गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

कुछ विशेष रोग निवारण मंत्र

यों तो किसी भी समस्या के समाधान हेतु अनेको उपाय हैं। परन्तु मंत्रों के माध्यम से समस्या के निवारण के पीछे धारणा यह है कि मंत्र शक्ति एवं दैवी शक्ति के द्वारा साधक को वह बल प्राप्त होता है जिससे कि किसी भी समस्या का समाधान सहज हो जाता है। उदाहरण के लिए माना जाता है कि सभी रोगों का उदभाव मनुष्य के मन से ही होता है। मन पर पड़े दुष्प्रभावों को यदि मंत्र द्वारा नियंत्रित कर लिया जाए, तो रोग स्थाई रूप से शांत हो जाते हैं। उसी प्रकार मन को सुदृढ़ करके किसी भी समस्या पर आप विजय प्राप्त कर सकते हैं।

ब्लड प्रेशर तो स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है... आप ख़ुद परख लीजिये न

क्या आप ब्लड प्रेशर के रोगी है, तो आप परेशान न हों, क्योंकि आपके पास स्वयं इसका इलाज है। यदि थोड़ी सी सावधानी बरत लें, तो फिर इसे आप आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। आप दवाओं के साथ यदि इस प्रयोग को भी संपन्न करें, तो फिर यह स्थाई रूप से नियंत्रित हो सकता है। मंत्रों में इतनी क्षमता होती है, कि यदि आप उनका प्रयोग उचित विधि से करें, तो वे पूर्ण फलप्रद होते ही हैं।

आप 'रोग निवारक मधूरूपेन रूद्राक्ष' लेकर उसे किसी ताम्रपात्र में केसर से स्वस्तिक बनाकर स्थापित करें। उसके समक्ष ४० दिन तक नित्य ७५ बार निम्न मंत्र का जाप करें, नित्य मंत्र जप समाप्ति के बाद रूद्राक्ष धारण कर लें -

मंत्र
॥ ॐ क्षं पं क्षं ॐ ॥

प्रयोग समाप्त होने के बाद रूद्राक्ष को नदी में प्रवाहित कर दें।

सबसे खतरनाक बिमारी है डायबिटीज और इसका समाधान यह भी है

डायबिटीज रोग कैसा होता है, यह तो इससे पीड़ित रोगी ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। दिखने में तो यह सामान्य है, लेकिन जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है, तो व्यक्ति अनेक प्रकार की बिमारियों से घिर जाता है तथा मृत्यु के समान कष्ट पाता है। इसी कारण इसको खतरनाक बिमारी कहा गया है। आप इस रोग का पूर्ण समाधान प्राप्त कर सकते है, यदि आप दवाओं के साथ साथ इस प्रयोग को भी संपन्न कर लें।

रविवार के दिन पूर्व दिशा की ओर मुख कर सफेद आसन पर बैठ जाएं। सर्वप्रथम गुरु पूजन संपन्न करे तथा गुरूजी से पूर्ण स्वास्थ्य का आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात सफेद रंग के वस्त्र पर कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर 'अभीप्सा' को स्थापित करे दें, फिर उसके समक्ष १५ दिन तक नित्य मंत्र का ८ बार उच्चारण करें -

मंत्र
॥ ॐ ऐं ऐं सौः क्लीं क्लीं ॐ फट ॥

प्रयोग समाप्ति के बाद 'अभीप्सा' को नदी मैं प्रवाहित कर देन

आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित करिए

आज का भौतिक युग प्रतियोगिताओं का युग है, जीवन के प्रत्येक क्षण मैं आपको अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कराने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परिस्थितियों का सामना करना पङता है जिस व्यक्ति का मस्तिष्क जितना अधिक क्रियाशील, क्षमतावान होता है, वह उतना ही श्रेष्टता अर्जित कर लेता है आप भी आपने मस्तिष्क की क्षमता को पूर्ण विकसित कर सकते हैं इस प्रयोग के माध्यम से -'चैत्यन्य यंत्र' को किसी भी श्रेष्ठ समय मैं धारण कर लें एवं नित्य पराठा काल आपने इष्ट का स्मरण कर निम्न मंत्र का १५ मिनट तक जप करें -

मंत्र
॥ ॐ श्रीं चैतन्यं चैतन्यं सदीर्घ ॐ फट ॥

यंत्र को ४० दिनों तक धारण किए रहे ४० दिन के पश्चात उसे नदी मैं प्रवाहित कर दे।

आपने अनिद्रा के रोग को इस प्रकार से समाप्त करिए

क्या कहा आपने, आप को नींद नहीं आती और और इसके लिए आपको रोज रात को नींद की गोली लेनी आवश्यक हो जाती है और फिर भी आप चाहते हुए चैन की नींद नहीं ले पाते आपको स्वाभाविक नींद लिए हुए कई माह बीत चुके हैं कहीं इस रोग के कारण आपका स्वास्थ्य तो प्रभावित नहीं हो रहा है आपका सौन्दर्य कहीं डालने तो नहीं लगा यह रोग आपके लिए हानिकारक, तो नहीं साबित हो रहा है यदि ऐसा है तो आप शीघ्र ही इससे छुटकारा प्राप्त कर लीजिये

आप किसी भी रात्री को स्नान कर सफेद वस्त्र मैं कुंकुम से द्विदल कमल बनाए, अपना नाम कुंकुम से लिखकर उस पर उस पर 'रोग मुक्ति गुटिका' को स्थापित करें नोऊ दिन तक गुटिका के समक्ष निम्न मंत्र का ग्यारह बार जप एकाग्र चित्त हो कर करें -

मंत्र
॥ ॐ अं अनिद्रा नाशाय अं ॐ फट ॥

जप समाप्ति के बाद शांत मन से लेट जायें और नौ दिन के पश्चात गुटिका को नदी में प्रवाहित करें।

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २००५

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

आर्य संस्कृति के रक्षक

प्रिया आत्मीय बंधुओं,

समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है। उस गति में हर क्षण नित्य नवीन होता है। पुराने क्षण से अलग कुछ नया करने का आह्वान करता है। जीवन को लम्बी यात्रा न मानकर क्षण-क्षण जीने में ही आनन्द है और जो जीवन को भार समझाते हैं, यह कि जीवन में केवल बाधाएं और परेशानियां ही हैं तो उनके लिए यह भार बढ़ता ही जाता है। जो साधक है, जो शिष्य है वह अपने मन से एक-एक कर भार का बोझ फेकता रहता है। अपने मार्ग में आने वाले कांटे पत्थरों को स्वयं हटाता है। स्वयं के प्रयत्नों से इस यात्रा में एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। इस आनन्द में पूर्ण आत्म साक्षात्कार कराने हेतु सदगुरुदेव हर समय ह्रदय में विराजमान रहते ही हैं, केवल आवश्यकता इस बात की है की हम मन मंथन हर समय करते रहे। अपने आप को समय के तराजू पर तोलते रहें, समाज आवश्यक है लेकिन समाज की चिंताओं में इतना भी अधिक जकड नहीं जाएं कि समाज हमारे मन पर हावी हो जाएं।

जीवन के अज्ञान अंधकार को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि हमें अपने अन्दर विखण्डन प्रक्रिया प्रारम्भ करनी ही पड़ेगी। इसके लिए कोई समय मूहूर्त की आवश्यकता नहीं है। सदगुरुदेव कहते हैं कि जीवन का आधार विचार, विवेक और वैराग्य है। साधक का प्रथम कर्तव्य विचारशील होना है और यह विचार विवेक से युक्त होने चाहिए। लाखों प्रकार की बातें हम सुनते हैं, लाखों प्रकार के मंत्र हैं, लाखों प्रकार के अन्य कार्य हैं, लाखों प्रकार के मोह है। लेकिन जब हम अपने विवेक स्थान, जिसका प्रारम्भ ह्रदय से है, जिसका भाव आज्ञा चक्र मस्तिष्क में है उस विवेक स्थान पर सदगुरुदेव स्थापित हो जाएं तो श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं। विचार ही महाशक्ति है, विचार ही आद्या दुर्गा शक्ति है, महाकाली है, महाविद्याएं है, विचार ही भाग्य का निर्माण करती है। विचार का तात्पर्य है संकल्प और चिंतन। जब चिंतन के साथ संकल्प प्रारम्भ होता है तो जीवन की समस्याएं लघु लगने लगती हैं और इसी से जीवन में एक निःस्पृह योगी का भाव आता है। आप साधक है, शिष्य है और शक्ति के उपासक हैं। सदगुरुदेव रूपी शिव आपके साथ है फिर जीवन में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

जब हम गुरु से मिलते है तो हमारा नया जन्म होता है और जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान मोड़ का समय हो सकती है। क्या पता जिस क्षण को हम समझकर बरबाद कर रहे हैं, वही हमारे लिए अपनी झोली में सुंदर सौभाग्य की सफलता लाया हो। समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे अपने किसी भी ऐसे कर्तव्य को भूलकर भी कलपर न टालें, जो आज किया जाना चाहिए। आज के मन के लिए आज का ही दिन निश्चित है और हमें हर समय वर्त्तमान में ही जीवन जीना है।

गुरुदेव चाहे तो एक क्षण में वरदान देकर जीवन को परिवर्तित कर सकते हैं लेकिन गुरुदेव तो जीवन को तपाते है, साधक में अग्नि तत्व का संचार करते हैं और जब यह अग्नि तत्व संचालित हो जाता है तो साधक आत्म ज्ञान का पहला अध्याय पूरा करता है। इसलिए सदगुरुदेव सदैव संस्कृति और संस्कार पर बल देते हैं। संस्कार एक दिन में ही जाग्रत हो जाते हैं इसे बदलने के लिए मन के हजार-हजार बंधनों को तोड़ना पङता हैं।

जब नदी कई धाराओं में बट जाती है तो वह नदी न बनकर एक नहर बन जाती है और नहरें समुद्र को पा नहीं सकती हैं। वे छोटे-छोटे टुकडों में बटी हुई अपने अस्तित्व को समाप्त कर देती हैं और केवल स्थान भर के लिए थोडी उपयोगी रह जाती है। शिष्य भी नदी की तरह ही जब वह ज्ञान के मार्ग पर जीवन की यात्रा करता है तो उसमें दृढ़ निश्चय संकल्प होना आवश्यक है क्योंकि उसका लक्ष्य यह होना चाहिए कि मुझे अपने सागर रुपी गुरु से मिलना है। गुरु ही विराट है उसी में अपने अस्तित्व का मिलन करना है।

सिद्धाश्रम साधक परिवार की इस यात्रा में जब मैं कई शिष्यों को अपने मार्ग से थोडा भटकते हुए देखता हूं आश्चर्य होता है मन व्यथित होता है, जब लोगों को सदगुरु के नाम पर ढोंग करने वाले शिष्यों के सामने नमन करते देखता हूं, जब कुछ शिष्यों को क्षणिक, भौतिक सुविधाओं के लिए ऐसे लोगों के पास भटकते देखता हूं जो उन्हें जीवन की सारी भौतिक बाधाओं को पूर्ण करने का छलावा दिखाते हैं। कोई तथाकथित गुरु गडा धन बताने की बात करता है तो कोई तथाकथित गुरु भूत-प्रेत भगाने का दावा करता है तो कोई मां काली के दर्शन कराने का भ्रम दिखाता है। इन छोटे-छोटे स्थानिक गुरुओं को देखकर आश्चर्य होता है कि सदगुरु के शिष्य ऐसे भ्रम में कैसे पड़ जाते हैं? और मेरे सामने इनका उत्तर ना मिलने पर सदगुरुदेव निखिल के सामने बैठकर प्रार्थना करता हूं कि हे! गुरुदेव यह कैसी लीला है तो गुरुदेव कहते हैं कि चिंता करने की कोई बात नहीं है घासफूस, खतपतवार, मौसमी फल थोड़े समय के लिए सबको अच्छे लगते हैं लेकिन खतपतवार, मौसमी फल-फूल का जीवन स्थाई नहीं रहता। जो शिष्य इन मार्गों पर जा रहे हैं वे वापस सिद्धाश्रम की मुख्य धारा में अवश्य आयेंगे।

इसलिए मुझे आज यह उदघोष करना है कि आप सिद्धाश्रम साधक परिवार के प्रहरी हैं। सदगुरुदेव के मानस पुत्र हैं, दीक्षा प्राप्त शिष्य हैं, आर्य संस्र्कुती के रक्षक हैं तो आपका यह कर्तव्य कि सदगुरुदेव के नाम पर पड़ने वाली इस खतपतवार को समाप्त कर दें। इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे कि पूरा समाज देख सके और पत्थर और हीरे में अनुभव अन्तर कर सकें। कृत्रिम चमक कुछ समय के लिए लुभा सकती है लेकिन हीरा तो हीरा ही है। हमारे सदगुरुदेव तो हीरे से भी अधिक मूल्यवान, सागर से भी
विशाल, हिमालय से भी उंचे, शिवरूपी निखिल हैं और जिन्हें प्राप्त करना सहज है।

इसी उद्देश्य से यह अंक भगवती मां दुर्गा को समर्पित है, महाविद्याओं को समर्पित है जिनकी साधना आराधना कर हम जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकते हैं।

इस बार बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में फिर महाशिवरात्रि पर्व "हर-हर महादेव" का उदघोष करेंगे। शिव और शक्ति से अपने जीवन को भर देंगे क्योंकि हमारा एक ही मूल सुत्र है -


एकोही नामं एकोहि कार्यं, एकोहि ध्यानं एकोहि ज्ञानं ।
आज्ञा सदैवं परिपालयन्ति; त्वमेवं शरण्यं त्वमेव शरण्यं ॥

आपका अपना
नन्द किशोर श्रीमाली
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका , फरवरी 2006

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

भैरवी - भाग १

स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।

तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।

जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।

जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।

व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।

'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।

आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।

शेष भाग अगले अंक में ....