शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

गुरु भजन


शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग १



चौरासी लाख योनियों में जीव जन्म लेते-लेते अंत में मनुष्य को जन्म मिलता है। मनुष्य योनी में भी जीवन के अनेक रसों, भोगों में लिप्त होने बाद जब उसे जीवन की निःस्सारता का बोध होता है, वहीं क्षण इश्वर के पथ पर, आत्म कल्याण एवं परमानंद के पथ पर बढ़ा पहला कदम होता है। और यही से प्रारंभ होती है उसकी खोज, जो की सदैव से ही ज्ञानियों के लिए विचारणीय विषय रहा है, कि परमात्मा का स्वरुप क्या है?

और जब जीव की पुकार तीव्र हो जाती है, तो प्रभु उसे किसी न किसी रूप में कृतार्थ करते ही हें। और इसीलिए इश्वर का मनुष्य रूप में समय-समय पर अवतार होता रहा है। शास्त्रों में परमात्मा के दशावतारों का विवरण आया है - कूर्मावतार, मत्स्यावतार, वराह अवतार, वामनावतार, नृसिंहावतार, परशुराम अवतार, रामावतार, कृष्णावतार, बुद्धावतार।

अवतारों के इसी क्रम की आगे बढाती श्रृंखला की एक कथा का विवरण 'कल्कि पुराण' के श्लोक क्रं १ से २२ तक आया है। नैमिषारन्य में समस्त अवतारों की कथा-लीला, वार्तालाप महर्षि सूद और शौनकादीऋषियों में चल रही थी और ऋषिश्रेष्ठ सूद जी से शौनक मुनि प्रश्न करते हें, कि बुद्धावतार के बाद कलियुग जब पराकाष्ठा में होगा, तब भगवान् किस शक्ति स्वरुप में जन्म लेंगे? उसका विवरण देते हुए सूत जी बोले - "हे मुनीश्वर ! ब्राह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन पातक को उत्पन्न किया, जिसका नाम रखा गया - 'अधर्म'। अधर्म जब बड़ा हुआ, तब उसका 'मिथ्या' से विवाह कर दिया। दोनों के संयोग से महाक्रोधी पुत्र 'दम्भ' तथा 'माया' नामक कन्या हुई। फिर दम्भ व् माया के संयोग से 'लोभ' नामक पुत्र और विकृति नामक कन्या हुई। दोनों ने 'क्रोध' को जन्म दिया। क्रोध से हिंसा व् इन दोनों के संयोग से काली देहवाले महाभयंकर 'कलि' का जन्म हुआ। कराल, चंचल, भयानक, दुर्गन्धयुक्त शरीर, द्यूत, मद्य, स्वर्ण और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहीण व् संतानों के रूप में दुरुक्ति, भयानक, मृत्यु, निरत, यातना का जन्म हुआ। जिसके हजारो अधर्मी पुत्र-पुत्री आधी-व्याधि, बुढ़ापा, दुःख, शोक, पतन, भोग-विलास आदि में निवास कर यग्य, तप, दान, स्वाध्याय, उपासना आदि का नाश करने लगे।"

और कलियुग में ऐसा हि होने लगा - क्रोध, दम्भ, माया, मलिनता, व्याधि, भोग, पतन इत्यादि स्थितियां उत्पन्न हुई और धीरे-धीरे इन स्थितियों ने संसार को इतना ढक दिया, कि आम आदमी ईश्वरीय सत्ता पर संदेह करने लगा। संभवतया महाभारत के समय कृष्ण ने इस स्थिति को समझा और कहा -


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।




अर्थात जब-जब संसार ने अनीति, अत्याचार , अधर्म पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाएगा, तब ईश्वरीय सत्ता किसी न किसी रूप में प्रादुर्भाव लेगी।

जब त्रेता युग में परिवार की मर्यादाओं की हानि हो रही थी, यज्ञ, तप मलिन हो रहे थे, तब परमात्मा ने भगवान् श्रीराम के रूप में अवतरण किया। राज गृह में जन्म लेकर मर्यादा स्थापित करने के लिए पुरे आर्यावत का भ्रमण किया। वनवास रूप में यह भ्रमण तो उनका एक लीला स्वरुप था, मूल भावना यह थी, कि पुरे आर्यावत को अयोध्या से लंका तक एक किया जाए। हर स्थान पर पुनः वेद वाणी का गुंजन हो और पुन यज्ञ ज्योति प्रज्वलित हो। अपने इस स्वरुप में श्रीराम ने कहीं भी कोई जाती भेद, स्थान भेद नहीं किया, वानर भील आदिवासी सभी तो उनके प्रिय थे ... और उनका पूरा विचरण राष्ट्र वनवास ही था। अपनी पत्नी के साथ पद यात्रा कर एक भावनात्मक एहसास जन मानस में उत्पन्न किया, फिर उन्होनें सबको साथ लेकर आसुरी प्रवृत्तियों के प्रतीक रावण का सम्पूर्ण नाश किया। केवल रावण ही नहीं, उसके साथ जो भी आसुरिय प्रवृत्तियों के व्यक्ति थे उन सबका जड़-मूल से ही नाश कर पूरे भूमण्डल पर शुद्ध धर्म स्थापित किया। श्रीराम ने भी विश्वामित्र से अस्त्र-शास्त्र विद्या सीखी और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से ज्ञान प्राप्त किया और वह भी गुरुकुल में रहकर।

श्रीकृष्ण ने भी मां के गर्भ से जन्म लिया। एक बालक की तरह अपनी बाल लीलाएं संपन्न की, देवकी के गर्भ से जन्म लेकर यशोदा के घर उनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। अपने बाल्यकाल में निरंतर लीलाएं करते हुए आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए प्रवृत्त रहना - कालिया मर्दन, पूतना वध इत्यादि कार्य तो उन्होनें बाल्यकाल में ही संपन्न कर दी और जहां द्वापर युग में लोगों के जीवन में शुष्कता और द्वेष की अधिकता हो गई थी, वहां उन्होनें प्रेम को एक नई अभिव्यक्ति दी।

उनकी रासलीला, जिसमे पूरा भू-मण्डल कृष्णमय होकर उनके साथ नृत्य संगीत कर रहा था, यह प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति ही तो थी, लेकिन इसके साथ ही साथ सुदूर सान्दीपन आश्रम में जाकर शिष्य के रूप में शिक्षा भी ग्रहण की।

अवतारी पुरूष को क्या आवश्यकता थी, कि वे शिक्षा आदि ग्रहण करते, जीवन के सामान्य नियमों का पालन करते?

लेकिन उन्हें समाज के सामने आदर्श स्थापित करना था, और उनके इस प्रेम स्वरुप के साथ ही श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का नीतिज्ञ स्वरुप, युगनिर्माता स्वरुप भी प्रकट होता है - महाभारत के युद्ध के समय। ठीक वही स्थिति जो राम के समय थी, जब रावण रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और फिर द्वापर में कौरव रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और पूरे भू-मण्डल पर आधिकार कर लिया था। तब श्रीकृष्ण ने अपने विराटस्वरूप के माध्यम से अर्जुन को ज्ञान करवाया, कि संख्या बल महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है धर्म की स्थापना, चाहे इसके लिए जीवन का बलिदान ही क्यों न करना पड़े। यदि सत्य और धर्म तुम्हारे साथ है, तो आसुरी प्रवृत्तियां कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकती हें। महाभारत का युद्ध इतिहास परिवर्तन का युद्ध था। पुनः आर्यावत में धर्म की चेतना जागृत हुई, सामाजिक जीवन को नष्ट कर देने वाली - विलासिता, जुआ, मद्यपान, नारी अपमान की प्रवृत्तियां नष्ट हुई।

पूरे जीवन कृष्ण ने किसी भी प्रकार की सामाजिक आचार सहिंता का उल्लंघन नहीं किया, गृहस्थ जीवन भी धारण किया और जब देखा कि गोकुल, मथुरा, हस्तिनापुर में मेरा कार्य पूर्ण हो गया है, तो सुदूर द्वारका में राज्य स्थापन कर वहां धर्म स्थापना की, जिससे अखंड आर्यावत का निर्माण हो सके।

काल का चक्र निरंतर चलता ही रहा और यही आर्यावत छोटे-छोटे राज्यों में बट गया। प्रत्येक राज्य में द्वेष, हजारों प्रकार की पूजाएं, नास्तिकता-आस्तिकता का संघर्ष - तब प्रभु ने बुद्ध के रूप में जन्म लिया और उनकी जीवन यात्रा सिद्धार्थ रूप में जन्म लेकर बोधीसत्व प्राप्त कर अन्ततः तथागत स्वरुप प्राप्त कर लेने तक की एक विराट यात्रा थी, जिसमें उन्होनें तीन सिद्धांत जनमानस में स्थापित किए -


बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि




अर्थात खण्ड-खण्ड में बटकर रहने की बजाय संघ बनाकर धर्म पालन आवश्यक है और धर्म का पालन शुद्ध सात्विक बुद्धि, जो कि बुद्धत्व उत्पन्न करती है, उसके द्वारा ही सम्भव है। उस समय की मांग जनमानस में त्याग, करुणा, प्रेम, साहचर्य उत्पन्न करना था और क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर बुद्ध ने भिक्षुक वेष धारण कर भिक्षा पात्र में लेकर पुरे आर्यावर्त में और उससे भी बाहर सुदूर देशों में धर्म की स्थापना की। उन्होनें स्वयं कभी कोई सम्राट पद धारण नहीं किया, लेकिन सारे सम्राट उनके ही तो अधीन थे। वे तो जन-जन के सम्राट थे और क्यों न हों, कि पुनः एकता, साहचर्य और धर्म स्थापित हो गया।

इन तीनों महावातारों में पूर्ण भिन्नता नजर आती है, ऐसा इसलिए हुआ कि युग धर्म के अनुसार भगवान् अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट होते हें। जहां जिस प्रकार के कार्य कि आवश्यकता होती है, भगवान् युगपुरुष में, युग-दृष्टा के रूप में अवतरित होते है और जिस उद्देश्य के लिए अवतरण लेते हें, उस कार्य को पूरा करने के पश्चात पुनः ब्रह्माण्ड में अपने विराट स्वरुप में स्थित हो जाते हैं।

प्रभु जब भी अवतरण लेते हैं, तो वे संसार को ये संदेश देना चाहते हैं कि जीवन का क्या आदर्श होना चाहिए और मनुष्य जन्म लेकर अपने जीवन में परमात्मा की अविच्छिन्न शक्ति का प्रतीक बनकर संसार में सद्कार्य कर सकता हैं। असंभव को सम्भव कर सकता हैं, एक-एक कर अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को मिटा सकता हैं। उसके जीवन में भी प्रेम, करुणा, मोह गृहस्थ सब कुछ होगा, इन सब स्थितियों के साथ वह सात्विकता की ओर अग्रसर हो सकता हें, पूर्णत्व की ओर अग्रसर हो सकता हैं।

यह तो द्रष्टा पर निर्भर करता है, कि वह अपने आराध्य को किस रूप में देखता हैं। और इन अवतरणों का क्रम बढ़ता हुआ इस युग में पुनः सम्भव हुआ पूज्य 'डॉ नारयण दत्त श्रीमाली जी' के रूप में। पूज्य सदगुरुदेव अपने परिवार के लिए पिता, भाई आदि स्वरुप में प्रिय बने, तो वहीं उनके शिष्यों ने उन्हें सदगुरुदेव, प्रभु, इष्ट, मंत्रज्ञ, तन्त्रज्ञ, ज्योतिषविद तथा अन्य रूपों में आत्मसात किया हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में व्यास मुनि ने स्पष्ट लिखा है, कि भगवान् के अवतारों स्वरुप में दस गुण अवश्य ही परिलक्षित होंगे और इन्हीं दस गुणों के आधार पर संसार उन्हें पहिचानेगा।


तपोनिष्ठः मुनिश्रेष्ठः मानवानां हितेक्षणः ।
ऋषिधर्मत्वमापन्नः योगी योगविदां वरः
दार्शनिकः कविश्रेष्ठः उपदेष्टा नीतिकृत्तथा ।
युगकर्तानुमन्ता च निखिलः निखिलेश्वरः ॥
एभिर्दशगुणैः प्रीतः सत्यधर्मपरायणः ।
अवतारं गृहीत्चैव अभूच्च गुरुणां गुरुः ॥


सदगुरुदेव पूज्यपाद डॉ नारायणदत्त श्रीमाली जी, संन्यासी स्वरुप निखिलेश्वरानंद जी का विवेचन आज यदि महर्षि व्यास द्वारा उध्दृत दस गुणों के आधार पर किया जाए, तो निश्चय ही सदगुरुदेव अवतारी पुरूष हैं, जिन्होनें अपने सांसारिक जीवन का प्रारम्भ एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में किया - सुदूर पिछडा रेगिस्तानी गांव था। जब इनका जन्म हुआ तो माता-पिता को प्रेरणा हुई, कि इस बालक का नाम रखा जाए - 'नारायण'।

यह नारायण नाम धारण करना और उस नारायण तत्व का निरंतर विस्तार केवल युगपुरुष नारायण दत्त श्रीमाली के लिए ही सम्भव था, जिन्होनें अपने अल्पकालीन भौतिक जेवण में शिक्षा का उच्चतम आयाम ग्रहण कर पी.एच.डी. अर्थात डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की।
- योगी विश्वेश्रवानन्द

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २

परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।
ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।


--योगी विश्वेश्रवानंद