शनिवार, 15 जनवरी 2011

मृत्योर्मा अमृतं गमय - १

 आज का यह प्रवचन अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण इसलिए कि संसार के जटिल प्रश्नों में से एक प्रश्न है जिसे हम सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और यह प्रश्न हजारों-हजारों वर्षों से भारतीय ऋषियों-महर्षियों, योगियों, तपस्वियों, साधुओं, संन्यासियों और वैज्ञानिकों का मस्तिष्क मंथन करता रहा है कि 'मृत्यु क्या है?' और 'अमृत्यु क्या है?' -

क्या मिर्त्यु से परे भी कोई चीज है? क्या मृत्यु असंभव है? क्या मृत्यु को हम टाल सकते हैं? और क्या कोई युक्ति या साधना या कोई स्थिति या कोई तरकीब है जिससे हम 'मृत्योर्माअमृतं गमय', उस उपनिषद् की इस पंक्ति को सही कर सकें चरितार्थ कर सकें| उपनिषद् में तो दो टूक शब्दों में इस पंक्ति को स्पष्ट किया गया है| 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' |

मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर हो| उसका लाक्ष, उसका रास्ता, उसका पथ अमृत्यु की ओर हो| इसका मतलब यह है कि उपनिषद् भी इस बात को स्वीकार करता है कि मृत्यु तो असम्भव है ही| तभी उसमें कहा है कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर तुम्हें अग्रसरित होना है| क्योंकि यह मृत्यु तुम्हारे जीवन का हिस्सा है, पार्ट है| तुम चाहो या नहीं चाहो मृत्यु का तुम्हें एक न एक बार साथ तो देना ही होगा| परन्तु यदि ऋषि ने उपनिषदकार ने इस पंक्ति के आधे हिस्से में मृत्यु  शब्द का प्रयोग किया है कि कोई ऐसी स्थिति तो जरूर है जिससे हम अमृत्यु की ओर अग्रसर हो सके|

कोई ऐसी स्थिति आ सकती है जहां हम अमृत्यु की ओर बढ़ सकें, हमारी मृत्यु नहीं हो, हम पूर्ण रूप से अमर हो सकें, जीवित रह सकें, लम्बे वर्षों तक जीवन जी सकें, स्वस्थ रह सकें| दोनों ही स्थितियां हमारे सामने एक पेचीदा प्रश्न लिये खडी रहती हैं और इस मृत्यु के लिये, भारतीय दर्शन, योग, मीमांसा, शास्त्र, वेद, पुराण इन सभी में मंथन, चिन्तन किया गया है| वैज्ञानिकों ने भी अपने तरीके से इस पर चिन्तन और विचार किया है| मनुष्य वृद्ध क्यों होता है?, मनुष्य मृत्यु को प्राप्त क्यों होता है? ऐसी क्या चीज है मनुष्य के शरीर में जिसके बने रहने से वो जीवित रहता है और जिसके चले जाने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है? क्योंकि मृत्यु और अमृत्यु के बीच में शरीर के अन्दर गुणात्मक अन्तर तो नहीं आता, एक सेकण्ड पहले जो जीवित था, उसके हाथ-पांव, आंख, कान-नाक सही सलामत थे और उसके एक सेकण्ड के बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसमें भी उसके हाथ-पांव, आंख, नाक-कान सही सलामत होते हैं| प्रश्न उठता है कि लोग ये बात कहते हैं कि ह्रदय का धड़कना बंद हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है| परन्तु ऐसे कई योगी हैं जो कई-कई घंटों तक ह्रदय की धड़कन को रोक देते हैं और चार-छः घंटे ह्रदय की धड़कन होती ही नहीं तो क्या मृत्यु को प्राप्त हो गए? इसलिए यह परिभाषा तो मान्य नहीं हो सकती कि ह्रदय की धड़कन बंद होने से आदमी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है|

ह्रदय की धड़कन तो कई कारणों से बंद हो सकती है| जो हमारे यंत्रों के माध्यम से सुनाई नहीं दे सकती| प्रश्न यह नहीं है| प्रश्न यह है कि मृत्यु यदि हो जाति है तब तो वापिस पुनः जन्म स्वाभाविक है| हमारे शास्त्र इस बारे में दो टूक शब्दों में कहते हैं कि जो पैदा होता है उसकी मृत्यु होती ही है| चाहे वह पशु-पक्षी हो, चाहे वह कीट-पतंग हो, चाहे मनुष्य हो, चाहे वह वनस्पति हो, पेड़-पौधे हों| जो उत्पन्न होगा, वह उवा भी होगा, वृद्ध भी होगा, मृत्यु को प्राप्त भी होगा| क्योंकि मृत्यु के भुक्ति पर ही मृत्यु के नींव पर ही, वापिस नये जीव का जन्म होता है| यदि मृत्यु हो ही नहीं तो यह देश, यह समाज, यह राष्ट्र अपने आप में कितना दुःखी, परेशान हो जाएगा, इसकी कल्पना की जा सकती है| कल्पना की जा सकती है कि हजारों-हजारों, करोड़ों-करोड़ों वृद्ध घूमते नजर आयेंगे, सिसकते हुए, दुःखी, परेशान, पीड़ित नजर आयेंगे| कफ, खांसी, थूक से संतप्त नजर आयेंगे और नै पीढी को खडा होने के लिये पृथ्वी पर कहीं जमीन नजर नहीं आएगी| कहां खड़े होंगे? क्या करेंगे? किस प्रकार की स्थिति बनेगी? अगर सारे व्यक्ति ही जीवित रहेंगे तब तो यह राष्ट्र, यह पूरा देश और पूरा विश्व अपने आप में असक्त वृद्ध और कमजोर और दुर्बल सा दिखाई देने लग जाएगा|

उसमें कोई नवीनता नहीं होगी| कुछ हलचल नहीं होगी, कुछ तूफान नहीं होगा, कोई जोश नहीं होगा, नवजवानी नहीं होगी, यौवन नहीं होगा यह सब कुछ होगा ही नहीं क्योंकि उन जवानों को पैदा होने के लिये, उन बालकों को पैदा होने के लिये जगह की कमी पड़ जायेगी| कहां से इतनी वनस्पति आयेगी? कहां से इतना खाद्य पदार्थ आयेगा? कहां से उनको जीवित रखने की क्रिया संपन्न हो पाएगी? कहां से उनको धुप-पानी-भोजन की व्यवस्था हो पाएगी? इसलिए मृत्यु दीवार पर एक अमृत्यु का पौधा रोपा जा सकता है| मृत्यु की भुक्ति पर जन्म का एक सवेरा होता है, यह प्रश्न एक अलग है कि क्या मृत्यु के बाद भी हमारा तत्व रहता है कि नहीं| यह मृत्यु के परे क्या चीज है? यह विषय एक अलग विषय है| क्योंकि यदि मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है, तो फिर जन्म भी हमारे हाथ में नहीं है| दोनों स्थितियों में हम लाचार है, बेबस हैं| हम किस समय मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे यह हमारे हाथ में नहीं है| हमारे पास ऐसी कोई साधना सिद्धि या विज्ञान नहीं है, जिसके माध्यम से हम दो टूक शब्दों में कह सकेंगे कि हम इतने दिन तक जीवित रहेंगे ही|

मृत्यु हमें स्पर्श नहीं कर सकेगी, हां यह अलग बात है कुछ विशिष्ट साधनाएं ऐसी है कुछ अद्वितीय साधनाएं ऐसी हैं जिसके माध्यम से इच्छामृत्यु प्राप्त की जा सकती है| चाहे जितने समय तक जीवित रहा जा सकता है| परन्तु वह तो एक रेयर (Rare) है वह तो एक विशिष्टता है इसलिए मैंने कहा कि मृत्यु पर हमारा नियंत्रण नहीं है और इस मृत्यु पर वशिष्ठ, अत्री, कणाद, विश्वामित्र, राम और कृष्ण का भी कोई  अधिकार नहीं रहा है| उनको भी मृत्यु को वरन करना ही पडा, मगर मृत्यु के बाद भी उस प्राणी का अस्तित्व इस भूमंडल पर और पितृ लोक में बना रहता है| एक विरल रूप में, एक सांकेतिक रूप में, एक सूक्ष्म रूप में और वह प्राणी निरन्तर इस बात के लिये प्रयत्नशील रहता है, जिसकी मृत्यु हो चुकी है और जिसका केवल प्राण ही इस वायुमंडल में व्याप्त है| जिसका प्राण ही सूक्ष्म शरीर धारण किये हुए है, यत्र-तत्र विचरण करता रहता है| इस बात के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है कि वापिस वह कैसा जन्म लें|

जन्म लेने के लिये बहुत धक्का-मुक्की है, बहुत जोश खरोश है क्योंकि करोड़ों-करोड़ों, प्राणी इस वायुमंडल में विचरण करते रहते हैं और जन्म लेने की स्थिति बहुत कम है| कुछ ही गर्भ  स्पष्ट होते हैं, जहां जन्म लिया जा सकता है| उन करोड़ों व्यक्तियों में, उन करोड़ों प्राणियों में आपस में रेलम-पेल होती रहती है, धक्का-मुक्की होती रहती है, एक-दुसरे को ठेलते रहते हैं| क्योंकि प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक जीवात्मा इस बात के लिये प्रयत्न करता रहता है कि यह जो गर्भ खुला है, इस गर्भ में जन्म लूं, इसमें प्रवेश कर लूं और इस धक्का-मुक्की में और इस जोर जबरदस्ती में दुष्ट आत्माएं ज्यादा सुविधाएं प्राप्त कर लेती हैं| ये ज्यादा पहले जन्म ले लेती हैं| जो चैतन्य हैं, सरल हैं,जो निष्प्राण हैं, जो कपट रहित हैं, जो धक्का-मुक्की से परे हैं वे सब पीछे खड़े रहते हैं| वे इस प्रकार से गुंडा गर्दी नहीं कर सकते, धक्का-मुक्की नहीं कर सकते| इस प्रकार से जबरदस्ती किसी गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकते| वे तो इंतज़ार करते रहते हैं इसीलिये इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी व्यक्तियों का जन्म ज्यादा होने लगा हैं| क्योंकि उन सरल और निष्प्रह ऋषि तुल्य योगियों, विचारकों और विद्वानों, कपट रहित प्राणियों का जन्म होना कठिन सा होने लगा है|

तो मैंने कहा कि यह हमारे बस में नहीं है, मृत्यु हमारे बस में नहीं है और जन्म भी हमारे बस में नहीं है परन्तु जो उच्च कोटि की साधनाएं संपन्न करते हैं, जो 'मृत्योर्मा अमृतंगमय' साधना को संपन्न कर लेते हैं| उनके हाथ में होता है कि वह किस क्षण मृत्यु को प्राप्त हों, कहां मृत्यु को प्राप्त हो, किस स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हों और किस तरीके से मृत्युका वरन करें| क्योंकि मृत्यु तो जीवन का श्रृंगार है| मृत्यु भय नहीं है| मृत्यु तो एक प्रकार से निद्रा है जिस प्रकार से रोज रात को हम सोते हैं और नींद के आगोश में होते हैं, उस समय हमें कोई होश नहीं होता है, कोई ज्ञान नहीं होता है, कोई चेतना नहीं रहती है, हम कहां हैं?, किस प्रकार से हैं? हमारे कपड़ों का हमें ध्यान नहीं रहता, हम नंगे है या सही है इसका भी हमें ध्यान नहीं रहता और यदि हम नींद में होते हैं और कोई दुष्ट व्यक्ति चाकू लेकर हमारे सिहराने खडा हो जाता है और वह हमें चाकू घोप देता है तब भी हमें होश नहीं रहता ज्ञान नहीं रहता कि कोई हमें मारने के लिये उदित हुआ है| इसका मतलब यह हुआ हम नित्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं|

निद्रा अपने आप में मृत्यु है और नित्य वापिस सुबह जन्म लेते हैं, नित्य रात्रि मृत्यु को प्राप्त करते हैं| मृत्यु का मतलब है अपने आप में भूल जाने की क्रिया अपने अस्तित्व को भूल जाने की क्रिया, अपने प्राणों को भूल जाने की क्रिया, अपनी चैत्यन्यता को भूल जाने की क्रिया| मगर भूल जाने की क्रिया कुछ घण्टों की होती है, जिसको हम नींद कहते हैं और वह भूल जाने की क्रिया काफी लम्बे अरसे तक की होती है| इसलिए उसे मृत्यु कहते हैं| इस निद्रा में और मृत्यु में कोई विशेष अन्तर नैन है और इसलिए मार्कण्डेय पुराण में स्पष्ट कहा गया है|

या देवी सर्व भूतेषु, निद्रा रूपें संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||

क्योंकि निद्रा भी अपने आप में मृत्यु का पूर्वाभ्यास है, मैंने जैसे बताया कि कुछ विशिष्ट साधनाएं हैं| जिसके माध्यम से हम इस मृत्यु पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं| विजय प्राप्त करना एक अलग चीज है, नियंत्रण प्राप्त करने का मतलब है कि जहां चाहें, जिस उम्र में चाहें मृत्यु को वरन करें| यदि हम चाहे सौ साल की आयु प्राप्त करें तो निश्चित ही सौ साल की आयु प्राप्त कर सकते हैं| १२० साल, २०० साल, ५०० साल, १००० साल तक हम जीवित रह सकते हैं| इस तरह पूर्ण आयु भी प्राप्त कर सकते हैं| यह हमारे हाथ में हैं| यदि हम चाहे तो उन साधनाओं के माध्यम से, जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकते हैं और जिस प्रकार से मृत्यु, हमारी साधनाओं के माध्यम से हमारे हाथ में रहती है, हमारी इच्छाओं पर निर्भर रहती हैं| ठीक उसी प्रकार से मृत्यु के बाद में भी हमारे पास हमारा अस्तित्व, हमारी चैतन्यता बनी रहती है कि हम इस ब्रह्माण्ड में कहां हैं प्राणियों के किस लोक में हैं, भू-लोक में हैं, पितृ लोक में हैं, राक्षस लोक में हैं, गन्धर्व लोक में हैं किस लोक में हैं? और इन सारे लोकों में हा एक सुक्ष अंगूठे के आकार के प्राणी के रूप में बने रहते हैं|

इसलिए प्राणियों को अंगुष्ठरूपा कहा गया है| यानि यह पूरा शरीर एक अंगूठे के आकार का बन जाता है और ऐसे अंगूठे के आकार के प्राणी एवं जीवात्माएं करोड़ों-करोड़ों इस आत्म मंडल में विचरण करती रहती हैं| जहां हमारी दृष्टि नहीं जाती और यदि हम इस मृत्यु लोक से थोड़ा सा ऊपर उठ कर देखें तो करोड़ों आत्माएं जो मृत्यु को प्राप्त कर चुकी हैं बराबर भटकती रहती हैं और उन सब का एक मात्र लक्ष्य यही होता है कि वह वापिस जन्म लेनिन| मगर जन्म लेना तो उनके हाथ में है ही नहीं| जैसा की मैंने बताया की वहां पर भी उतनी ही जोर-जबरदस्ती हैं, कोई ऐसा संकेत नहीं, कोई ऐसी एक नियंत्रण रेखा नहीं है, कोई ऐसा सिस्टम नहीं है कि एक के बाद एक जन्म लेता रहे, ऐसा कोई संभव नहीं है| जिसको जो स्थिति बनती है वो वैसे जन्म ले लेता है| ठीक उसी प्रकार से कि जहां बलवान होते हैं वे किसी भी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और जो बेचारा जमीन का मालिक होता है वो टुकुर-टुकुर ताकता रहता है| ठीक उसी प्रकार से जो दुष्ट ताकतवर आत्माएं होती हैं वे ठेलम-ठेल करके, धक्का-मुक्की करके, जो गर्भ खुलता है उसमें प्रवेश कर लेती हैं और जन्म ले लेती हैं और जो देव आत्माएं होती हैं, सीधे-सरल ऋषि तुल्य व्यक्तित्व होते हैं वह चुपचाप खड़े रहते हैं, २ साल, ५ साल, २० साल, ५० साल उनका जन्म होना ज़रा कठिन होने लगा है| इसलिए इस पृथ्वी पर दुष्ट आत्माएं ज्यादा जन्म लेने लगी हैं| इसलिए इस पृथ्वी पर अधर्म ज्यादा फैला है, इसलिए इस पृथ्वी पर व्याभिचार ज्यादा फैला है, इस पृथ्वी पर छल-कपट, झूट ज्यादा हुआ है| ये इसलिए हो रहा है क्योंकि इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी आत्माएं ज्यादा प्रमाण से जन्म ले रही हैं| उनका जन्म ज्यादा होने लगा है|

[ यह प्रवचन जारी रहेगा.... ]

1 टिप्पणी:

  1. mere bhagya ke uday sahee disha me ho rahein hain..jiskee vajaha se yeha blog spot mila...Tippanee kya karoon...unka pravachan sunana mujhe unse jorta hai..aik sambandh jo kaee janmo kaa hai... bahut samay waste ho gaya ...yeha blog tou bahut samay se hee tha...Me bahut samay se Sadgurudev ke pravachan sangrahit kar raha hoon jo MTYV me nikalte rahe..unkee photo copy lekar..Mai 1997 se regular MTYV patreeka par raha hoon..sambhal kar rakhee huee hain..unkee charch apane doston me karta hoon..mei Nikhil Jee ka samarpit sadhak hoon aur apnee traha se aur apnee kabiliyat se unka kaha jeevan me utar raha hoon...mai kya yaha pravachan word document me copy kar sakta hoon..uskee kya vidhee hogee ? ?Koshis karee kar naheen paya. Aik aur bat bhee hai...mai hindi me hee tipanee likhana cahata hoon...samajh nahee pa raha vaisa karne ke liye mujhe konsee setting change karnee paregee...mere computer me Hindi Ka Susha Font hai.

    जवाब देंहटाएं