रविवार, 28 जून 2009

मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर ...

गुरु पूर्णिमा पर सदगुरुदेव ने आहवान किया था

यह शिष्य पूर्णिमा है

मैं तुम्हारें पिछले कई जन्मों का साक्षीभूत हूं
मैंने अपना खून देकर तुम्हें सींचा है
मैं तुम्हारा हर दृष्टी से रखवाला हूं


यह पर्व सही अर्थों में गुरु का पर्व है ही नहीं, यह तो शिष्य पर्व है, इसे शिष्य पूर्णिमा कहा जाता है, क्योंकि यह शिष्य के जीवन का एक अन्तरंग और महत्वपूर्ण क्षण है। यह उसके लिए उत्सव का आयोजन है, यह मन की प्रसन्नता को व्यक्त करने का त्यौहार है, यह ऐसा पर्व है, जो जीवन की प्रफुल्लता, मधुरता और समर्पण के पथ पर गुरु के चरण चिह्न अंकित कर अपने आप को सौभाग्यशाली मानता है।

यदि तुम मेरे आत्मीय हो, मेरे प्राणों के घनीभूत हो, मेरे जीवन का रस और चेतना हो तो यह निश्चय ही तुम्हारे लिए उत्सव, आनन्द और सौभाग्य का पर्व है, क्योंकि शिष्य अपने जीवन की पूर्णता तभी पा सकता है, जब वह गुरु ऋण से उऋण हो जाय। मां ने तो केवल तुम्हारी देह को जन्म दिया, पर मैंने उस देह को संस्कारित किया है, उसमें प्रानश्चेतना जाग्रत की है, उस तेज तपती हुई धुप में वासंती बहार का झोंका प्रवाहित किया है, मैंने तपते हुए भूखण्ड पर आनन्द के अमिट अक्षर लिखने की प्रक्रिया की है, और मैंने तुम्हे पुत्र शब्द से भी आत्मीय प्राण शब्द से संबोधित किया है।

और यह गुरु के द्वारा ही सम्भव हो सका है, यह इस जीवन का ही नहीं, कई-कई जन्मों का लेखा-जोखा है। मैं तुम्हारें इस जन्म का साक्षीभूत गुरु ही नहीं हूं, अपितु पिछले २५ जन्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब मेरे पास है, और हर बार मैंने तुम्हें आवाज दी है, और तुमने अनसूनी कर दी है, हर बार तुम्हारे प्राणों की चौखट पर दस्तक दी है, और हर बार तुम किवाड़ बंद करके बैठ गए हो, हर बार तुम्हें झकझोरने का, जाग्रत करने का, चैतन्यता प्रदान करने का प्रयास किया है, और हर बार तुमने अपना मुंह समाज की झुरभुरी रेत में छिपाकर अनदेखा, अनसुना कर दिया है।

पर यह कब तक चलेगा, कितने-कितने जन्मों तक तुम्हारी यह चुप्पी, तुम्हारी यह कायरता, तुम्हारी यह बुजदिली मुझे पीडा पहुंचाती रहेगी, कब तक मैं गला फाड़-फाड़ कर आवाजें देता रहूंगा और तुम अनसुनी करते रहोगे, कब तक मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर सिद्ध योगा झील के किनारे ले जाने का प्रयास करूंगा और तुम हाथ छुडाकर समाज की उस विषैली वायु में साँस लेने के लिए भाग खड़े जाओगे, ऐसा कब तक होगा? इस प्रकार से कब तक गुरु को पीडा पहुंचाते रहोगे, कब तक उसके चित्त पर अपने तेज और नुकीले नाखूनों से घाव करते रहोगे, कब तक उसके प्राणों को वेदना देते रहोगे?

मैंने तुम्हें अपना नाम दिया है, और इससे भी बढ़ कर मैंने तुम्हें अपना पुत्र और आत्मीय कहा है, अपना गोत्र (निखिल गोत्र) तुम्हें प्रदान किया है और अपने जीवन के रस से सींच-सींच कर तुम्हारी बेल को मुरझाने से बचाने का प्रयास किया है, तुम्हारी सूखी हुई टहनियों में रस प्रदान करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है, और मेरा ही यह प्रयत्न है, की इन सूखी हुई टहनियों में फिर नई कोपलें आवें, फिर वातावरण सौरभमय बने, मैंने अपने जीवन के प्रत्येक कषक को इसके लिए लगाया है, अपनी जवानी को हिमालय के पत्थरों पर घिस-घिस कर तुम्हें अमृत पिलाने का प्रयास किया है, तुम्हारें प्रत्येक जन्म में मैंने चेतना देने की कोशिश की है, और हर बार तुम्हारे मुरझाये हुए चहरे पर एक खुशी, एक आहलाद एक चमक प्रदान करने का प्रयास किया है।

पर यह सबकुछ यों ही नहीं हो गया, इसके लिए मुझे तुमसे भी ज्यादा परिश्रम करना पडा है। मैंने अपने शरीर की बाती बना कर तुम्हारे जीवन के अंधकार में रोशनी बिखरने का प्रयत्न किया है, अपने प्राणों का दोहन कर उस अमृत जल से तुम्हारी बेल सींचने का और हरी-भरी बनाए रखने का प्रयास किया है, तिल-तिल कर अपने आप को जलाते हुए भी, तुम्हारे चहरे पर मुस्कराहट देने की कोशिश की है , और मेरा प्रयेक क्षण, जीवन का प्रत्येक चिन्तन इस कार्य के लिए समर्पित हुआ है, जिससे कि मेरे मानस के राजहंस अपनी जाति को पहचान कर सकें, अपने स्वरुप से परिचित हो सकें, अपने गोत्र से अभिभूत हो सकें और मेरे ह्रदय के इस मान सरोवर में गहराई के साथ दुबकी लगाकर लौटते समय मोती ले सकें।

... और यह हर बार हुआ है, और यह पिछले जन्मों से होता रहा है, क्योंकि मैं हर क्षण तुम्हारे लिए ही प्रयत्न किया है, मेरा जीवन अपने स्वयं के लिए या परिवार के लिए नहीं है, मेरा जीवन का उद्देश्य तो शिष्यों को पूर्णता देने का प्रयास है, और इसके लिए मैं सिद्धाश्रम जैसा आनन्ददायक और अनिर्वचनीय आश्रम छोडा और तुम्हारें इन मैले-कुचैले, गलियारों में आकर बैठा, जो वायुवेग से एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने के लिए सक्षम था, उसे तुम्हारें लिए अपने आप को एक छोटे से वाहन में बंद कर लिया, जिसका घर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड था, और किसी भी ग्रह या लोक में विचरण करता हुआ जो निरंतर आनंदयुक्त था, उसने तुम्हारे लिए अपने आप को एक छोटे से घर में आबद्ध, तुम्हारें लिए इस समाज से जूझा, आलोचनाएं सुनीं, गालियां खाई, और कई प्रकार के कुतर्कों का सामना किया, यह सब क्यों? क्या जरूरत थी यह सब सहन करने कि, झेलने की, भुगतने की?

और मैंने ऐसा किया, प्रत्येक क्षण इस बात के लिए कृत संकल्प था, और हूं कि मैं तुम्हें समाज में गर्व से सर तानकर खडा रहने की प्रेरणा दूं? मैं तुम्हें इस गन्दगी से भरे समाज में देवदूत बनाकर खडा कर सकूं, तुम्हारी आखों में एक चमक कर सकूं, तुम्हारे पंखों में इतनी ताकत दे सकूं, कि तुम आकाश से सुदूर ऊंचाई पर बिना थके पहुँच सको, और इस ब्रम्हत्व का, आनन्द ले सको, मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर रंग बिखरने के लिए तैयार कर सकूं, जहां विस्तृत आकाश हो, जहां आनन्द की शीतल बयार हो, जहां पूर्णता और सिद्धियाँ जयमाला लिए तुम्हारें गले में डालने के लिए उद्यत और उत्सुक हों।

और यह सब बराबर हो रहा है, तुमने अपने आपको पहली बार पहचानने का प्रयत्न किया है, पहली बार यह अहसास किया है, कि तुम संसार में अकेले नहीं हो, कोई तुम्हारा रखवाला अवश्य है, जो तुम्हारें जीवन की बराबर चौकीदारी कर रहा है, कोई ऐसा व्यक्तित्व तुम्हारे जीवन में अवश्य है, जिसे अपनी चिंताएं, परेशानियां और समस्याएं खुशी-खुशी देकर अपने आपको हल्का कर सकते हो, और मुझे तुम जो दे रहे हो, उससे मुझे प्रसन्नता है।

क्योंकि मैं तुम्हारें साथ हूं, क्योंकि तुम्हारें पांव मेरे पाव के साथ आगे बढ़ रहे है, क्योंकि मैं तुम्हारें जीवन का ध्यान रखने वाला, तुम्हारे जीवन को आल्हाद कारक बनाने वाला और तुम्हारें जीवन का प्रत्येक क्षण का हिसाब-किताब रखने वाला हूं।

मैं इन सबके लिए गुरु पूर्णिमा पर आवाज दे रहा हूं, क्योंकि यह तुम्हारा स्वयं का पर्व है। यदि शिष्य है, यदि सही अर्थों में वह मेरी आत्मा का अंश है, यदि सही अर्थों में मेरी प्राणश्चेतना है, तो उसके पाव किसी भी हालत में रूक नहीं सकते, समाज उसका रास्ता रोक नहीं सकता, परिवार उसके पैरों में बेडिया डाल नहीं सकता, वह तो हर हालत में आगे बढ़ कर गुरु चरणों मेर, मुझ में एकाकार होगा ही, क्योंकि यह एकाकार होना ही जीवन की पूर्णता है, और यदि ऐसा नहीं हो सका तो वह शिष्यता ही नहीं है, वह तो कायरता है, बुजदिली है, कमजोरी है, नपुंसकता है, और मुझे विश्वास है, कि मेरे शिष्यों के साथ इस प्रकार घिनौने शब्द नहीं जुड़ सकते ।

तुम्हारा अपना
निखिलेश्वरानंद

गुरु पूर्णिमा पर्व पर बोकारो में पूरा परिवार आपका स्वागत करने के लिए तत्पर है, हम उस साधना की गंगा में आत्म स्नान करेंगे, उस पवित्र मार्ग पर कुछ कदम बढाएंगे जो सिद्धाश्रम की ओर जाता है, वही तो जीवन का लक्ष्य है।
साधना कि शिविर कि जानकारी के लिए संपर्क करें -http://issp-shivirs.blogspot.com/

गुरुवार, 18 जून 2009

ज्ञान वही है, जो व्यवहार में काम आए

आचार्य बहुश्रुत के पास कई शिष्य रहते थे। उनमें से तीन शिष्यों की विदाई का जब अवसर आया, तब आचार्य ने कहा - कल प्रातः काल मेरे निवास पर आना। कल तुम्हारी आखिरी परीक्षा होगी। फिर तुम्हें घर जाने की अनुमति दूंगा। आचार्य बहुश्रुत ने रात्री में कुटिया के मार्ग पर कांटे बिखेर दिए। नियत समय पर वे तीन शिष्य जिन्हें अंतिम परीक्षा देनी थी, गुरु के निवास की ओर चल पड़े। मार्ग में कांटे बिछे थे लेकिन शिष्य भी कच्चे न थे। कांटे हैं तो क्या हुआ?

गुरु के द्वार पर जाना ही है ... ऐसा सोचकर पहला शिष्य कांटे चुभ रहे थे फिर भी कुटिया तक पहुंच गया और कुटिया के बाहर बैठ गया। दुसरा शिष्य कांटो से बचकर निकल आया फिर भी एकाध कांटा जो चुभ गया उसको शांति से निकाला। तीसरे शिष्य ने आकर देखा तो उसने झाडू ली। पहले बड़े बड़े कांटो को घसीटकर दूर फ़ेंक आया। फिर झाडू से कांटे बुहारकर दूर कर दिया और हाथ-मुंह धोकर कुटिया के पास आया। आचार्य कुटिया में से तीनों की गतिविधि देख रहे थे। जिसने कांटे हटाकर मार्ग साथ-सुथरा कर दिया था वह तीसरा शिष्य ज्यों ही आया, तो आचार्य ने कुटिया के द्वार खोले एवं कहा वत्स, तुम्हारा ज्ञान पूरा हो गया। तुम मेरी अंतिम परीक्षा में पास हो गए।

ज्ञान वही है जो व्यवहार में काम आए। तुम्हारा ज्ञान व्यवहारिक हो गया है। तुम उत्तीर्ण हो गए हो। तुम संसार में रहोगे फिर भी तुम्हें कांटे नहीं लगेंगे और तुम दूसरों को भी कांटे लगने नहीं दोगे वरन कांटे हटाओगे। फिर पहले एवं दुसरे शिष्य की ओर देखकर कहा - तुमको अभी कुछ दिन और आश्रम में रहना पडेगा। ज्ञान प्राप्ति का मतलब केवल पढ़कर या सुनकर उसे रटना नहीं, वरन उसे व्यवहार में लाना है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को जो व्यवहार में लाता है, उसका ज्ञान पाना सार्थक हो जाता है।

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका, सितम्बर २००८,

गुरुवार, 4 जून 2009

उर्वशी साधना - सौन्दर्य, सुख प्रेम की पूर्णता हेतु

रम्भा, उर्वशी और मेनका तो देवताओं की अप्सराएं रही हैं, और प्रत्येक देवता इन्हे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। यदि इन अप्सराओं को देवता प्राप्त करने के लिए इच्छुक रहे हैं, तो मनुष्य भी इन्हे प्रेमिका रूप में प्राप्त कर सकते हैं। इस साधना को सिद्ध करने में कोई दोष या हानि नहीं है तथा जब अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी सिद्ध होकर वश में आ जाती है, तो वह प्रेमिका की तरह मनोरंजन करती है, तथा संसार की दुर्लभ वस्तुएं और पदार्थ भेट स्वरुप लाकर देती है। जीवन भर यह अप्सरा साधक के अनुकूल बनी रहती है, वास्तव में ही यह साधना जीवन की श्रेष्ठ एवं मधुर साधना है तथा प्रत्येक साधक को इस सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

साधना विधान
इस साधना को २१ अप्रैल के पश्चात करना विशेष अनुकूल है। इसके अलावा इसे अक्षय तृतीया या किसी भी शुक्रवार से प्रारम्भ किया जा सकता है। यह रात्रिकालीं साधना है। स्नान आदि कर पीले आसन पर उत्तर की ओर मुंह कर बैठ जाएं। सामने पीले वस्त्र पर 'उर्वशी यंत्र' (ताबीज) स्थापित कर दें तथा सामने पांच गुलाब के पुष्प रख दें। फिर पांच घी के दीपक लगा दें और अगरबत्ती प्रज्वलित कर दें। फिर उसके सामने 'सोनवल्ली' रख दें और उस पर केसर से तीन बिंदियाँ लगा लें और मध्य में निम्न शब्द अंकित करें -

॥ ॐ उर्वशी प्रिय वशं करी हुं ॥

इस मंत्र के नीचे केसर से अपना नाम अंकित करें। फिर उर्वशी माला से निम्न मंत्र की १०१ माला जप करें -
मंत्र
॥ ॐ ह्रीं उर्वशी मम प्रिय मम चित्तानुरंजन करि करि फट ॥

यह मात्र सात दिन की साधना है और सातवें दिन अत्यधिक सुंदर वस्त्र पहिन यौवन भार से दबी हुई उर्वशी प्रत्यक्ष उपस्थित होकर साधक के कानों में गुंजरित करती है कि जीवन भर आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पालन करूंगी।

तब पहले से ही लाया हुआ गुलाब के पुष्पों वाला हार अपने सामने मानसिक रूप से प्रेम भाव उर्वशी के सम्मुख रख देना चाहिए। इस प्रकार यह साधना सिद्ध हो जाती है और बाद में जब कभी उपरोक्त मंत्र का तीन बार उच्चारण किया जाता है तो वह प्रत्यक्ष उपस्थित होती है तथा साधक जैसे आज्ञा देता है वह पूरा करती है।

साधना समाप्त होने पर 'उर्वशी यंत्र (ताबीज)' को धागे में पिरोकर अपने गलें में धारण कर लेना चाहिए। सोनवल्ली को पीले कपड़े में लपेट कर घर में किसी स्थान पर रख देना चाहिए, इससे उर्वशी जीवन भर वश में बनी रहती है।
--- अप्रैल २००५, मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान