गुरुवार, 19 मार्च 2009

भैरव और कापालिक

मनाली से चालीस किलोमीटर दूर अव्यय पहाड़ प्रसिद्द है। एक बार हम सब उसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हुए थे। स्वामी जी (मेरे गुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी जब वे संन्यस्त थे) दैनिक पूजा संपन्न कर गुफा से बाहर निकले ही थे कि हम सबको देखकर उन्होनें आशीर्वचन कहा। तभी उनकी दृष्टी एक कापालिक पर पडी, जो कि हम सब शिष्यों के पीछे एक कोने में बैठा हुआ था। ललाट पर सिंदूर का बड़ा-सा तिलक, बलिष्ठ शरीर, ताम्बे जैसा रंग, लम्बी और रक्तिम आँखें और सुदृढ़ स्कंध।

स्वामी जी ने पूछा, "यह कौन है?" फिर उसकी और मुखातिब होकर बोले, "कापालिक हो?"
उसने खड़े होकर हाथ जोड़े और बोला, "कापालिक ही नहीं भैरव हूं! साक्षात् भैरव।"

स्वामी जी हंस दिए, बोले, "भैरव तो कुछ और होता है। तू तो भीख मांगने वाला और नरमुंड खाने वाला कापालिक ही हो सकता है।"

इतना सुनते ही उसकी त्यौरियां चढ़ गई। यह पहला मौका होगा, जब किसी ने उसके सामने इतनी कठोर बात कही। वह उठ खडा हुआ उसकी आंखों से रक्त की बूंदे टप-टप टपक पड़ीं।

स्वामी जी ने कहा, "उत्तेजित होने कि जरूरत नहीं। तू जो कुछ कर रहा है मैं समझ रहा हूं और मैंने वर्षों पूर्व यह सब-कुछ करके छोड़ दिया है। अपने-आप में दर्प करना ठीक नहीं। कापालिक को तो सीखना चाहिए और अपने जीवन में भगवान् रुद्र के अवतार भैरव को हृदयस्थ करना चाहिए।"

हमने अनुभव किया कि कापालिक कुछ वामाचारी क्रिया संपन्न कर रहा है और इसलिए अपने नेत्रों से रक्त की बूंदे प्रवाहित कर रहा है, पर इससे स्वामी जी बिल्कुल विचलित नहीं हुए। लगभग दस मिनट बीत गए। उस पहाडी पर बिल्कुल निस्तब्धता थी। सुई भी गिरती तो आवाज सुनाई दे सकती थी। तभी गुरुदेव ने मौन भंग किया, बोले, "कापालिक, ऐसी छोटी और मामूली मारण क्रियायें मेरे ऊपर लागू नहीं होंगी, बेकार अपना समय बरबाद कर रहा है। तू कहे तो मैं तेरे आराध्य को यहीं पर प्रकट कर सकता हूं।"

कापालिक ने एक क्षण के लिए गुरुदेव को देखा, और अनुभव किया कि वास्तव में ही उसकी मारण क्रियायों का कोई भी प्रभाव स्वामी जी पर नहीं पड़ रहा। यही नहीं, अपितु वह सामने खडा व्यक्ति तो कह रहा हैं कि यदि कहो तो आराध्य काल भैरव को प्रकट किया जाए।

कापालिक ने कहा, "आप मेरे इष्ट, 'काल भैरव' के दर्शन करा देंगे?"
"अवश्य। यदि तू चाहेगा तो अवश्य दर्शन होंगे।"

कापालिक घुटनों के बल झुक गया जैसे उसने पूज्य गुरुदेव कि अभ्यर्थना की हो। तभी स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी के मुंह से भैरव ध्यान स्वतः उच्चारित हो गया -

फूं फूं फुल्लारशब्दो वसति फणिपतिर्जायते यस्य कंठे।
डिं डिं डिन्नातिडिन्नं कलयति डमरू यस्य प्राणौ प्रक्म्पम।
तक तक तन्दातितन्दान घिगीती गीर्गीयते व्यम्वाग्मिः
कल्पान्ते तांडवीय सकलभयहरो भैरवो नः स पायात ॥


और तभी एक भीमकाय तेज पुंज पुरुषाकृति साकार हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं काल ही पुरूष रूप में साकार हो गया हो। सारे शरीर से तेजस्वी किरणें निकल रही थीं, और ऐसा लग रहा था जैसे उस जंगल में उनचास पवन प्रवाहित होने लग गए हैं। पहाड़ स्वयं थरथराने-सा लग लगा और प्रचंड वेग से आंधी बहने लगी। हमारे देखते-देखते उस पहाड़ पर कई पेड़ जड़ सहित उखड कर गिरने लगे। सूर्य का ताप जरूरत से ज्यादा बढ़ गया और हम सब उस व्यक्तित्व के तेजस-ताप से झुलसने लगे।

यह स्थिति लगभाग एक या डेढ़ मिनट रही होगी, परन्तु यह एक मिनट ही अपने-आप में एक वर्ष के समान लगा। हम सब काल भैरव को साक्षात् अपने सामने देख रहे थे। इतनी भयंकर, तेजस्वी और अद्वितीय पुरुषाकृति पहली बार ही हमारे सामने उपस्थिति थी।

कुछ ही क्षणों में वह पुरुषाकृति शून्य में विलीन हो गई, पर्वत का थरथराना स्वतः रूक गया और वायु पुनः धीरे-धीरे बहने लगी।

(गुरुदेव के और भी काफी कथाएं आपको "हिमालय के योगियों की गुप्त सिद्धियां" बुक में पढ़ने मिलेगी। यह पुस्तक आपको किसी भी बुक स्टाल में मिलनी चाहिए। - Published by Hind Pocket Books, Author - Dr. Narayan Dutt Shrimaliji)

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

तंत्र की दृष्टी में होली एक विशेष पर्व

तंत्र के आदि गुरु भगवान् शिव माने जाते है और वे वास्तव में देवों के देव महादेव है। तंत्र शास्त्र का आधार यही है की व्यक्ति का ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाये और उसका कुण्डलिनी जागरण हो तथा तृतीय नेत्र (Third Eye) एवं सहस्रार जागृत हो।

भगवान् शिव ने प्रथम बार अपना तीसरा नेत्र फाल्गुन पूर्णिमा होली के दिन ही खोला था और कामदेव को भस्म किया था। इसलिए यह दिवस तृतीय नेत्र जागरण दिवस है और तांत्रिक इस दिन विशेष साधना संपन्न करते है जिससे उन्हें भगवान् शिव के तीसरे नेत्र से निकली हुई ज्वाला का आनंद मिल सके और वे उस अग्नि ऊर्जा को ग्रहण कर अपने भीतर छाये हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह-माया के बीज को पूर्ण रूप से समाप्त कर सकें।

होली का पर्व पूर्णिमा के दिन आता है और इस रात्रि से ही जिस काम महोस्तव का प्रारम्भ होता है उसका भी पूरे संसार में विशेष महत्त्व है क्योंकि काम शिव के तृतीय नेत्र से भस्म होकर पुरे संसार में अदृश्य रूप में व्याप्त हो गया। इस कारण उसे अपने भीतर स्थापित कर देने की क्रिया साधना इसी दिन से प्रारम्भ की जाती है। सौन्दर्य, आकर्षण, वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि से संबन्धित विशेष साधनाएं इसी दिन संपन्न की जाती है। शत्रु बाधा निवारण के लिए, शत्रु को पूर्ण रूप से भस्म कर उसे राख बना देना अर्थात अपने जीवन की बाधाओं को पूर्ण रूप से नष्ट कर देने की तीव्र साधनाएं महाकाली, चामुण्डा, भैरवी, बगलामुखी धूमावती, प्रत्यंगिरा इत्यादि साधनाएं भी प्रारम्भ की जा सकती हैं तथा इन साधनाओं में विशेष सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।

काम जीवन का शत्रु नहीं है क्योंकि संसार में जन्म लिया है तो मोह-माया, इच्छा, आकांक्षा यह सभी स्थितियां सदैव विद्यमान रहेंगी ही और इन सब का स्वरुप काम ही हैं। लेकिन यह काम इतना ही जाग्रत रहना चाहिए कि मनुष्य के भीतर स्थापित शिव, अपने सहस्रार को जाग्रत कर अपनी बुद्धि से इन्हें भस्म करने की क्षमता रखता हो।

और फिर होली का पर्व ... दो महापर्वों के ठीक मध्य घटित होने वाला पर्व! होली के पंद्रह दिन पूर्व ही संपन्न होता है, महाशिवरात्रि का पर्व और पंद्रह दिन बाद चैत्र नवरात्री का। शिव और शक्ति के ठीक मध्य का पर्व और एक प्रकार से कहा जाएं तो शिवत्व के शक्ति से संपर्क के अवसर पर ही यह पर्व आता है। जहां शिव और शक्ति का मिलन है वहीं ऊर्जा की लहरियां का विस्फोट है और तंत्र का प्रादुर्भाव है, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई। यह विशेषता तो किसी भी अन्य पर्व में सम्भव ही नहीं है और इसी से होली का पर्व का श्रेष्ठ पर्व, साधना का सिद्ध मुहूर्त, तांत्रिकों के सौभाग्य की घड़ी कहा गया है।

प्रकृति मैं हो रहे कम्पनों का अनुभव सामान्य रूप से न किया जा लेकिन महाशिवरात्रि के बाद और चैत्र नवरात्रि के पहले - क्या वर्ष के सबसे अधिक मादक और स्वप्निल दिन नहीं होतें? ... क्या इन्हीं दिनों में ऐसा नहीं लगता है कि दिन एक गुनगुनाहट का स्पर्श देकर चुपके से चला गया है और सारी की सारी रात आखों ही आखों में बिता दें ... क्योंकि यह प्रकृति का रंग है, प्रकृति की मादकता, उसके द्वारा छिड़की गई यौवन की गुलाल है और रातरानी के खिले फूलों का नाशिलापन है। पुरे साल भर में यौवन और अठखेलियां के ऐसे मदमाते दिन और ऐसी अंगडाइयों से भरी रातें फिर कभी होती ही नहीं है और हो भी कैसे सकती हैं ....

तंत्र भी जीवन की एक मस्ती ही है, जिससे सुरूर से आंखों में गुलाबी डोरें उतर आते हैं, क्योंकि तंत्र का जानने वाला ही सही अर्थ में जीवन जीने की कला जानता है। वह उन रहस्यों को जानता हैं जिनसे जीवन की बागडोर उसके ही हाथ में रहती है और उसका जीवन घटनाओं या संयोगों पर आधारित न होकर उसके ही वश में होता है, उसके द्वारा ही गतिशील होता है। तंत्र का साधक ही अपने भीतर उफनती शक्ति की मादकता का सही मेल होली के मुहूर्त से बैठा सकता है और उन साधनाओं को संपन्न कर सकता है, जो न केवल उसके जीवन को संवार दे बल्कि इससे भी आगे बढ़कर उस उंचे और उंचे उठाने में सहायक हो।

इस साल यह होली पर्व मार्च में संपन्न हो रहा है। जो भी अपने जीवन को और अपने जीवन से भी आगे बढ़कर समाज व् देश को संवारने की इच्छा रखते है, लाखों-लाख लोगों का हित करने, उन्हें प्रभावित करने की शैली अपनाना चाहते है, उनके लिए तो यही एक सही अवसर है। इस दिन कोई भी साधना संपन्न की जा सकती है। तान्त्रोक्त साधनाएं ही नहीं दस महाविद्या साधनाएं, अप्सरा या यक्षिणी साधना या फिर वीर-वेताल, भैरवी जैसी उग्र साधनाएं भी संपन्न की जाएं तो सफलता एक प्रकार से सामने हाथ बाँध खड़ी हो जाती है। जिन साधनाओं में पुरे वर्ष भर सफलता न मिल पाई हो, उन्हें भी एक एक बार फिर इसी अवसर पर दोहरा लेना ही चाहिए।

इस प्रकार होली लौकिक व्यवहार में एक त्यौहार तो है लेकिन साधना की दृष्टी से यह विशेष तंत्रोक्त-मान्त्रोक्त पर्व है जिसकी किसी भी दृष्टी से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। साधक को इस दिन किसी न किसी साधना का संकल्प अवश्य ही लेना चाहिए। और यदि सम्भव हो होली से प्रारम्भ कर नवरात्री तक साधना को पूर्ण कर लेना चाहिए।

- 'फरवरी' २००४ मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मंत्र शक्ति

भगवान् राम के पूर्वज सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन का एक प्रसंग है - एक बार लंका नरेश रावण, राजा हरिश्चंद्र की तपश्चर्या से प्रभावित होकर उनके दर्शन करने आया।

राजमहल के द्वार पर पहुंचकर रावण ने द्वारपाल को अपने आने का प्रयोजन बताया और कहा - 'मैंने राजा हरिश्चंद्र की तपस्या और मंत्र साधना के विषय में काफी प्रशंसा सूनी है, मैं उनसे कुछ सीखन की कामना लेकर आया हूं।'

द्वारपाल ने रावण को उत्तर दिया - 'हे भद्र पुरूष! आप निश्चय ही हमारे राजा से मिल सकेंगे, किन्तु अभी प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि अभी वे अपनी साधना कक्ष में साधना, उपासना आदि कर रहे हैं।'

कुछ समय बाद द्वारपाल रावण को साथ लेकर राजा के पास गया। रावण ने झुककर प्रणाम किया और राजा हरिश्चंद्र से अपने मन की बात कही, की वह उनसे साधनात्मक ज्ञान लाभ हेतु आया है।

वार्तालाप चल ही रहा था, की एकाएक राजा हरिश्चंद्र का हाथ तेजी से एक ओर घुमा। पास रखे एक पात्र से उन्होंने अक्षत के कुछ दानें उठाएं और होठों से कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदाते हुए बड़ी तीव्रता से एक दिशा में फ़ेंक दिए। रावण एकदम से हतप्रभ रह गया, उसने पूछा -

'राजन! यह आपको क्या हो गया था?'

राजा हरिश्चंद्र बोले - 'यहां से १४० योजन दूर पूर्व दिशा में एक हिंसक व्याघ्र ने एक गाय पर हमला कर दिया था, और अब वह गाय सुरक्षित है।' रावण को बड़ा अचरज हुआ, वह बिना क्षण गवाएं इस बात को स्वयं जाकर देख लेना चाहता था। चलते-चलते रावण जब उस स्थल पर पहुंचा, तो देखा की रक्तरंजित एक व्याघ्र भूमि पर पडा है। व्याघ्र को अक्षत के वे दाने तीर की भांति लगे थे, जिससे वह घायल हुआ था। राजा हरिश्चंद्र की मंत्र शक्ति का प्रमाण रावण के सामने था।

आज भी मंत्रों में वही शक्ति है, वही तेजस्विता है, जो राजा हरिश्चंद्र के समय थी। आवश्यकता है, तो मनःशक्ति को एकाग्र करने की, पूर्ण दृढ़ता के साथ मंत्रों का ह्रदय से उच्चारण करने की।

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जनवरी २००९