इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।
दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।
कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।
उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।
मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"
उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"
उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।
पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"
पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"
मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।
किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।
पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।
साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।
- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६
बीच का अंश छाप कर, सुलगाई उत्कंठा.
जवाब देंहटाएंमन्त्र-तन्त्र पत्रिका की जागी है उत्कंठा.
जागी है उत्कंठा,करुँ साधना मैं भी.
अपने भारत के हित,काम आ जाऊँ मैं भी.
यह साधक भी तन्त्र-मन्त्र का दीवाना है.
देश-धर्म पर मार-मिटाने का ठाना है.
some rain dros for a person who is thirsty in between Ocean having no other mean to full fill his desire, Only he can do is "Wait", which I am doing.
जवाब देंहटाएंuttam jankari
जवाब देंहटाएंभैरव तंत्र साधना
जवाब देंहटाएंकैसे करे