हरिस्ते शान्तत्वं भवत जन कल्याण इति वै
समस्त ब्रह्माण्ड ज्ञनद वद श्रेयं परित च ।
ऋषिरवै हुंकार क्वच क्वद च शास्त्रार्थ करतुं
अहत हुंकारैर्ण श्लथ भवतु योगीर्न श्रीयतः ।।
पहली बार आपने विव्दाग्नी ऋषि के प्रचंड क्रोध का सामना किया, पहली बार सुश्रवा, मुद्गल आदि ऋषियों से शास्त्रार्थ कर उनके अहं को परास्त किया, और पहली बार आपने सिद्धाश्रम में डंके की चोट पर ऐलान किया - "जिस किसी भी में अहं हो और जो भी योगी, संन्यासी, सिद्ध किसी भी स्थान पर, किसी भी विषय पर, कभी भी शास्त्रार्थ करना चाहे, मैं तैयार हूं।
पर आपकी इस हुंकार ने उनको अपनी-अपनी कुटियाओं में दुबक कर बैठने के लिए विवश कर दिया ।
नतमस्तक होना और पराजित होना तो शायद आपने सीखा ही नहीं। जीवन में जो कुछ भी किया, पूर्ण पौरुषता के साथ किया । आपने अपने ज्ञान से, अपनी चेतना से इस बात को समझा कर पुरे सिद्धाश्रम में यह स्पष्ट कर दिया, कि आप से टक्कर लेने वाला कोई दुसरा योगी, यति या संन्यासी पैदा ही नहीं हुआ, और अभी हजार वर्ष तक भी कोई पैदा नहीं हो पाएगा ।
एक प्रकार से देखा जाय, तो भारतीय ज्ञान को पूर्णता के साथ स्पष्ट करने की क्रिया केवल आप ही के माध्यम से हुई है । यदि वेद को कोई आकार दे दिया जाय, तो वह केवल आप हैं । आप स्वयं वेदमय हैं, वेद आप में समाहित हैं, और आपको देखकर ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद की सांकार प्रतिमा आंखो के सामने स्पष्ट हो जाती है ।