'अगले बीज 'यो' का अर्थ है - 'योनी'| मानव जन्म के विषय में कहा जाता है, कि यह तभी प्राप्त होता है, जब जीव विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में विचरण कर लेता है, परन्तु इस बीज के दिव्य प्रभाव से व्यक्ति अपनी समस्त पाप राशि को भस्म करने में सफल हो जाता है और फिर उसे पुनः निम्न योनियों में जन्म लेना नहीं पड़ता|
'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'
मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|
भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...
'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'
सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|
'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'
'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'
एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|
'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'
'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'
'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -
अर्थात 'पुत्र तो कुमार्गी एवं कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती| वह हमेशा ही अपनी संतान को अपने जीवन से ज्यादा महत्त्व देती है|'
'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'
त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|
मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...
'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'
'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'
उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|
'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'
- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'
ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -
बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|
..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -
'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'
मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|
भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...
'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'
सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|
'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'
'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'
एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|
'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'
'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'
'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -
'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति|'
'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'
त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|
मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...
'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'
'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'
उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|
'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'
"श्री सार्थक्यं नारायणः'
- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'
ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|
..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -
नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २०१०
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