गुरुवार, 31 जुलाई 2008

क्या आप ऐसे शिष्य है

शिष्य द्वारा अपने ह्रदय में गुरु को धारण करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु यह तो प्रारम्भ मात्र है, जैसा कि एक बार पूज्य गुरुदेव ने कहा था -

'यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि गुरु को कितने शिष्य याद करते है? यह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि 'गुरु' शब्द को कितने शिष्यों ने अपने ह्रदय-पटल पर अंकित किया है? यह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि कितने शिष्य गुरु सेवा करने की कामना अपने दिल में रखते है? यह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि कितने शिष्य गुरु की प्रसन्नता हेतु सचेष्ट हैं?'

- 'अपितु अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है, कि गुरु कितने शिष्यों को याद करते है'
- 'अपितु अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है, कि गुरु के होठों पर कितने शिष्यों का नाम आता है'
- 'अपितु अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है, कि कितने शिष्यों के नाम गुरु के ह्रदय पटल पर खुदे हुए है'
- 'अपितु अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है, कि गुरु ने किसी शिष्य की सेवा स्वीकार की है'
- 'अपितु अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है, कि गुरु किस शिष्य पर प्रसन्न हुए है'


और गुरु के होठों पर शिष्य का नाम उच्चरित हो, गुरु के ह्रदय पटल पर शिष्य का नाम अंकित हो, गुरु सेवा का अवसर प्राप्त हो तथा शिष्य के कार्यों से गुरु प्रसन्न हो, यह शिष्य-जीवन का परम सौभाग्य है तथा प्रत्येक शिष्य की यही प्राथमिक इच्छा होती है। जिस शिष्य को ऐसा दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त होता है, वह देव तुल्य हो जाता है, उसके जीवन से सभी पाप, दुःख, पीडा समस्याएं आदि दूर हो जाती हैं, अणिमादि सिद्धियां उसके सामने नृत्य करती है, उसका व्यक्तित्व करोड़ों सूर्यों से भी ज्यादा तेजस्वी हो जाता है। गुरु-सेवा, कोई आवश्यक नहीं है, कि शारीरिक रूप से गुरु गृह में रहकर ही संपन्न की जाय, अपितु महत्वपूर्ण गुरु-सेवा यह है, कि शिष्य कितना अधिक गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान से लोगों को लाभान्वित करता है तथा कितने अधिक लोगों को गुरु से जोड़ने का कार्य करता है, निःस्वार्थ, निष्कपट भाव से, लेकिन दोनों ही सेवाएं निस्वार्थ भाव से होनी चाहिए।

2 टिप्‍पणियां: