रविवार, 28 मार्च 2010

गुरु कृपा से कुल देवी की कृपा

 गुरु आये और मैं जान भी नहीं पाया 
लेकिन
गुरुदेव तो कृपालु है,
इस जन्म के क्या पूर्व जन्म के शिष्यों का ध्या रखते है 
जब मैंने कुल देवी की कृपा प्राप्त की

यद्यपि मैं संन्यासी तो नहीं रहा हूं, पर अपनी आदतों और स्वाभाविक प्रवृत्तियों को देखकर मैं अपने आप को किसी संन्यासी से कम भी नहीं समझता था| अकेले ही जंगलों में भटकना, और जड़ी-बूटियों की खोज करना यह मेरा बचपन से शौक था| यद्यपि आज मैं एक नागरिक जीवन व्यतीत कर रहा हूं, परन्तु आज भी मुझे बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं, जब मैं गाँव में अपने पिता  के साथ रहता था| वे गाँव के एक प्रसिद्द वैद्य थे| आज मुझे आयुर्वेद का जो अच्छा ज्ञान है, वह सब उनके साथ रहने से ही हुआ है|

उन दिनों मेरी आयु लगबघ १८ वर्ष की रही होगी| मैं गाँव के समीपवर्ती जंगलों में अमलतास, गिलोय, अपामार्ग, श्वेतार्क, सर्पगंधा, कठ्चंपा आदि औषधियों की तलाश में गया था| प्रकृति के मध्य जब मैं होता हूं तो प्रायः उसमें खो जाता हूं, और उस दिन मैं अपनी मस्ती में जंगल से सुदूर भीतर आ पहुंचा था, जिस स्थान पर शायद ही कोई आया हो| इस का एहेसास मुझे तब हुआ, जब आसमान से हल्की-हल्की फुहारें शरीर पर पड़ने लगी| बरसात का मौसम चल रहा था, औषधियों को ढूँढना तो दूर मैं उमड़ते मेघों को ही देखता रहा, बारिश मूसलाधार हो रही थी, मैं बारिश के रुकने तक पीपल के एक पेड़ के नीचे खडा रहा, परन्तु बारिश रुकने का नाम तक न ले रही थी| थोड़ी देर में अन्धेरा गहराने लगा और दिशा भ्रम के कारण मैं घर का मार्ग भूल चुका था| अब मैं सूर्योदय तक वहीँ रुकने को विवश था|

रात्रि के गहन अंधकार में दूर-दूर तक किसी प्रकार की कोई सहायता मिलने का आसार नहीं था| वृक्ष के नीचे खड़े होकर मैं स्वयं को वर्षा से बचाने की चेष्ठा तो कर रहा था, परन्तु फिर भी पानी और ठण्ड से मुझे कंपकंपी सी लग रही थी| कुछ देर में मुझे ऐसा लगा कि दूर कहीं घण्टी बजने की आवाज आ रही हैं, ऐसा लग रहा था कि पास ही कोई मंदिर है, और कोई उसमें आरती या पूजा कर रहा है| मुझे लगा कि यदि मंदिर होगा तो रात्रि में वहां आश्रय मिल सकता है, फिर सुबह घर वापिस निकल चलूँगा| उसी आवाज की दिशा में अँधेरे में आगे कुछ दूर चलने पर गोल चबूतरे पर बना छोटा सा मंदिर दिखाई दिया| मन्दिर के भीतर चिराग का प्रकाश बाहर तक आ रहा था| देखने से लग रहा था, कि मन्दिर पुराणी ईटों से बना हुआ है और उसकी हालत देखकर ऐसा लगता था, जैसे यहां कोई आता नहीं हो| परन्तु अन्दर दीपक होने और घण्टी की आवाज सुनाई देने से इतना तो कहा जा सकता था कि कोई न कोई अवश्य ही वहां का रख रखाव करता है| आस-पास घूमकर भी देखा, परन्तु कोई नजर न आया, तो मैंने मन्दिर में प्रवेश किया| मन्दिर क्या था, चार दीवारों और एक छत से मिलकर बना एक कक्ष मात्र था, जिसमें पूर्व दिशा की ओर एक देवी की मूर्ती स्थापित थी| मूर्ती पुरानी थी, उसके पास दीपक जल रहा था, परन्तु आस पास इतनी अधिक धुल जमी थी, कि यह समझ नहीं आ रहा था, कि जिसने दीपक जला कर रखा है, क्या वह साफ सफाई नहीं करता है|

कुछ भी हो, मैं प्रसन्न अवश्य था, कि मुझे रात्रि में वर्षा से भीगना नहीं पडेगा| यही सोचकर मैंने उस स्थान की साफ सफाई की, मूर्ती पर जमी धुल को झाड-पौंछ कर साफ कर दिया और उस कक्ष को दीपक की रोशनी में पूरा साफ कर लकड़ी के एक तख्ते पर, जो वहीँ रखा था, पर लेट गया, एक मस्त संन्यासी की भांति| दिन भर की थकावट से थोड़ी ही देर में मुझे नींद आ गई|

रात्रि  का दूसरा पहर था, मुझे ऐसा लगा कि धरती हिल रही है और मैं अपने को सम्हाल नहीं पा रहा हूं, वातावरण दुर्गन्ध से भर गया, ऐसा लगा जैसे कोई जानवर पास ही कहीं मर गया हो| मैंने दुर्गन्ध से नाक बंद कर ली, परन्तु आँख से जो दृश्य दिखा उससे मेरी घिग्घी बंध गई - सामने एक औघड लाल लाल आँखें किए मुझे घूरे जा रहा था, उसके हाथ में एक लंबा फरसा था, उसके पुरे शरीर पर गुप्त अंगो को ढकने के अलावा कुछ भी न था| पूरा बदन बेडौल और वीभत्स, कि देखते ही व्यक्ति बेहोश हो जाय| वह दुर्गन्ध उसके ही शरीर से आ रही थी| अब वह मेरी ओर बढ़ रहा था, और मुझे घबराया हुआ देखकर वह जोरों से अट्टाहास करने लगा|

मैं बुरी तरह घबरा गया था, मुझे साक्षात अपनी मृत्यु ही दिखाई दे रही थी, त्योंही मैंने मन्दिर के द्वार के बाहर भागने की कोशिश की, वह भी मेरी ओर जोरों से लपका| मैं पुरी जान लगाकर अंधाधुंद भागता रहा, काफी दूर निकल जाने पर मुझे एक संन्यासी के दर्शन हुए| संन्यासी को देखते ही मेरा भय जाता रहा, मुझे ऐसा लगा कि इस संन्यासी के होते हुए मेरा कोई भी अमंगल नहीं हो सकता है| संन्यासी ने मुझे निर्भय होने के लिये कहा, और बताया कि जिस मन्दिर में तुम अभी थे, वह तुम्हारी कुल की देवी - जंगल माई का मन्दिर है| बस्ती से दूर होने के कारण यह मन्दिर बिल्कुल ही उपेक्षित सा हो गया है| इस मन्दिर में तुम्हारे ही पूर्वजों ने देवी मूर्ती स्थापित की थी, आज से बीस वर्ष पूर्व तक भी लोग इस मन्दिर में पूर्णिमा के दिन और हर शुभ अवसर पर आकर पूजा आदि करते थे, पर अब इसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है| इसी वजह से इतर योनियों का यहां बसेरा हो गया है, जिससे देवी अप्रसन्न है| यदि इस मन्दिर में पुनः लोग आने लगे, तो उन्हें जंगली माई की कृपा प्राप्त हो सकेगी|

यह बोलकर संन्यासी ने मेरे सर पर हाथ फेरा, मुझे मन में बड़े आनन्द की अनुभूति हुई| मेरा रोम-रोम खिल उठा था, इसी आनन्दतिरेक में मेरी आँख खुल गईं, मैंने देखा कि सुबह होने वाली है, और मैं स्वप्न देख रहा था| आँख खुलने के बाद मुझे मन में विशेष प्रसन्नता अनुभव हो रही थी, मैंने मन्दिर की पुरी धुलाई की, मूर्ती को जल से साफ किया और मन्दिर के बाहर लगे कुछ फूलों को तोड़कर मैं देवी प्रतिमा पर अर्पित किए और प्रणाम कर घर की ओर वापस लौट आया|

रात भर घर न पहुंच सकने के कारण घर पर लोग चिंतित थे, परन्तु मुझे सकुशल पाकर प्रसन्न हो गए| मन्दिर में रात्रि व्यतीत करने वाली घटना मैंने घर में सभी को बताई, तो मां ने मुझे वहां पर फिर न जाने की हिदायत दी| मां ने कहा - 'उस मन्दिर में कोई जाता नहीं है, वहां पर रात में औघड़ तांत्रिक नर बलि एवं पशु बलि दे कर कई क्रियाएं करते हैं| वहां पर जो भी जाता है, वह या तो पागल हो जाता है, या उसकी मृत्यु हो जाती है| अब तुम उधर कभी मत जाना|'

मेरा परिक्षण कर मां ने जब मेरा माथा छुआ, तो बोली, - 'तेरा माथा तो तप रहा है, तुझे तो तेज बुखार है, यह सब उस मन्दिर में जाने से ही हुआ है|'

बुखार में ही लेटा रहा घर में रात्रि मुझे पुनः स्वप्न आया, और मुझे पुनः संन्यासी के दर्शन हुए उन्होनें कहा - 'बेटा! तू व्यर्थ में परेशान हो रहा है, तेरी तबीयत तो वर्षा में भीग जाने से खराब हुई है, वैसी कोई बात नहीं है जसी तू या तेरे घर वाले सोच रहे हैं|  उल्टे जंगली माई तो तुम पर बहुत प्रसन्न है, तुने मन्दिर की धुलाई कर, मूर्ती साफ कर उस पर पुष्प चढ़ाएं हैं इतने वर्षों के बाद| वहा कोई औघड नहीं है, तू वहां नित्य सुबह जाकर फूल चाढाएगा तो  तेरा कल्याण होगा, देवी स्वयं तेरा कल्याण करने को आतुर है|'

दुसरे दिन प्रातः निद्रा खुली तो यद्यपि बुखार तो अभी भी था, परन्तु मैं मन में पुरी तरह आश्वस्त था कि निश्चय ही मेरे जीवन में किसी शक्ति की कृपा हो रही है| पिताजी की औषधियों से दो दिन में मैं स्वस्थ हो गया और अगले दिन से नित्य सुबह मैं उस मन्दिर में जाता, वहां साफ सफाई कर पुष्पादि चढ़ाकर अगरबत्ती आदि लगाकर आ जाता| मात्र इतनी ही थी मेरी पूजा या साधना| परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में मुझे देवी के दर्शन हुए और उसके बाद फिर एक के बाद एक मुझे सफलता मिल गई, प्रतिभा और क्षमता का ऐसा विकास हुआ कि कॉलेज में उच्च स्थान आने लगा, बाद में उच्च श्रेणी का सरकारी पद प्राप्त हुआ, घर परिवार में हर प्रकार के साधन उपलब्ध हो सके, ये सब मात्र बचपन में कुलदेवी के मन्दिर में की गई सेवा के फलस्वरूप हुआ है|

आज के कुछ वर्ष पूर्व मैं किसी कार्यवश ट्रेन द्वारा यात्रा कर रहा था कि गुजरात वडोदरा स्टेशन पर एक सज्जन से मेरी मुलाक़ात हुई जो कि मेरी ही सीट के सामने आकर बैठे थे| उनके हाथ में 'मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान' का जुलाई-९३ का अंक देखा, जिस पर सदगुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी का संन्यासी चित्र छपा था| कवर के चित्र को देख कर मैं एकदम से चौंक गया, क्योंकि वह चित्र बिल्कुल उस संन्यासी के चेहरे से मिलता था, जिन्होनें मुझे मेरी कुल देवी के बारे में जानकारी दे कर स्वप्न में मुझे उनकी सेवा करने का आदेश दिया था| बाद में मैंने उन सज्जन द्वारा जानकारी प्राप्त कर पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली अर्थात स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से गुरु दीक्षा प्राप्त की| उन्हीं ने मुझे कुलदेवता/देवी की प्रामाणिक साधना स्पष्ट की, जिससे मैं अपनी कुलदेवी और कुल देवता के पूर्ण दर्शन कर कृत-कृत्य हो सका|

आज भी जब भी मैं किसी समस्या से ग्रस्त हो जाता हूं, तो मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कुलदेवी के दर्शन हो जाते हैं| समय बीता और मैं तो शहर चला गया पर गाँव के सदस्य आज उस मन्दिर में बड़ी श्रद्धा से जाकर पूजन करते हैं, आज वहां एक पुजारी अलग से नियुक्त है| कुलदेवी की कृपा से आज गाँव में हमारे कुल के सभी घरों में सम्पन्नता है, और लोग विकास कर रहे हैं| उसके बाद तो पूज्य गुरुदेव के सान्दिध्य में मैंने और भी साधनाएं संपन्न की, परन्तु जो सफलता और प्रत्यक्षीकरण की स्थिति मुझे इस साधना में मिली उतनी अधिक सफलता मुझे अन्य साधानाओं में न मिल सकी| निश्चय ही कुल देव या देवी अपने कुल के मनुष्यों के संरक्षक होते हैं, परन्तु जब हम स्वयं ही अपने कुल के देवता की सहायता न लेकर अन्य कही भटकते हैं, तो उन्हें कष्ट होता है, और वे सहायता करना चाहते हुए भी असमर्थ हो जाते हैं, और फिर उन के खिन्न या रुष्ट रहने पर परिवार में समृद्धि, सुख, सफलता होनी चाहिए थी, वह हो नहीं पाती हैं|

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जनवरी २००७

5 टिप्‍पणियां:

  1. विक्रम जी आपके ब्लांक पर आकर बहुत अच्छा लगा ।मन को न जाने क्यो सकून सा मिला । आप बहुत भाग्यशाली है जो आप पर श्री गुरुदेव जी की कृ्पा हुई और आप को कुलदेवी जी की कृ्पा प्राप्त हुई । धन्यवाद आपका जो आपने इस जानकारी को हमारे समक्ष बांटा ।

    जवाब देंहटाएं
  2. जय गुरुदेव जी
    आपका बहुत शुक्रिया. यह तो एक सिर्फ एक लेख है जो की पत्रिका में छपा हुआ था, मेरी कहानी नहीं हैं. ऐसे तो काफी भाग्यवान गुरुदेव के शिष्य है.

    जवाब देंहटाएं
  3. और एक बात, गुरुदेव के सान्निध्य में आके, मन को सुकून तो मिलना ही हैं :)

    जवाब देंहटाएं
  4. jai guru dev,
    papakush sadhna karna chahata hu margdershn kar, is sadhna se sambandite..........saaman kaise prapte kia jasakta hai.......

    जवाब देंहटाएं
  5. guru ji,
    kuch din mere saath kuch ajib ajib si saabey ho rahi hai............ mae bhagvan me vishwas rakhta hu.... or chijoo me nahi ( bhoot or bhootni ) ............... kuch din phale meni kisi parchi ko dekha vo mere samne thi or palk japakte invisible ho gai........... or usi din se yakshni sidh karne ka maan karta hai .................... mujh par kirpa kare.............

    जवाब देंहटाएं