्रय ग्रहण कर लिया, कि वे स्वतः ही ढकेल कर आगे ले चलेंगे।

इसके आगे कुछ बोध ही कहां था? न कोई भावभूमि, न ही कोई उच्चता। परन्तु दीक्षा के बाद से ही मां का आकर्षण ह्रदय में प्रगाढ़ भाव से अनुभव करता। साथ ही संसार की सभी विघ्न-बाधाओं के मध्य भी उन नित्य चैत्यन्य स्वरुप श्री गुरुदेव की छवि, उनकी मनोहारी स्निग्ध दृष्टी हर समय मुझे पागल भाँती आकुल कर रही थी, उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हर क्षण ह्रदय में उत्कंठा रहती। कब उनके श्री चरणों में आश्रय पाकर नित्यानन्दमयी मां का दर्शन लाभ कर सकूंगा - सदैव एकमात्र यही ध्यान रहता। अन्तर ही गहन पीडा के प्रभाव से धीरे-धीरे अन्न-जल सब छूटने लगा।

निराहार, अनिद्रा और मन की व्याकुलता ही मुझे गंगा तट पर खींच लायी थी, ज्यों बिछडा हुआ बछडा अपनी मां को खोजता है, वैसी ही मैं कुछ देर बैठे रहने के उपरांत इधर-उधर चक्कर काटने लगा। उस समय मेरे ह्रदय में भी मां के कल्पित श्री चरणों के लक्ष्य की निरंतर उच्छवास ध्वनि हो रही थी, उनके बिना जीवन की कल्पना भी भयावह प्रतीत होने लगी। सायं काल गंगा जल का पान कर वहीं घाट पर निद्रा के आगोश में खो गया।

सजीव जगज्जननी का दर्शन
दुसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही, जब क्षुधा की ज्वाला से पीड़ित एवं ह्रदय की वेदना से दग्ध चुपचाप लेटा हुआ मैं सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा था, कि कुछ अदभुद सा सुनाई पडा। ऐक स्त्री उस घाट पर आकर मेरा नाम लेकर मुझे पुकार रही थी। अभी तक मैं आखें बंद कर चिंतन कर रहा था; उसकी पुकार को सुन मैंने नेत्र खोले और ध्यान से देखने लगा -

रक्त वर्णीय परिधान से सुशोभित एक तरुण स्त्री मेरे सम्मुख ही खडी थी। उसके हाथों में स्वर्ण निर्मित एक थाली थी। उसकी आकृति अत्यन्त दिव्य व् लावण्यमयी थी, केशर मिश्रित दुग्ध सा गौर वर्ण, मेघ रुपी लहराती खुली केश राशि व् ग्रीवा में गुलाब के पुष्पों का कंठाहार... लगा जैसे उसके रोम-रोम से प्रकाश फूट कर पुरे स्थान को आलोकित कर रहा है। मैंने नेत्र पुनः भींच लिए। स्निग्ध प्रकाश होने पर भी वह इत्नना तीव्र था, कि दूसरी बार देखने का साहस ही नहीं हुआ।

पूरा वातावरण दिव्य, मनमोहक सुगंध से आप्लावित हो उठा था। इसी अवस्था में मैं उस देव स्वरूपिणी स्त्री के साथ अत्यन्त अंतरंगता से वार्तालाप करने लगा, मानों मैं जन्म जन्मान्तर से उनका अत्यन्त परिचित हूँ। तभी दूसरा आर्श्चय यह हुआ, कि नेत्र बंद करने पर भी ऐसा अनुभव हुआ, जैसे वह प्रकाश अपने भीतर से बाहर फूट रहा हो। उस स्त्री ने पुकार कर अत्यन्त स्नेहपूर्ण स्वर में कहा- 'गंगा स्नान नहीं करोगे, विलंब हो रहा है।'

अब मैंने हाथ की अंगूलियों की दरार से थोडा नेत्र खोल कर देखा - वे स्वर्ण थाली में पुष्प चुन रही थी। उस निर्जन स्थान पर एक अश्वत्थ वृक्ष के चातुर्दिक नाना प्रकार के फूलों के व् तुलसी के पौधे लगे हुए थे, उन्हीं में से वे तुलसी दल चुन कर थाली में सजा रही थी।

प्रेम की साकार पून्जस्वरूपा उन्होनें पुनः कहा - 'चलो! गंगा स्नान कर लो।' बिना किसी संकोच के मैंने भोलेपन से उत्तर दिया - 'हमारे घर में गंगा स्नान के लिए तिल, धुप, दीप आदि की आवश्यकता होती है'... कहने के साथ मैंने देखा, उसकी थाली में तिल, धुप, हर्रे, दीप रखे हुए हैं। मैं विस्मय से संकुचित हो उठा।

उन्होनें मृदु भाव से हंसते हुए कहा - ' तुम यहाँ क्यों आए हो? मैं तो सभी के भीतर हूं।'

उस समय मैं अपने भीतर एक अत्यन्त मधुर शब्द का गुन्जरण सुनने लगा। वह किस प्रकार का शब्द था, वह वर्णन नहीं किया जा सकता, पर मुझे वह वीणा और बांसुरी की मिश्रित ध्वनि के समान अनुभव हुआ, उस दिव्य स्वर माधुरी से विमोहित हो मैं स्वयं को भूलने लगा।

तभी उन्होनें मुझे अपना मुंह खोलने की आज्ञा दी, जैसे ही मैंने अपना मुंह खोला, मुंह खोलते ही मुझे सुनाई पडा, कि मेरे मुंह और कर्णछिद्रों के भीतर से वह ध्वनि निकल रही है।

पुनः मुझे चैतन्य करते हुए उनकी वाणी गुंजरित हुई - 'मैं इस शब्द के पीछे ज्योतिर्मय आलोक रूप में हूं और आलोक के पीछे सर्वदर्शी, सर्वसाक्षी के रूप में विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूं।' इतना कह कर वह मंथर गति से गंगा की और बढ़ गयीं। मंत्रमुग्ध की भांति मैं पीछे-पीछे चलने लगा।

महाशक्ति का लीला विलास
स्नान घाट के निकट ही महाश्मशान था, वहीं जाकर वे रूक गयीं। उनकी आंखों में आसीम करूणा और वात्सल्य का निर्झर प्रवाहित हो रहा था, मेरे मस्तक पर अपना दाहिना रख कर वे बोली - 'घर लौट जाओ। मैं तुम्हारे घर के मन्दिर में स्थायी रूप से रहूंगी। तुम्हारी अत्यन्त उच्चस्तरीय दीक्षा के कारण ही मुझे यहां आने को बाध्य होना पडा, पर स्थायी रूप से मुझसे व्यवहार करने के लिए साधना पथ पर अग्रसर होना आवश्यक है। इसके लिए गुरु कृपा ही एकमात्र संबल है, उनकी कृपा के बिना पूर्णत्व सम्भव के पथ पर कुछ भी लाभ की संभावना नहीं। सत्य दर्शन होने पर भी जिसके द्वारा जीवन का वास्तविक, अत्यन्त जाज्वल्यमान ब्रह्म स्वरुप का दर्शन लाभ कर सकोगे, अभी केवल बालक के समान उनका हाथ पकड़े रहो।'

इतना कह कर उनका हाथ अभय मुद्रा में उठ गया। हाथ का उठना था, कि मेरे नेत्रों के समक्ष कई-कई सूर्यों का प्रकाश, जो अत्यन्त शीतल था, जगमगा उठा और उसी के मध्य मैंने देखा - परम आराध्य श्री गुरुदेव श्रीमालीजी राथारूड अप्पोर्व तेजस्विता और शरत चन्द्र की भांति निर्मल प्रसन्नता का प्रसार था, रोम-रोम से असीम ममत्व और करूणा प्रस्फुटित हो डिग-इगंत को आलोकित कर रही थी... दूसरे ही क्षण दृश्यपटल साफ हो गया, वे देवी भी अंतर्ध्यान हो चुकी थी।

पूर्ण ब्रह्ममयी उन जगज्जननी को साष्टांग प्रणाम कर मैं घर लौट चला। प्राची में सूर्योदय हो चुका था, पर मेरे मन में तामस को भेदने वाले उन कोटि-कोटि शीतल सूर्यों के प्रकाश में मैं अपनी परमवात्सल्यमयी शाश्वत मां का परिचय गुरुदेव के रूप में पा चुका था।

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, अगस्त २००९

रविवार, 28 जून 2009

मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर ...

गुरु पूर्णिमा पर सदगुरुदेव ने आहवान किया था

यह शिष्य पूर्णिमा है

मैं तुम्हारें पिछले कई जन्मों का साक्षीभूत हूं
मैंने अपना खून देकर तुम्हें सींचा है
मैं तुम्हारा हर दृष्टी से रखवाला हूं


यह पर्व सही अर्थों में गुरु का पर्व है ही नहीं, यह तो शिष्य पर्व है, इसे शिष्य पूर्णिमा कहा जाता है, क्योंकि यह शिष्य के जीवन का एक अन्तरंग और महत्वपूर्ण क्षण है। यह उसके लिए उत्सव का आयोजन है, यह मन की प्रसन्नता को व्यक्त करने का त्यौहार है, यह ऐसा पर्व है, जो जीवन की प्रफुल्लता, मधुरता और समर्पण के पथ पर गुरु के चरण चिह्न अंकित कर अपने आप को सौभाग्यशाली मानता है।

यदि तुम मेरे आत्मीय हो, मेरे प्राणों के घनीभूत हो, मेरे जीवन का रस और चेतना हो तो यह निश्चय ही तुम्हारे लिए उत्सव, आनन्द और सौभाग्य का पर्व है, क्योंकि शिष्य अपने जीवन की पूर्णता तभी पा सकता है, जब वह गुरु ऋण से उऋण हो जाय। मां ने तो केवल तुम्हारी देह को जन्म दिया, पर मैंने उस देह को संस्कारित किया है, उसमें प्रानश्चेतना जाग्रत की है, उस तेज तपती हुई धुप में वासंती बहार का झोंका प्रवाहित किया है, मैंने तपते हुए भूखण्ड पर आनन्द के अमिट अक्षर लिखने की प्रक्रिया की है, और मैंने तुम्हे पुत्र शब्द से भी आत्मीय प्राण शब्द से संबोधित किया है।

और यह गुरु के द्वारा ही सम्भव हो सका है, यह इस जीवन का ही नहीं, कई-कई जन्मों का लेखा-जोखा है। मैं तुम्हारें इस जन्म का साक्षीभूत गुरु ही नहीं हूं, अपितु पिछले २५ जन्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब मेरे पास है, और हर बार मैंने तुम्हें आवाज दी है, और तुमने अनसूनी कर दी है, हर बार तुम्हारे प्राणों की चौखट पर दस्तक दी है, और हर बार तुम किवाड़ बंद करके बैठ गए हो, हर बार तुम्हें झकझोरने का, जाग्रत करने का, चैतन्यता प्रदान करने का प्रयास किया है, और हर बार तुमने अपना मुंह समाज की झुरभुरी रेत में छिपाकर अनदेखा, अनसुना कर दिया है।

पर यह कब तक चलेगा, कितने-कितने जन्मों तक तुम्हारी यह चुप्पी, तुम्हारी यह कायरता, तुम्हारी यह बुजदिली मुझे पीडा पहुंचाती रहेगी, कब तक मैं गला फाड़-फाड़ कर आवाजें देता रहूंगा और तुम अनसुनी करते रहोगे, कब तक मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर सिद्ध योगा झील के किनारे ले जाने का प्रयास करूंगा और तुम हाथ छुडाकर समाज की उस विषैली वायु में साँस लेने के लिए भाग खड़े जाओगे, ऐसा कब तक होगा? इस प्रकार से कब तक गुरु को पीडा पहुंचाते रहोगे, कब तक उसके चित्त पर अपने तेज और नुकीले नाखूनों से घाव करते रहोगे, कब तक उसके प्राणों को वेदना देते रहोगे?

मैंने तुम्हें अपना नाम दिया है, और इससे भी बढ़ कर मैंने तुम्हें अपना पुत्र और आत्मीय कहा है, अपना गोत्र (निखिल गोत्र) तुम्हें प्रदान किया है और अपने जीवन के रस से सींच-सींच कर तुम्हारी बेल को मुरझाने से बचाने का प्रयास किया है, तुम्हारी सूखी हुई टहनियों में रस प्रदान करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है, और मेरा ही यह प्रयत्न है, की इन सूखी हुई टहनियों में फिर नई कोपलें आवें, फिर वातावरण सौरभमय बने, मैंने अपने जीवन के प्रत्येक कषक को इसके लिए लगाया है, अपनी जवानी को हिमालय के पत्थरों पर घिस-घिस कर तुम्हें अमृत पिलाने का प्रयास किया है, तुम्हारें प्रत्येक जन्म में मैंने चेतना देने की कोशिश की है, और हर बार तुम्हारे मुरझाये हुए चहरे पर एक खुशी, एक आहलाद एक चमक प्रदान करने का प्रयास किया है।

पर यह सबकुछ यों ही नहीं हो गया, इसके लिए मुझे तुमसे भी ज्यादा परिश्रम करना पडा है। मैंने अपने शरीर की बाती बना कर तुम्हारे जीवन के अंधकार में रोशनी बिखरने का प्रयत्न किया है, अपने प्राणों का दोहन कर उस अमृत जल से तुम्हारी बेल सींचने का और हरी-भरी बनाए रखने का प्रयास किया है, तिल-तिल कर अपने आप को जलाते हुए भी, तुम्हारे चहरे पर मुस्कराहट देने की कोशिश की है , और मेरा प्रयेक क्षण, जीवन का प्रत्येक चिन्तन इस कार्य के लिए समर्पित हुआ है, जिससे कि मेरे मानस के राजहंस अपनी जाति को पहचान कर सकें, अपने स्वरुप से परिचित हो सकें, अपने गोत्र से अभिभूत हो सकें और मेरे ह्रदय के इस मान सरोवर में गहराई के साथ दुबकी लगाकर लौटते समय मोती ले सकें।

... और यह हर बार हुआ है, और यह पिछले जन्मों से होता रहा है, क्योंकि मैं हर क्षण तुम्हारे लिए ही प्रयत्न किया है, मेरा जीवन अपने स्वयं के लिए या परिवार के लिए नहीं है, मेरा जीवन का उद्देश्य तो शिष्यों को पूर्णता देने का प्रयास है, और इसके लिए मैं सिद्धाश्रम जैसा आनन्ददायक और अनिर्वचनीय आश्रम छोडा और तुम्हारें इन मैले-कुचैले, गलियारों में आकर बैठा, जो वायुवेग से एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने के लिए सक्षम था, उसे तुम्हारें लिए अपने आप को एक छोटे से वाहन में बंद कर लिया, जिसका घर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड था, और किसी भी ग्रह या लोक में विचरण करता हुआ जो निरंतर आनंदयुक्त था, उसने तुम्हारे लिए अपने आप को एक छोटे से घर में आबद्ध, तुम्हारें लिए इस समाज से जूझा, आलोचनाएं सुनीं, गालियां खाई, और कई प्रकार के कुतर्कों का सामना किया, यह सब क्यों? क्या जरूरत थी यह सब सहन करने कि, झेलने की, भुगतने की?

और मैंने ऐसा किया, प्रत्येक क्षण इस बात के लिए कृत संकल्प था, और हूं कि मैं तुम्हें समाज में गर्व से सर तानकर खडा रहने की प्रेरणा दूं? मैं तुम्हें इस गन्दगी से भरे समाज में देवदूत बनाकर खडा कर सकूं, तुम्हारी आखों में एक चमक कर सकूं, तुम्हारे पंखों में इतनी ताकत दे सकूं, कि तुम आकाश से सुदूर ऊंचाई पर बिना थके पहुँच सको, और इस ब्रम्हत्व का, आनन्द ले सको, मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर रंग बिखरने के लिए तैयार कर सकूं, जहां विस्तृत आकाश हो, जहां आनन्द की शीतल बयार हो, जहां पूर्णता और सिद्धियाँ जयमाला लिए तुम्हारें गले में डालने के लिए उद्यत और उत्सुक हों।

और यह सब बराबर हो रहा है, तुमने अपने आपको पहली बार पहचानने का प्रयत्न किया है, पहली बार यह अहसास किया है, कि तुम संसार में अकेले नहीं हो, कोई तुम्हारा रखवाला अवश्य है, जो तुम्हारें जीवन की बराबर चौकीदारी कर रहा है, कोई ऐसा व्यक्तित्व तुम्हारे जीवन में अवश्य है, जिसे अपनी चिंताएं, परेशानियां और समस्याएं खुशी-खुशी देकर अपने आपको हल्का कर सकते हो, और मुझे तुम जो दे रहे हो, उससे मुझे प्रसन्नता है।

क्योंकि मैं तुम्हारें साथ हूं, क्योंकि तुम्हारें पांव मेरे पाव के साथ आगे बढ़ रहे है, क्योंकि मैं तुम्हारें जीवन का ध्यान रखने वाला, तुम्हारे जीवन को आल्हाद कारक बनाने वाला और तुम्हारें जीवन का प्रत्येक क्षण का हिसाब-किताब रखने वाला हूं।

मैं इन सबके लिए गुरु पूर्णिमा पर आवाज दे रहा हूं, क्योंकि यह तुम्हारा स्वयं का पर्व है। यदि शिष्य है, यदि सही अर्थों में वह मेरी आत्मा का अंश है, यदि सही अर्थों में मेरी प्राणश्चेतना है, तो उसके पाव किसी भी हालत में रूक नहीं सकते, समाज उसका रास्ता रोक नहीं सकता, परिवार उसके पैरों में बेडिया डाल नहीं सकता, वह तो हर हालत में आगे बढ़ कर गुरु चरणों मेर, मुझ में एकाकार होगा ही, क्योंकि यह एकाकार होना ही जीवन की पूर्णता है, और यदि ऐसा नहीं हो सका तो वह शिष्यता ही नहीं है, वह तो कायरता है, बुजदिली है, कमजोरी है, नपुंसकता है, और मुझे विश्वास है, कि मेरे शिष्यों के साथ इस प्रकार घिनौने शब्द नहीं जुड़ सकते ।

तुम्हारा अपना
निखिलेश्वरानंद

गुरु पूर्णिमा पर्व पर बोकारो में पूरा परिवार आपका स्वागत करने के लिए तत्पर है, हम उस साधना की गंगा में आत्म स्नान करेंगे, उस पवित्र मार्ग पर कुछ कदम बढाएंगे जो सिद्धाश्रम की ओर जाता है, वही तो जीवन का लक्ष्य है।
साधना कि शिविर कि जानकारी के लिए संपर्क करें -http://issp-shivirs.blogspot.com/

गुरुवार, 18 जून 2009

ज्ञान वही है, जो व्यवहार में काम आए

आचार्य बहुश्रुत के पास कई शिष्य रहते थे। उनमें से तीन शिष्यों की विदाई का जब अवसर आया, तब आचार्य ने कहा - कल प्रातः काल मेरे निवास पर आना। कल तुम्हारी आखिरी परीक्षा होगी। फिर तुम्हें घर जाने की अनुमति दूंगा। आचार्य बहुश्रुत ने रात्री में कुटिया के मार्ग पर कांटे बिखेर दिए। नियत समय पर वे तीन शिष्य जिन्हें अंतिम परीक्षा देनी थी, गुरु के निवास की ओर चल पड़े। मार्ग में कांटे बिछे थे लेकिन शिष्य भी कच्चे न थे। कांटे हैं तो क्या हुआ?

गुरु के द्वार पर जाना ही है ... ऐसा सोचकर पहला शिष्य कांटे चुभ रहे थे फिर भी कुटिया तक पहुंच गया और कुटिया के बाहर बैठ गया। दुसरा शिष्य कांटो से बचकर निकल आया फिर भी एकाध कांटा जो चुभ गया उसको शांति से निकाला। तीसरे शिष्य ने आकर देखा तो उसने झाडू ली। पहले बड़े बड़े कांटो को घसीटकर दूर फ़ेंक आया। फिर झाडू से कांटे बुहारकर दूर कर दिया और हाथ-मुंह धोकर कुटिया के पास आया। आचार्य कुटिया में से तीनों की गतिविधि देख रहे थे। जिसने कांटे हटाकर मार्ग साथ-सुथरा कर दिया था वह तीसरा शिष्य ज्यों ही आया, तो आचार्य ने कुटिया के द्वार खोले एवं कहा वत्स, तुम्हारा ज्ञान पूरा हो गया। तुम मेरी अंतिम परीक्षा में पास हो गए।

ज्ञान वही है जो व्यवहार में काम आए। तुम्हारा ज्ञान व्यवहारिक हो गया है। तुम उत्तीर्ण हो गए हो। तुम संसार में रहोगे फिर भी तुम्हें कांटे नहीं लगेंगे और तुम दूसरों को भी कांटे लगने नहीं दोगे वरन कांटे हटाओगे। फिर पहले एवं दुसरे शिष्य की ओर देखकर कहा - तुमको अभी कुछ दिन और आश्रम में रहना पडेगा। ज्ञान प्राप्ति का मतलब केवल पढ़कर या सुनकर उसे रटना नहीं, वरन उसे व्यवहार में लाना है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को जो व्यवहार में लाता है, उसका ज्ञान पाना सार्थक हो जाता है।

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका, सितम्बर २००८,

गुरुवार, 4 जून 2009

उर्वशी साधना - सौन्दर्य, सुख प्रेम की पूर्णता हेतु

रम्भा, उर्वशी और मेनका तो देवताओं की अप्सराएं रही हैं, और प्रत्येक देवता इन्हे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। यदि इन अप्सराओं को देवता प्राप्त करने के लिए इच्छुक रहे हैं, तो मनुष्य भी इन्हे प्रेमिका रूप में प्राप्त कर सकते हैं। इस साधना को सिद्ध करने में कोई दोष या हानि नहीं है तथा जब अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी सिद्ध होकर वश में आ जाती है, तो वह प्रेमिका की तरह मनोरंजन करती है, तथा संसार की दुर्लभ वस्तुएं और पदार्थ भेट स्वरुप लाकर देती है। जीवन भर यह अप्सरा साधक के अनुकूल बनी रहती है, वास्तव में ही यह साधना जीवन की श्रेष्ठ एवं मधुर साधना है तथा प्रत्येक साधक को इस सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

साधना विधान
इस साधना को २१ अप्रैल के पश्चात करना विशेष अनुकूल है। इसके अलावा इसे अक्षय तृतीया या किसी भी शुक्रवार से प्रारम्भ किया जा सकता है। यह रात्रिकालीं साधना है। स्नान आदि कर पीले आसन पर उत्तर की ओर मुंह कर बैठ जाएं। सामने पीले वस्त्र पर 'उर्वशी यंत्र' (ताबीज) स्थापित कर दें तथा सामने पांच गुलाब के पुष्प रख दें। फिर पांच घी के दीपक लगा दें और अगरबत्ती प्रज्वलित कर दें। फिर उसके सामने 'सोनवल्ली' रख दें और उस पर केसर से तीन बिंदियाँ लगा लें और मध्य में निम्न शब्द अंकित करें -

॥ ॐ उर्वशी प्रिय वशं करी हुं ॥

इस मंत्र के नीचे केसर से अपना नाम अंकित करें। फिर उर्वशी माला से निम्न मंत्र की १०१ माला जप करें -
मंत्र
॥ ॐ ह्रीं उर्वशी मम प्रिय मम चित्तानुरंजन करि करि फट ॥

यह मात्र सात दिन की साधना है और सातवें दिन अत्यधिक सुंदर वस्त्र पहिन यौवन भार से दबी हुई उर्वशी प्रत्यक्ष उपस्थित होकर साधक के कानों में गुंजरित करती है कि जीवन भर आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पालन करूंगी।

तब पहले से ही लाया हुआ गुलाब के पुष्पों वाला हार अपने सामने मानसिक रूप से प्रेम भाव उर्वशी के सम्मुख रख देना चाहिए। इस प्रकार यह साधना सिद्ध हो जाती है और बाद में जब कभी उपरोक्त मंत्र का तीन बार उच्चारण किया जाता है तो वह प्रत्यक्ष उपस्थित होती है तथा साधक जैसे आज्ञा देता है वह पूरा करती है।

साधना समाप्त होने पर 'उर्वशी यंत्र (ताबीज)' को धागे में पिरोकर अपने गलें में धारण कर लेना चाहिए। सोनवल्ली को पीले कपड़े में लपेट कर घर में किसी स्थान पर रख देना चाहिए, इससे उर्वशी जीवन भर वश में बनी रहती है।
--- अप्रैल २००५, मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

गुरुवार, 21 मई 2009

वास्तविक ज्ञान

कनखल के समीप गंगा किनारे महर्षि भारद्वाज और महर्षि रैभ्य के आश्रम थे। दोनों में मित्रता थी। रैभ्य और उनके दोनों पुत्र परम विद्वान् थे तथा लोक में सम्मानित भी। भारद्वाज तपस्वी थे, किन्तु अध्ययन में रूचि न थी। भारद्वाज के पुत्र यवक्रीत भी पिता की भांति अध्ययन से दूर रहे। जब उन्होनें रैभ्य और उनके पुत्रों की ख्याति देखि, तो वैदिक ज्ञान प्राप्त करने की कामना से उन्होनें उग्र तप प्रारंभ कर दिया। देवराज इन्द्र जब उपस्थित होकर कथूर तप का कारण पूछा, तो यवक्रित ने कहा - गुरु के मुख से वेदों की सम्पूर्ण शिक्षा शीघ्रता से नहीं पाई जा सकती। अतः कठोर तप से शास्त्र ज्ञान पाना चाहता हूं। इंद्र ने सलाह दी, यह उलटा मार्ग है, आप योग्य गुरु के सान्निध्य में अध्ययन कर शास्त्र ज्ञान प्राप्त करें। इंद्र चले गए, किन्तु यवक्रित ने भी तप जारी रखा। एक दिन इंद्र वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उस स्थान पहुंचे, जहां से यवक्रित गंगा में स्नान के लिए उतरते थे। यवक्रित जब स्नान कर लौटे, तो देखा वृद्ध ब्राह्मण मुट्ठी भर-भरकर गंगा में रेत डाल रहा है।

यवक्रित ने कारण पूछा तो वृद्ध ब्राह्मण ने उत्तर दिया - लोगों को यहां गंगा के उस पार जाने में असुविधा होती है, अतः मैं इस रेत से नदी पर सेतु निर्माण कर रहा हूं। यवक्रित ने कहा - भगवन! इस महाप्रवाह को बालूरेत बांधना असंभव है। आप निष्फल प्रयत्न कर रहे है। तब वृद्ध ब्राह्मण ने यवक्रित से कहा - ठीक उसी तरह तुम उग्र तप से गुरु के बगैर वैदिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो। तत्काल यवक्रित ने ब्राह्मण को पहचान लिया। यवक्रित ने इंद्र से क्षमा मांगी और स्वीकारा कि गुरु के बगैर ज्ञान असंभव है। विशेषकर यदि उसमे हठ और अंहकार है, तब तो वह सम्भव हो ही नहीं सकता। विद्या के लिए गुरु कि कृपा और निरन्तर अध्ययन अनिवार्य है। यदि कोई हठ कर स्वयं ही विद्या प्राप्त करने का प्रयास करे तो उसके प्रयास निष्फल होने का खतरा बना रहता है। अतः गुरु कृपा की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।


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केवल, और केवल गुरु का ही कार्य है कि वह शिष्य को उचित ज्ञान प्रदान करें। शास्त्रों में जप-तप-भजन-ध्यान-धारणा, सब का विवेचन आया है, लेकिन अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है और उसी ज्ञान से भौतिक जीवन में तथा आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त हो सकती है। केवल गुरु ही शिष्य के नेत्रों में ज्ञान की शलाका से अज्ञान का अन्धकार दूर कर सकते है। पुस्तकें तो लाखों है, चार वेद, छः वेदान्त, अठारह पुराण, १०८ उपनिषद् तथा हजारों मिमांसाएं हैं लेकिन सदगुरू के श्रीमुख से निकला हुआ एक वचन ही सब से भारी है।
ब्रह्मानन्दं परम सुखदम
सदगुरू को यही शब्द बोलकर नमस्कार किया जाता है। इस गुरु प्रणाम में गुरुदेव को पूर्ण आनंद और परम सुख प्रदान करने वाला कहा जाता है, क्योंकि गुरु रुपी भगवान् अथवा गुरुदेव में अधिष्ठित शिव अपनी क्रिया शक्ति द्वारा अर्थात दीक्षा द्वारा शिष्य के चक्षुओं के आगे फैले विकारों का, दोषों का नाश करते हैं, जिससे उसका पशुत्व दूर होकर शिष्यत्व आ सके - और जब वह शिष्यत्व शिष्य में समा जाता है, तभी वह अपना मार्ग समझ सकता है, उसके दिव्य ज्ञान रूपी चक्षु खुल जाते हैं।
जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों से ही चन्द्रमा में प्रकाश है और वह प्रकाशवान दिखाई देता है ... जबकि यह दृश्य प्रत्यक्षतः स्पष्ट दिखाई नहीं देता है कि सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर और अन्य तारा मंडल पर पड़ रहा है और वे उसी से जगमगा रहे है ... यह सब अदृश्य रूप से होता है और यह बात ध्रुव सत्य है ... ठीक ऐसा ही शिष्य का जीवन भी होता है। गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान द्वारा ही वह प्रकाशवान अर्थात ज्ञानवान, शास्त्र ज्ञाता हो सकता है। इसके लिए सदगुरू रुपी प्रकाशपुंज आवश्यक है जो अपनी रश्मियों का एक छोटा सा भाग देकर उसे प्रकाशवान बनाते है। केवल शास्त्रों के पठन से ज्ञान प्राप्त नहीं होता है।

गुरुवार, 7 मई 2009

राहु यंत्र

जब राहु को अपने अनुकूल बना लिया है तो क्यों घबराते है जीवन की विपरीत स्थितियों में, क्योंकि राहु प्रदान करता है हिम्मत, साहस, शौर्य वाहन सुख, शक्ति और राहु समाप्त करता है दुःख, चिंता, दुर्भाग्य और संकट, बस आप कीजिये विधिवत राहु मंत्र जप।

इसे किसी भी मंगलवार अथवा शनिवार की रात्रिसे शुरू किया जा सकता है। रात्रि में स्नान आदि करके शुद्ध वस्त्र पहन लें। पश्चिम की ओरमुख करके लाल आसन पर बैठें। सामने चौकी पर लाल आसन बिछा दें। आसन पर गुरु चित्र स्थापित कर, गुरु से साधना की पूर्णता के लिये आर्शीवाद प्राप्त कर लें। अब साधक अगरबत्ती और तेल का दीपक जला लें, दीपक को अपनी बायीं ओर रखें। सामने चौकी पर बीछे हुए वस्त्र पर साबुत काली उड़द से राहु ग्रह का चिन्ह उ (अंग्रेजी वर्णमाला के यू अक्षर के समान) बनाकर। उस पर 'महाकाल राहु यंत्र' स्थापित करें। इसके पश्चात साधक दाहिने हाथ में पवित्र जल लेकर विनियोग करें -

विनियोग
ॐ अस्य श्री राहु मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः पक्तिं छन्दः राहु देवता, रां बीजं, भ्रां शक्तिः श्री राहु प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः

विनियोग के पश्चात राहु देवता का ध्यान करें।

ध्यान
वन्दे राहुं धूम्र वर्णं अर्धकायं कृतांजलि, विक्रुतास्यम
रक्त नेत्रं धूम्रालंकार मन्वहम ।

इसके बाद यंत्र का कुंकुम अक्षत धुप, दीप और पुष्प से पंचोपचार पुजन करें, फिर साधक 'शत्रुमर्दिनी माला' से ५ माला जप राहु मंत्र का करे -

ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः ॥
यह साधना सात दिन तक संपन्न करनी है। सात दिन के बाद 'शत्रु मर्दिनी माला' को सुरक्षित स्थान पर रख दें तथा किसी विशेष कार्य पर जाने से पहले उसे धारण कर लें। साधना की शेष सामग्री किसी निर्जन स्थान पर रात्रि में डाल दें।
- दिसम्बर २००७, मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

गुरु प्राप्ति - एक लक्ष्य

मनुष्य अपने आप में अधूरा और अपवित्र है। वह अपने आपको पूर्ण कहता है, मगर पूर्ण है नहीं, क्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन रहता ही है, धन है तो प्रतिष्ठा नहीं, प्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं है, पुत्र है तो सौभाग्य नहीं, सौभाग्य है तो रोग रहित जीवन नहीं है। यदि आधुनिक विज्ञान के अनुसार मानव शरीर की चीड-फाड की जाय, तो उसमे से केवल मांस निकलेगा, हड्डिया निकलेगी, रूधिर निकलेगा, मल-मूत्र निकलेगा।

इसके अलावा शरीर के अन्दर कुछ ऐसी चीज नहीं है, जिससे की इस शरीर पर गर्व किया जा सके। हम भोजन करते हैं, वह भी मल बन जाता है। हम चाहे हलवा खायें, चाहे घी खाये, चाहे रोटी खायें, उसको परिवर्तित मल के रूप में ही होना है।

सामान्य मानव शरीर में ऐसी क्रिया नहीं होती, जो उसे दिव्य और चेतना युक्त बना सके और ऐसा शरीर अपने आपमें व्यर्थ है, खोकला है, उस देह में उच्चकोटि का ज्ञान, उच्चकोटि की चेतना समाहित नहीं हो सकती।

क्यो नहीं प्राप्त हो सकती? फिर मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ ही क्या रहा? जो पुष्प मल में पडा हुआ है, उसको उठा कर भगवान् के चरणों में नहीं चढाया जा सकता। यदि हम शरीर को भगवान् के या गुरु के चरणों में चढायें - हे भगवान्! हे गुरुदेव! यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है, तो शरीर तो ख़ुद अपवित्र है, जिसमें मल और मूत्र के अलावा है ही कुछ नहीं। ऐसे गन्दे शरीर को भगवान् के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं? ऐसे शरीर को अपने गुरु के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं?

देवताओं का सारभूत अगर किसी में है, तो वह गुरु रूप में है, क्योंकि गुरु प्राणमय कोष में होता है, आत्ममय कोष मैं होता है। वह केवल मानव शरीर धारी नहीं होता। उसमे ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसका सहस्रार जाग्रत होता है। न उसे अन्न की जरूरत पड़ सकती है, न पानी की जरूरत हो सकती है, न तो उसे मूत्र त्याग की जरूरत होगी, न मल विसर्जन होगा। जब भूख-प्यास ही नहीं लगेगी, तो मल मूत्र विसर्जित करने की जरूरत हे नहीं होगी।

इसलिए उच्चकोटि के साधक न भोजन करते है, न पानी पीते हैं, न मल-मूत्र विसर्जन करते है, जमीन से छः फीट की ऊंचाई पर आसन लगाते हैं और साधना करते हैं। जो इस प्रकार की क्रिया करते हैं, वे सही अर्थों में मनुष्य है। जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, जो मलयुक्त हैं, जो गन्दगी युक्त हैं, वे मात्र पशु हैं।

इस जगह से उस जगह तक छलांग लगाने की कौन सी क्रिया है? कैसे वहां पहुंचा जा सकता है, जीवन में मनुष्य कैसे बना जा सकता है?

जीवन में वह स्थिति कब आएगी, जब जमीन से छः फूट ऊंचाई पर बैठ करके साधना कर सकेंगे? जमीन का ऐसा कोई सा भाग नहीं है, जहां रूधिर न बहा हो। धरती का प्रत्येक इंच और प्रत्येक कण अपने आप में रूधिर से सना हुआ है, अपवित्र है, उस भूमि में साधना कैसे हो सकती है।

बिना पवित्रता के उच्चकोटि की साधनाएं सम्पन्न नहीं हो सकती, हजारो वर्षों की आयु प्राप्त नहीं की जा सकती, सिद्धाश्रम नहीं पहुंचा जा सकता और जब नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसा जीवन अपने आप में व्यर्थ है, किसी काम का नहीं हैं, वह सिर्फ श्मशान की यात्रा ही कर सकता है।

ऐसा जीवन तो आपकी पिछली अनेक पीढियां व्यतीत कर चुकी है और अब उनका नामोनिशान भी बचा नहीं है। आपको अपने दादा परदादा के सब नाम तो मालूम है, लेकिन यह नहीं मालूम, की आपके परदादा के पिता कौन थे, उन्होनें क्या कार्य किया और किस प्रकार उन्होनें अपना जीवन बिताया, यदि आप भी ऐसा ही करना चाहते है, तो फिर आपको जीवन में गुरु की कोई जरूरत ही नहीं है।

यह शरीर कितना अपवित्र है, की चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता। यदि चार दिन स्नान नहीं करें, तो आपके शरीर से बदबू आने लगेगी, कोई आपके पास बैठना भी नहीं चाहेगा, बात भी करना नहीं चाहेगा। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी, उच्चकोटि के योगियों से अष्ठगंध प्रवाहित होती है।

तो आप में क्या कमी है, जो अष्टगंध प्रवाहित नहीं होती? आप जब निकले, तो दुनिया वाले मुड कर देखे, की पास में से कौन निकला? यह सुगंध कहां से आई, उसके व्यक्तित्व में क्या है?

... और यदि ऐसा व्यक्तित्व नहीं बना, तो जीवन का मूल अर्थ, मूल लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सकता, जिसके लिए देवता भी इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम के रूप में जन्म लेते है, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, इसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर मोहम्मद के रूप में जन्म लेते हैं।

इस शरीर को पवित्र बनाने के लिए, यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले जायें। जब प्राण तत्व में जायेंगे, तो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं।

फिर जीवन के साए क्रियाकलाप तो होंगे, मगर फिर मल-मूत्र की जरूरार नहीं रहेगी, फिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगा, कि आप कुछ है।

प्राण तत्व में जाकर आप में चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे वेद सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेंगे।

आप कितनी साधना करेंगे? कितना मंत्र जपेंगे? कब तक जपेंगे? ज्यादा से ज्यादा साठ साल की उम्र तक। सत्तर साल तक, लेकिन आपके जीवन का आधिकांश समय तो व्यतीत हो चुका है, जो बचा है, वह भी सामाजिक दायित्वों के बोझ से दबा हुआ है फिर वह जीवन अद्वितीय कैसे बन सकेगा? और अद्वितीय नहीं बना, तो फिर जीवन का अर्थ भी क्या रहा?

कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं किया, कृष्ण तो जगत गुरु के रूप में याद किया जाता है। उनको गुरु क्यों कहा जाता है? इसलिए, की उन्होनें उन साधनाओं को, उस चेतना को प्राप्त किया, जिसके माध्यम से उनके शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हुई, उनका प्राण तत्व जाग्रत हुआ।

मैं आपको एक द्वितीय साधना दे रहा हूं (गुरु हृदयस्थ स्थापन), हजार साल बाद भी आप इस साधना को अन्यत्र नहीं कर पायेंगे, पुस्तकों से आपको प्राप्त नहीं हो पायेगा, गंगा किनारे बैठ करके भी नहीं हो पायेगा, रोज-रोज गंगा में स्नान करने से भी नहीं प्राप्त हो पायेगा। यदि गंगा में स्नान करने से ही कोई उच्चता प्राप्त होती है, तो मछलियां तो उस जल में रहती है, वे अपने आप में बहूत उच्च बन जाती।

जीवन में अद्वितीयता हो, यह जीवन का धर्म है। हमारे जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं। ऐसा हो, तब जीवन का अर्थ है। ऐसा जीवन प्राप्त करने के लिए बस एक ही उपाय है, की हम ऐसे गुरु की शरण में जायें, जो अपने आप में पूर्ण प्राणवान हों, तेजस्विता युक्त हों, वाणी में गंभीरता हो, आँख में तेज हो, वे जिस को देख लें, वह सम्मोहित हो, अपने आप में, सक्षम हो, और पूर्ण रूप से ज्ञाता हो।

... लेकिन आपके पास कोई कसौटी नहीं है, कोई मापदण्ड नहीं है। आप उनके पास बैठ कर उनके ज्ञान से, चेतना से, प्रवचन से एहसास कर सकते हैं। यदि आपको जीवन में सदगुरू की प्राप्ति हो गई, तो आपको जीवन का अर्थ समझ में आयेगा, तब आपको गर्व होगा, की आप एक सदगुरू के शिष्य है, जिनके पास हजारों हजारों पोथियों ज्ञान है।

यदि व्यक्ति में ज़रा भी समझदारी है, यदि उसमें समझदारी का एक कण भी है, तो पहले तो उसे यह चिंतन करना चाहिए, की उसे ऐसा जीवन जीना ही नहीं, जो मल-मूत्र युक्त है, क्योंकि ऐसे जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है और फिर उसे सदगुरू को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो उसे तेजस्विता युक्त बना सके, जो उसे प्राण तत्व में ले जा सकें, जो उसके शरीर को सुगंध युक्त बना सके।

यदि ऐसा नहीं किया, तो भी यह शरीर रोग ग्रस्तता और वृद्धावस्था को ग्रहण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। फिर वह क्षण कब आयेगा, जब आप दैदीप्यमान बन सकेंगे? कब आपमें भावना आएगी, कि मुझ को दैदीप्यमान बनना ही है, अद्वितीय बनाना ही हैं, सर्वश्रेष्ठ बनना है?

ऐसा तब सम्भव हो सकेगा, जब आपके प्राण, गुरु के प्राण से जुडेंगे, जब आपका चिंतन गुरुमय होगा, जब आपके क्रिया-कलाप गुरुमय होंगे और इसके लिए एक ही क्रिया है - अपने शरीर में पूर्णता के साथ गुरु को स्थापित कर देना है, जीवन में उतार देना।

शरीर में उनका स्थापन होते ही, उनकी चेतना के माध्यम से यह शरीर अपने आप में सुगन्ध युक्त, अत्यन्त दैदीप्यमान और तेजस्वी बन सकेगा, जीवन में अद्वितीयता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगी, जीवन में पवित्रता आ सकेगी, प्राण तत्व की यात्रा सम्भव हो सकेगी और उनका ज्ञान आपके अन्दर उतर कर सकेगा।
- सदगुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

शक्तिपात युक्त - दस महाविद्या दीक्षा

दस महाविद्या दीक्षा
जिसे प्राप्त करना ही जीवन की पूर्णता कहा गया है

इस सृष्टि के समस्त जड़-चेतन पदार्थ अपूर्ण हैं, क्योंकि पूर्ण तो केवल वह ब्रह्म ही है जो सर्वत्र व्याप्त है। अपूर्ण रह जाने पर ही जीव को 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं' के चक्र में बार-बार संसार में आना पड़ता है, और फिर उन्हीं क्रिया-कलापों में संलग्न होना पड़ता है। शिशु जब मां के गर्भ से जन्म लेता है, तो ब्रह्म स्वरुप ही होता है, उसी पूर्ण का रूप होता है, परन्तु गर्भ के बाहर आने के बाद उसके अन्तर्मन पर अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है और इस कारण धीरे-धीरे नवजात शिशु को अपना पूर्णत्व बोध विस्मृत होने लगता है और एक प्रकार से वह पूर्णता से अपूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है।

और इस तरह एक अन्तराल बीत जाता है, वह छोटा शिशु अब वयस्क बन चुका होता है। नित्य नई समस्याओं से जूझता हुआ वह अपने आप को अपने ही आत्मजनों की भीड़ में भी नितान्त अकेला अनुभव करने लगता है। रोज-रोज की भीग-दौड़ से एक तरह से वह थक जाता है, और जब उसे याद आती है प्रभु की, तो कभी-कभी पत्थर की मूर्तियों के आगे दो आंसू भी ढुलक देता है।

परन्तु उसे कोई हल मिलता नहीं। चलते-चलते जब कभी पुण्यों के उदय होने पर सदगुरू से मुलाक़ात होती है, तब उसके जीवन में प्रकाश की एक नई किरण फूटती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मात्र सदगुरू ही उसे बोध कराते है, कि वह अपूर्ण था नहीं अपितु बना गया है। गुरुदेव उसे बोध कराते हैं, कि वह असहाय नहीं, अपितु स्वयं उसी के अन्दर अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैं, असम्भवको भी सम्भव दिखाने की क्षमता छुपी हुई है, गुरु कि इसी क्रिया को दीक्षा कहते हैं, जिसमे गुरु अपने प्राणों को भर कर अपनी ऊर्जा को अष्ट्पाश में बंधे जिव में प्रवाहित करते है।

गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

महाकाली महाविद्या दीक्षा
यह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांति, सौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमान, तिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई शत्रु न हो ... और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहीं, वरन रोग, शोक, व्याधि, पीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैं, जिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है ... और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता है, परन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरी, इस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैं, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते है, गुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा था, जिससे उन्होंने 'मेघदूत' , 'ऋतुसंहार' जैसे अतुलनीय काव्यों की रचना की, इस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

तारा दीक्षा
तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित है, वह जब प्रातः काल उठाता है, तो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा
त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडा, सुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैं, वह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैं, इसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है, कोई भी साधना हो, चाहे अप्सरा साधना हो, देवी साधना हो, शैव साधना हो, वैष्णव साधना हो, यदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं हो, तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है, यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी दीक्षा
भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो 'ह्रीं' बीज मंत्र धारिणी हैं, वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता है, परन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी हो, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों, या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, तथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा
भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते है, जब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, व्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती है, और बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंत, निर्भय आ जा सकता है, ये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

धूमावती दीक्षा
धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो, या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है, और फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

बगलामुखी दीक्षा
यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वी, प्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

मातंगी दीक्षा
आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवत, ठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता है, तो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती है, रूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता है, उसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

कमला दीक्षा
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान है, उस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैं, उनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक है, क्योंकि कीर्ति, मति, द्युति, पुष्टि, बल, मेधा, श्रद्धा, आरोग्य, विजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय है, साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ है, वस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता है, और एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि दीक्षा कोई जादू नहीं है, कोई मदारी का खेल नहीं है, कि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार है, जिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता है, अज्ञान, पाप और दारिद्र्य का नाश होता है, ज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती है, उसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता है, तो गुरु को भी प्रसनता होती है, कि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते है, जिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैं, ऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।

- नवम्बर ९८ , मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

गुरुवार, 19 मार्च 2009

भैरव और कापालिक

मनाली से चालीस किलोमीटर दूर अव्यय पहाड़ प्रसिद्द है। एक बार हम सब उसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हुए थे। स्वामी जी (मेरे गुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी जब वे संन्यस्त थे) दैनिक पूजा संपन्न कर गुफा से बाहर निकले ही थे कि हम सबको देखकर उन्होनें आशीर्वचन कहा। तभी उनकी दृष्टी एक कापालिक पर पडी, जो कि हम सब शिष्यों के पीछे एक कोने में बैठा हुआ था। ललाट पर सिंदूर का बड़ा-सा तिलक, बलिष्ठ शरीर, ताम्बे जैसा रंग, लम्बी और रक्तिम आँखें और सुदृढ़ स्कंध।

स्वामी जी ने पूछा, "यह कौन है?" फिर उसकी और मुखातिब होकर बोले, "कापालिक हो?"
उसने खड़े होकर हाथ जोड़े और बोला, "कापालिक ही नहीं भैरव हूं! साक्षात् भैरव।"

स्वामी जी हंस दिए, बोले, "भैरव तो कुछ और होता है। तू तो भीख मांगने वाला और नरमुंड खाने वाला कापालिक ही हो सकता है।"

इतना सुनते ही उसकी त्यौरियां चढ़ गई। यह पहला मौका होगा, जब किसी ने उसके सामने इतनी कठोर बात कही। वह उठ खडा हुआ उसकी आंखों से रक्त की बूंदे टप-टप टपक पड़ीं।

स्वामी जी ने कहा, "उत्तेजित होने कि जरूरत नहीं। तू जो कुछ कर रहा है मैं समझ रहा हूं और मैंने वर्षों पूर्व यह सब-कुछ करके छोड़ दिया है। अपने-आप में दर्प करना ठीक नहीं। कापालिक को तो सीखना चाहिए और अपने जीवन में भगवान् रुद्र के अवतार भैरव को हृदयस्थ करना चाहिए।"

हमने अनुभव किया कि कापालिक कुछ वामाचारी क्रिया संपन्न कर रहा है और इसलिए अपने नेत्रों से रक्त की बूंदे प्रवाहित कर रहा है, पर इससे स्वामी जी बिल्कुल विचलित नहीं हुए। लगभग दस मिनट बीत गए। उस पहाडी पर बिल्कुल निस्तब्धता थी। सुई भी गिरती तो आवाज सुनाई दे सकती थी। तभी गुरुदेव ने मौन भंग किया, बोले, "कापालिक, ऐसी छोटी और मामूली मारण क्रियायें मेरे ऊपर लागू नहीं होंगी, बेकार अपना समय बरबाद कर रहा है। तू कहे तो मैं तेरे आराध्य को यहीं पर प्रकट कर सकता हूं।"

कापालिक ने एक क्षण के लिए गुरुदेव को देखा, और अनुभव किया कि वास्तव में ही उसकी मारण क्रियायों का कोई भी प्रभाव स्वामी जी पर नहीं पड़ रहा। यही नहीं, अपितु वह सामने खडा व्यक्ति तो कह रहा हैं कि यदि कहो तो आराध्य काल भैरव को प्रकट किया जाए।

कापालिक ने कहा, "आप मेरे इष्ट, 'काल भैरव' के दर्शन करा देंगे?"
"अवश्य। यदि तू चाहेगा तो अवश्य दर्शन होंगे।"

कापालिक घुटनों के बल झुक गया जैसे उसने पूज्य गुरुदेव कि अभ्यर्थना की हो। तभी स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी के मुंह से भैरव ध्यान स्वतः उच्चारित हो गया -

फूं फूं फुल्लारशब्दो वसति फणिपतिर्जायते यस्य कंठे।
डिं डिं डिन्नातिडिन्नं कलयति डमरू यस्य प्राणौ प्रक्म्पम।
तक तक तन्दातितन्दान घिगीती गीर्गीयते व्यम्वाग्मिः
कल्पान्ते तांडवीय सकलभयहरो भैरवो नः स पायात ॥


और तभी एक भीमकाय तेज पुंज पुरुषाकृति साकार हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं काल ही पुरूष रूप में साकार हो गया हो। सारे शरीर से तेजस्वी किरणें निकल रही थीं, और ऐसा लग रहा था जैसे उस जंगल में उनचास पवन प्रवाहित होने लग गए हैं। पहाड़ स्वयं थरथराने-सा लग लगा और प्रचंड वेग से आंधी बहने लगी। हमारे देखते-देखते उस पहाड़ पर कई पेड़ जड़ सहित उखड कर गिरने लगे। सूर्य का ताप जरूरत से ज्यादा बढ़ गया और हम सब उस व्यक्तित्व के तेजस-ताप से झुलसने लगे।

यह स्थिति लगभाग एक या डेढ़ मिनट रही होगी, परन्तु यह एक मिनट ही अपने-आप में एक वर्ष के समान लगा। हम सब काल भैरव को साक्षात् अपने सामने देख रहे थे। इतनी भयंकर, तेजस्वी और अद्वितीय पुरुषाकृति पहली बार ही हमारे सामने उपस्थिति थी।

कुछ ही क्षणों में वह पुरुषाकृति शून्य में विलीन हो गई, पर्वत का थरथराना स्वतः रूक गया और वायु पुनः धीरे-धीरे बहने लगी।

(गुरुदेव के और भी काफी कथाएं आपको "हिमालय के योगियों की गुप्त सिद्धियां" बुक में पढ़ने मिलेगी। यह पुस्तक आपको किसी भी बुक स्टाल में मिलनी चाहिए। - Published by Hind Pocket Books, Author - Dr. Narayan Dutt Shrimaliji)

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

तंत्र की दृष्टी में होली एक विशेष पर्व

तंत्र के आदि गुरु भगवान् शिव माने जाते है और वे वास्तव में देवों के देव महादेव है। तंत्र शास्त्र का आधार यही है की व्यक्ति का ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाये और उसका कुण्डलिनी जागरण हो तथा तृतीय नेत्र (Third Eye) एवं सहस्रार जागृत हो।

भगवान् शिव ने प्रथम बार अपना तीसरा नेत्र फाल्गुन पूर्णिमा होली के दिन ही खोला था और कामदेव को भस्म किया था। इसलिए यह दिवस तृतीय नेत्र जागरण दिवस है और तांत्रिक इस दिन विशेष साधना संपन्न करते है जिससे उन्हें भगवान् शिव के तीसरे नेत्र से निकली हुई ज्वाला का आनंद मिल सके और वे उस अग्नि ऊर्जा को ग्रहण कर अपने भीतर छाये हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह-माया के बीज को पूर्ण रूप से समाप्त कर सकें।

होली का पर्व पूर्णिमा के दिन आता है और इस रात्रि से ही जिस काम महोस्तव का प्रारम्भ होता है उसका भी पूरे संसार में विशेष महत्त्व है क्योंकि काम शिव के तृतीय नेत्र से भस्म होकर पुरे संसार में अदृश्य रूप में व्याप्त हो गया। इस कारण उसे अपने भीतर स्थापित कर देने की क्रिया साधना इसी दिन से प्रारम्भ की जाती है। सौन्दर्य, आकर्षण, वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि से संबन्धित विशेष साधनाएं इसी दिन संपन्न की जाती है। शत्रु बाधा निवारण के लिए, शत्रु को पूर्ण रूप से भस्म कर उसे राख बना देना अर्थात अपने जीवन की बाधाओं को पूर्ण रूप से नष्ट कर देने की तीव्र साधनाएं महाकाली, चामुण्डा, भैरवी, बगलामुखी धूमावती, प्रत्यंगिरा इत्यादि साधनाएं भी प्रारम्भ की जा सकती हैं तथा इन साधनाओं में विशेष सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।

काम जीवन का शत्रु नहीं है क्योंकि संसार में जन्म लिया है तो मोह-माया, इच्छा, आकांक्षा यह सभी स्थितियां सदैव विद्यमान रहेंगी ही और इन सब का स्वरुप काम ही हैं। लेकिन यह काम इतना ही जाग्रत रहना चाहिए कि मनुष्य के भीतर स्थापित शिव, अपने सहस्रार को जाग्रत कर अपनी बुद्धि से इन्हें भस्म करने की क्षमता रखता हो।

और फिर होली का पर्व ... दो महापर्वों के ठीक मध्य घटित होने वाला पर्व! होली के पंद्रह दिन पूर्व ही संपन्न होता है, महाशिवरात्रि का पर्व और पंद्रह दिन बाद चैत्र नवरात्री का। शिव और शक्ति के ठीक मध्य का पर्व और एक प्रकार से कहा जाएं तो शिवत्व के शक्ति से संपर्क के अवसर पर ही यह पर्व आता है। जहां शिव और शक्ति का मिलन है वहीं ऊर्जा की लहरियां का विस्फोट है और तंत्र का प्रादुर्भाव है, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई। यह विशेषता तो किसी भी अन्य पर्व में सम्भव ही नहीं है और इसी से होली का पर्व का श्रेष्ठ पर्व, साधना का सिद्ध मुहूर्त, तांत्रिकों के सौभाग्य की घड़ी कहा गया है।

प्रकृति मैं हो रहे कम्पनों का अनुभव सामान्य रूप से न किया जा लेकिन महाशिवरात्रि के बाद और चैत्र नवरात्रि के पहले - क्या वर्ष के सबसे अधिक मादक और स्वप्निल दिन नहीं होतें? ... क्या इन्हीं दिनों में ऐसा नहीं लगता है कि दिन एक गुनगुनाहट का स्पर्श देकर चुपके से चला गया है और सारी की सारी रात आखों ही आखों में बिता दें ... क्योंकि यह प्रकृति का रंग है, प्रकृति की मादकता, उसके द्वारा छिड़की गई यौवन की गुलाल है और रातरानी के खिले फूलों का नाशिलापन है। पुरे साल भर में यौवन और अठखेलियां के ऐसे मदमाते दिन और ऐसी अंगडाइयों से भरी रातें फिर कभी होती ही नहीं है और हो भी कैसे सकती हैं ....

तंत्र भी जीवन की एक मस्ती ही है, जिससे सुरूर से आंखों में गुलाबी डोरें उतर आते हैं, क्योंकि तंत्र का जानने वाला ही सही अर्थ में जीवन जीने की कला जानता है। वह उन रहस्यों को जानता हैं जिनसे जीवन की बागडोर उसके ही हाथ में रहती है और उसका जीवन घटनाओं या संयोगों पर आधारित न होकर उसके ही वश में होता है, उसके द्वारा ही गतिशील होता है। तंत्र का साधक ही अपने भीतर उफनती शक्ति की मादकता का सही मेल होली के मुहूर्त से बैठा सकता है और उन साधनाओं को संपन्न कर सकता है, जो न केवल उसके जीवन को संवार दे बल्कि इससे भी आगे बढ़कर उस उंचे और उंचे उठाने में सहायक हो।

इस साल यह होली पर्व मार्च में संपन्न हो रहा है। जो भी अपने जीवन को और अपने जीवन से भी आगे बढ़कर समाज व् देश को संवारने की इच्छा रखते है, लाखों-लाख लोगों का हित करने, उन्हें प्रभावित करने की शैली अपनाना चाहते है, उनके लिए तो यही एक सही अवसर है। इस दिन कोई भी साधना संपन्न की जा सकती है। तान्त्रोक्त साधनाएं ही नहीं दस महाविद्या साधनाएं, अप्सरा या यक्षिणी साधना या फिर वीर-वेताल, भैरवी जैसी उग्र साधनाएं भी संपन्न की जाएं तो सफलता एक प्रकार से सामने हाथ बाँध खड़ी हो जाती है। जिन साधनाओं में पुरे वर्ष भर सफलता न मिल पाई हो, उन्हें भी एक एक बार फिर इसी अवसर पर दोहरा लेना ही चाहिए।

इस प्रकार होली लौकिक व्यवहार में एक त्यौहार तो है लेकिन साधना की दृष्टी से यह विशेष तंत्रोक्त-मान्त्रोक्त पर्व है जिसकी किसी भी दृष्टी से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। साधक को इस दिन किसी न किसी साधना का संकल्प अवश्य ही लेना चाहिए। और यदि सम्भव हो होली से प्रारम्भ कर नवरात्री तक साधना को पूर्ण कर लेना चाहिए।

- 'फरवरी' २००४ मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मंत्र शक्ति

भगवान् राम के पूर्वज सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन का एक प्रसंग है - एक बार लंका नरेश रावण, राजा हरिश्चंद्र की तपश्चर्या से प्रभावित होकर उनके दर्शन करने आया।

राजमहल के द्वार पर पहुंचकर रावण ने द्वारपाल को अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा - 'मैंने राजा हरिश्चंद्र की तपस्या और मंत्र साधना के विषय में काफी प्रशंसा सूनी है, मैं उनसे कुछ सीखन की कामना लेकर आया हूं।'

द्वारपाल ने रावण को उत्तर दिया - 'हे भद्र पुरूष! आप निश्चय ही हमारे राजा से मिल सकेंगे, किन्तु अभी प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि अभी वे अपनी साधना कक्ष में साधना, उपासना आदि कर रहे हैं।'

कुछ समय बाद द्वारपाल रावण को साथ लेकर राजा के पास गया। रावण ने झुककर प्रणाम किया और राजा हरिश्चंद्र से अपने मन की बात कही, की वह उनसे साधनात्मक ज्ञान लाभ हेतु आया है।

वार्तालाप चल ही रहा था, की एकाएक राजा हरिश्चंद्र का हाथ तेजी से एक ओर घुमा। पास रखे एक पात्र से उन्होंने अक्षत के कुछ दानें उठाएं और होठों से कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदाते हुए बड़ी तीव्रता से एक दिशा में फ़ेंक दिए। रावण एकदम से हतप्रभ रह गया, उसने पूछा -

'राजन! यह आपको क्या हो गया था?'

राजा हरिश्चंद्र बोले - 'यहां से १४० योजन दूर पूर्व दिशा में एक हिंसक व्याघ्र ने एक गाय पर हमला कर दिया था, और अब वह गाय सुरक्षित है।' रावण को बड़ा अचरज हुआ, वह बिना क्षण गवाएं इस बात को स्वयं जाकर देख लेना चाहता था। चलते-चलते रावण जब उस स्थल पर पहुंचा, तो देखा की रक्तरंजित एक व्याघ्र भूमि पर पडा है। व्याघ्र को अक्षत के वे दाने तीर की भांति लगे थे, जिससे वह घायल हुआ था। राजा हरिश्चंद्र की मंत्र शक्ति का प्रमाण रावण के सामने था।

आज भी मंत्रों में वही शक्ति है, वही तेजस्विता है, जो राजा हरिश्चंद्र के समय थी। आवश्यकता है, तो मनःशक्ति को एकाग्र करने की, पूर्ण दृढ़ता के साथ मंत्रों का ह्रदय से उच्चारण करने की।

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जनवरी २००९