रविवार, 17 फ़रवरी 2008

मंत्र शक्ति और प्रभाव - उनके नियम

मंत्र शक्ति आज के युग में भी पूर्ण सत्य एवं प्रत्येक कसौटी पर खरी है

हमारे ऋषियों ने जब वेद और मंत्रों की रचना की तो उनका उद्देश्य मंत्र और साधना को जीवन में जोड़ना था। ऋषि केवल साधना करने वाले अथवा जंगलों में आश्रम बनाकर रहने वाले व्यक्ति नही थे, वे उस युग के वैज्ञानिक, चिकित्सक, अध्यापक, राजनीतिज्ञ, कलाकार व्यक्तित्व थे। उन्होंने जो लिखा वह पूर्ण शोध और अनुसंधान से युक्त था।

किसी भी मंत्र का अभ्यास करते समय यदि कुछ नियमों का पालन किया जाये, तो साधक को सफलता निश्चित रूप में मिल सकती है -

  • सर्वप्रथम आपने जिस मंत्र का भी चयन किया है, उसकी सम्पूर्ण साधना-प्रक्रिया की जानकारी होना नितांत आवश्यक है। यह सत्य है की साधनाओं की जो शास्त्र वर्णित विधि है, उसमे रंचमात्र त्रुटी भी विनाशकारी हो सकती है, साथ ही इस शास्त्र वर्णित विधि में किसी प्रकार का संशोधन स्वयं करना भी उचित नहीं है।

  • वैसे अधिकतर साधनाओं में पूर्ण शुद्धता, सात्विकता तथा प्राण प्रतिष्ठित सामग्री के प्रयोग का विधान होता है, जबकि कुछ साधनाओं जैसे कर्णपिशाचिनि साधना, घन्टाकर्ण साधना, स्वप्न कर्णपिशाचिनि साधना तथा श्मशान में की जाने वाली समस्त प्रकार की साधनाओं में कुछ क्रियाओं का निषेध व कुछ का विशेष विधान है। इस प्रकार मंत्र साधना की असफलता का सर्वप्रथम कारण सही विधि का निर्धारित ज्ञान न होना है।

  • एक अन्य ध्यान देने योग्य विषय है - मंत्र का सही व शुद्ध उच्चारण। किसी भी मंत्र का जप प्रारम्भ करने से पूर्व समस्त संधियों को अच्छी प्रकार समझ लें। उच्चारण शुद्ध न होने पर मंत्र शक्ति का वांछित लाभ प्राप्त नहीं होता। मंत्र का जप पूर्ण स्पष्ट व दृढ़ स्वर में किया जाना चाहिए।

  • जहा तक संभव हो, पूजा-स्थल एकांत में होना चाहिये, जहां की साधना काल में कोई व्यवधान न पड़े।

  • एक बात सदैव याद रखें, की जिस किसी भी मंत्र का जप आप करते हैं, तो उस पर आस्था, पूर्ण विश्वास रखें। यदि आपको मंत्र और इसकी शक्ति में लेश मात्र भी शंका है व इसकी शक्ति पर पूर्ण आस्था नहीं है, तो आप निर्धारित जप संख्या का दस गुना रूप भी कर लें, तब भी यह निष्फल ही रहेगा।

  • मंत्र के उच्चारण के समय को एकाग्र रखने की परम आवश्यकता होती है। यदि मंत्र जपते समय विचार स्थिर है, ध्यान पूर्ण एकाग्र है और मंत्र की शक्ति पर पूर्ण आस्था है, तो असफलता का कोई कारण निर्मित ही नहीं होता है।

  • मंत्र जप आरम्भ करते समय पहले से ही साधना का उद्देश्य मन में रहना चाहिए। साधना के उद्देश्य को बराबर परिवर्तित करना सर्वथा अनुचित है।

  • उद्देश्य के साथ ही जप जप की संख्या का संकल्प भी प्रारम्भ में लेना चाहिये। जप की संख्या को पहले दिन से दूसरे दिन अधिक किया जा सकता है, किन्तु इसे कभी भी घटाना नहीं चाहिये। अपवाद स्वरुप एक-दो प्रकार की साधनाओं को छोड़कर।

  • एक ही मंत्र का जप लगातार करने से सम्बन्धित शक्ति जाग्रत रहती है। थोड़े समय तक एक मंत्र छोड़ देने और नये मंत्र प्रारंभ करने से पहले वाले मंत्र की शक्ति का ह्रास तो होता ही है और नये मंत्र को आपको फिर नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है। पहले एक मंत्र को सिद्ध करना चाहिये, उसके पश्चात किसी अन्य को। एक मंत्र सिद्ध कर लेने पश्चात किसी दूसरे मंत्र को सिद्ध करना पहले मंत्र की तुलना में ज्यादा सरल होता है।

  • ज्यों-ज्यों आपकी साधना का स्तर बढ़ता जायेगा, सिद्धि की दुरुहता स्वतः ही कम होती जायेगी। किसी भी मंत्र की सिद्धि हेतु अव्रुतियों की जो शास्त्र वर्णित संख्या होती है, वह पहले से ही साधना की उत्तम पृष्ठभूमि रखने वाले साधकों के लिए ही मान्य है, नये साधक को इसका तिन गुना, चार गुना या इससे भी अधिक जप करना पड़ सकता है।

  • अंत में एक महत्वपूर्ण व ध्यान देने योग्य बात है की मंत्र साधना सही मुहूर्त में की जानी चाहिये। विभिन्न साधनाओं के लिए विभिन्न मुहूर्त निर्धारित है।
...किन्तु मुहूर्त की जटिलताओं से बचने के लिए कुछ मुहूर्त जिनको निश्चित रूप से समस्त साधनाओं हेतु उत्तम माना गया है, वे हैं - होली, दिपावली, शिवरात्री, नवरात्री। आप जिस किसी मंत्र का जप आरम्भ करना चाहते है, उसे इन अवसरों पर निर्धारित संख्या में जप कर उसका दशांश हवन कर लें।
इसके पश्चात् अपनी सुविधा के अनुसार जप कर सकते है। वैसे तो वर्षभर जप करना श्रेष्ठ है, किन्तु एक बार सिद्ध करने के पश्चात ११, २१, ५१ या १०८ की संख्या में जप करने से भी तुरन्त मनोवांछित फल प्राप्त होता है। आप किसी भी मंत्र का जप करते है, उसे वर्ष में एक बार उपरोक्त वर्णित अवसरों पर जाग्रत अवश्य करना चाहिये।
  • वैसे तो प्रत्येक साधना अपने-आप में अत्यन्त जटिल होती है, किन्तु यदि इन जटिलताओं से साधक बचना चाहे, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है - 'योग्य गुरु का आश्रय प्राप्त करना'। गुरु के निर्देशानुसार साधना करते समय साधना की सफलता की संभावना शतप्रतिशत रहती है।
- सदगुरुदेव डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

हमे तो सदगुरु से यही प्रार्थना करनी चाहिऐ

सदगुरु तुम्हारी रीत है निराली,
सजदा किया मिल गयी प्रेम-प्याली

प्रभु, मेरे गुरुदेव! मै यह भूलूं नहीं, कि तुम सदैव मेरे ह्रदय में निवास करते हो, तुम्हीं मेरे जीवन के सूत्रधार हो। इस क्षण-क्षण बदलने वाले, पल-पल बनने-मिटने वाले संसार में जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ भी सामने आ रहा है, जो कुछ भी हिल-डुल रहा है और फिर आंखों से ओझल हो रहा है, वह सारा ही तुम्हारी सत्ता से अनुप्राणित है, स्पन्दित है। मेरा मन-प्राण तुम में ही निवास करे और मेरा ऐसा ही ज्ञान, ऐसी ही चेतना बनी रहे कि तुम्हारी इच्छा के सिवा मेरी कोई इच्छा नहीं, कोई गति नहीं, कोई चिन्तन नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई शरण नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। यह शरीर तो मृत पिंड है, यह सजीव इसलिए दिखाई दे रहा है कि तुम इसमे बसे हुए हो।

ओ मेरे गुरुवर, मेरे प्राणाधार! मैं अपने ह्रदय में सतत तुम्हारा आलिंगन-रस पान करता रहूं, जो कुछ करूं तुम्हारी प्रेरणा और संकेत से। तुम्ही मेरे द्वारा अपना-कार्य करो, मेरे ह्रदय में तुम्हारा ही प्रेम विराजे, तुम्ही प्रेम रूप में विराजो। मेरी बुद्धि में तुम्हीं प्रकाश रूप में बने रहो, मेरे मस्तिष्क में तुम्हीं विचार रूप में रहो, मेरे समस्त अंहकार को अपने में डूबा लो, प्रभु मेरे अन्दर तुम्हारे सिवा कुछ भी रह न जाय, तुम्हीं - तुम रम जाओ।

हे सर्व समर्थ स्वामिन। आपकी कृपा से मैं कहीं भी पहुंच जाऊं, तुम से एकाकार होकर तुम्हारी ही तरह हो जाऊं, परन्तु भूलकर भी मैं यह न मान बैठू कि मैं तुम्हारे सदृश हूं। मैं हूं ही क्या? एक तुच्छ, नगण्य, नाचीज, जो अपनी एक-एक सांस के लिए तुम्हारी कृपा पर अवलंबित है। तुम्हारे अनन्त महासागर के सम्मुख इस कण कि क्या हस्ती है?

प्रभु! मेरा अंहकार तुम ले लो, हे श्रद्धेय, दयामय गुरुवर! मुझे नम्रता, सौम्यता प्रदान करों। तुम्हारी इच्छा मेरे जीवन में पूर्ण हो, तुम्हारी जो इच्छा हो, वही मेरे भीतर-बाहर हो। तुम्ही मेरी साधना हो, तुम्हीं मेरे भीतर सिद्ध होकर अपनी इच्छा पूर्ण करो।

हे नाथ! इस त्रिताप-संन्तप्त संसार में मुझे रखा ही है तो मुझे मेरा मनोवांछित जीवन प्रदान करो। ऐसा हो मेरा जीवन -

बुद्धेनाष्ठ लीना नतेन शिरसा गात्रं सरोमोदगमैः।
काठिन्येन सगददेन नयनोदगीर्णेन वांष्पाम्बुना॥
नित्यं त्वाच्चरणारविन्द्र युगलम ध्यानामृता स्वदिना।
अस्माकं सरसिरुहाक्षम सततं सम्पद हिमम जीवितं॥

हे गुरुदेव। मेरे दोनों हाथ बंधे हुए हो, मस्तक झुका हुआ हो और सारे शरीर में रोमाञ्च हो रहा हो, अंग-प्रत्यंग पुलकित हो रहा हो, मैं आपके चरणों में पूर्ण समर्पित होकर गद-गद कंठ से पार्थना करता रहूं और नेत्रों से आसुओं कि वर्षा हो रही हो। तुम्हारे युगल चरण-कमलों के ध्यानामृत का नित्य ही पान करता रहूं। गुरुवर मेरी यही एकमात्र प्रार्थना है। ऐसा जीवन मुझे सतत प्रदान करो।

मैंने आकर संसार में धर्म अपना निभाया है,
इसी डगर पे चलकर अब मंजिल पाना है तुम्हे।
मैंने जला दी ज्ञान कि चिंगारी अब तेरे अन्दर
इस चिंगारी को शोला बनाना है तुम्हे।

गुरु वचन

मैंने दे दिया तुझको वह दीप जो मेरे पास था,
इस दीप को हर दिल में जलाना है तुम्हे।
मेरे पास जो भी है उस पर हक है तुम्हारा,
मैं बाहें फैलाये खडा हूं, आवाज दे रहा हूं तुम्हें।
हमेशा नहीं कह पाउँगा ये बाते जो कहानी थी तुम्हे।

गुरु वचन