शाक्त-उपासकों-साधकों की यह इच्छा रहती है कि उन्हें भगवती जगदम्बा पराम्बा आद्या शक्ति के दर्शन हो, यह सम्भव है केवल गुरु कृपा और गुरु शक्तिपात से। मेरा सौभाग्य है कि सदगुरुदेव से मुझे 'पराम्बा शक्तिपात दीक्षा' प्राप्त हुई और मैं माँ भगवती की साधना निरंतर कर सका।
देवालयों की मधुर घंटा ध्वनि ! कुमारिकाओं का झुंड देव पूजन कर वापिस चल पडा था। बगल में माँ गंगा की निर्मल धारा अविराम गतिशील थी, वहीं मेरी आत्मा के छवि, जिसकी प्रतीति गुरु चरणों से हो सकी थी। प्रथम बार मैंने अनुभव किया, एक गंगा मेरे भीतर भी सतत प्रवाहमान है। इसी निर्मल आकाश का प्रतिबिम्ब लिए हुए और उस पुण्यसलिला गंगा की एक-एक हिलोरे मन में उतर कर आसुओं के रूप में तरंगित हो उठी।
बचपन से मातृहीन था, तब भी किसी की माँ-माँ की पुकार मात्र से मेरी आखें सजल हो उठातीं। किसीप्रकार धरा पर लौटते हुए ह्रदय की ज्वाला शांत करने का यत्न करता। पिताअवश्य ही ऋषितुल्य व्यक्ति थे, उनके प्रगाढ़ धर्मानुराग से ही मेरे भीतर सदभावना के बीजों का अंकुरण हुआ था। लेकिन 'मां-मां' पुकार से शान्ति बोध करने पर भी 'मां' ही प्राणी मात्र का सर्वस्व है - इस सत्य का बोध न हुआ। सदा ही यह आकांक्षा बनी रहती, कि एक सजीव मूर्तिमयी मां का दर्शन लाभ प्राप्त करून, जिसकी स्निग्ध , ज्योतिर्मय दृष्टी से यह दग्ध ह्रदय ही बदल जाय।
मातृ-भाव की इस चरम क्षुधा को शांत करने का कोई उपाय न था। यत्र-तत्र परिव्राजक के समान भ्रमण करता फिरता रहा, परन्तु अपने प्राणों के लिए जिस वास्तु को व्याकुल भाव से खोज रहा था, उसे कहीं न पाने से, ज़रा भी तृप्ति नहीं होती थी, संसार की किसी भी योग्य वास्तु में मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं था, ह्रदय में जो व्याकुलता, वेदना घनीभूत होकर मुझे पीड़ित कर रही थी, उसके प्रभाव से संसार का कोई भी रमणीय दृश्य चित्त में परिवर्तन नहीं कर सका था। घंटों मौन भाव से किनारे बैठा संन्यासी वेश धारियों को निहारा करता था, कि ... शायद कहीं कोई अवलंबन मिल जाय।
जीवन के इस वर्तुल में वह क्षण भी आ पहुंचा, जब स्वयं काल ने ही मुझे धकेल कर उस पथ पर खडा कर दिया, जो गुरु का पथ है, शाश्वत पथ। निश्चित रूप से उस नित्य लीला विहारिणी की इच्छा के बिना, उसकी कृपा गुजरे बिना, कोई शाश्वत पथ पर जा ही नहीं सकता। यह न तो मेरे पुण्य कर्मों का सफल लगा और न ही मेरा कोई प्रकृति प्रदत्त अधिकार, बल्कि प्रकृति स्वरूपा मां भगवती ही कोई कृपा-कटाक्ष, उनकी अनुकम्पा मुझे गुरुदेव के पास ले चला, ... बिना शक्तिमय हुए भला कौन गुरु साहचर्य में जा सका है?
... और इस प्रकार जगज्जननी काल के किसी विशेष क्षण पर आरूढ़ होकर, मेरी उंगली पकड़ कर उस चैतन्य माध्यम तक ले आयीं, जो परम पूज्य गुरुदेव का पवित्र विग्रह है। मेरा परिचय मेरे प्राणाधार गुरु से करवा आयी। परन्तु जो कटाक्ष, जो संकेत आज गूढ़ रहस्यों को उदघाटित करते प्रतीत हो रहे है, तब क्या वे समझ में आ सके थे? पूर्णतया अनजान था मैं ... एक अबोध शिशु की ही भांति, जिसे किसी हलचल व् उत्सव का बोध तो है, किंतु वह उसका कारण अर्थ नहीं समझता। उस समय तो सब कुछ एक कौतुक ही लगा था।
शुष्क देह में प्राणों का संचार
गुरु दीक्षा प्रदान करने के उपरान्त गुरुदेव समझा रहे थे - 'शक्ति मंत्र तुम्हारा इष्ट है। जगज्जननी महाशक्ति की मातृभाव से उपासना करके ही तुम्हें साधना क्षेत्र में अग्रसर होना होगा। अभी से उसके लिए प्रस्तुत हो जाओ, स्वयं संतान होकर जगज्जननी को प्रत्यक्ष अनुभव करने की अभिलाषा करो तथा समग्र रमणी मूर्ति में ही उस परम मातृशक्ति को देखने का अभ्यास करो'। इस प्रकार मेरी अन्तः प्रकृति को अपने विशुध्व दिव्य चक्षुओं के माध्यम से गुरुदेव ने पल भर में ही भांप लिया था।
मन में विचित्र आन्दोलन उपस्थित हुआ। मंत्र साधना, अनुष्ठान आदि के गूढ़ विषयों पर तो कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया था। अत्यन्त असहाय और कातर नेत्रों से सर उठा कर गुरुदेव की और निहारने लगा। कुछ क्षणों में मेरी आग्रहपूर्ण प्रार्थना का स्नेहिल प्रत्युत्तर मिला। स्मित हास्य के साथ गुरुदेव कह रहे थे- 'तुम्हारी अन्तः वेदना मुझसे छिपी नहीं है, आज ही तुम्हें विशेष शक्तिपात युक्त दीक्षा प्रदान करूंगा। योग कि कठिन क्रियाओं में जीवन खपाने की फिर तुम्हें कोई आवश्यकता नहीं होगी, दीक्षा के द्वारा वही असंभव प्रतीत होने वाला कार्य क्षण भर में पूर्ण हो सकता है'।
दिवस पर्यंत निराहार रहने के उपरांत जब डूबते सूरज की सिन्दूरी रंग पत्ते-पत्ते पर बिखरता हुआ गुरुधाम को लालिमा और सुनहरी आभा से भरता हुआ मानों गुरु चरणों में अभ्यर्थना कर रहा था, पूज्यपाद गुरुदेव मुझे आंगन में बिठा कर दीक्षा देने में संलग्न थे - "पूर्ण शक्तिपात युक्त पराम्बा दीक्षा' - जिसमें मेरी अंतर्देह को विशिष्ट मंत्रों और अपनी तेजस्विता व् तपः ऊर्जा द्वारा झंकृत कर रहे थे; पुरे अंतराल में मैं अपने शरीर के कण-कण में नविन प्राणों को संचरण स्पष्ट अनुभव कर रहा था। दीक्षा के अंत में रोम-रोम में गुंजरित होती पूज्यपाद के आर्शीवाद की ध्वनि, वृक्ष पल्लवों से छन कर आती शरद की सुखद उष्मा युक्त सूर्य की किरणों के समान मुझे चैतन्य व् पुलकित कर गई थी।
तद्पुरान्त एक विशिष्ट यंत्र एवं प्राणाश्चेतानायुक्त दिव्य माला प्रदान कर मुझे वापस लौट जाने की आज्ञा मिली। मैं भावविभोर हो चला था। अन्ततः गुरु चरणों में सर्वस्व आत्म समर्पण का संकल्प करते हुए वापिस काशी की और प्रस्थान किया। मंत्र तथा उसके विधि-विधान को स्पष्टता के साथ डायरी में लिख लिया था, परन्तु साधनात्मक पृष्ठभूमि न होने के कारण मेरा मन सदैव आशंकित रहता, अनुष्ठान प्रारंभ करने का साहस ही नहीं कर पा रहा था। कभी-कभी क्षुब्ध होकर सोचता, केवल युक्ति तर्क के द्वारा साधक के लिए आध्यात्मिक जीवन में अग्रसर होना सम्भव नहीं। विश्वास ही मूल है, जो लौकिक दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है, विश्वास के बल से ही वह संघटित हो सकता है। अतः मन-प्राण से सदगुरू का आश्रय ग्रहण कर लिया, कि वे स्वतः ही ढकेल कर आगे ले चलेंगे।
इसके आगे कुछ बोध ही कहां था? न कोई भावभूमि, न ही कोई उच्चता। परन्तु दीक्षा के बाद से ही मां का आकर्षण ह्रदय में प्रगाढ़ भाव से अनुभव करता। साथ ही संसार की सभी विघ्न-बाधाओं के मध्य भी उन नित्य चैत्यन्य स्वरुप श्री गुरुदेव की छवि, उनकी मनोहारी स्निग्ध दृष्टी हर समय मुझे पागल भाँती आकुल कर रही थी, उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हर क्षण ह्रदय में उत्कंठा रहती। कब उनके श्री चरणों में आश्रय पाकर नित्यानन्दमयी मां का दर्शन लाभ कर सकूंगा - सदैव एकमात्र यही ध्यान रहता। अन्तर ही गहन पीडा के प्रभाव से धीरे-धीरे अन्न-जल सब छूटने लगा।
निराहार, अनिद्रा और मन की व्याकुलता ही मुझे गंगा तट पर खींच लायी थी, ज्यों बिछडा हुआ बछडा अपनी मां को खोजता है, वैसी ही मैं कुछ देर बैठे रहने के उपरांत इधर-उधर चक्कर काटने लगा। उस समय मेरे ह्रदय में भी मां के कल्पित श्री चरणों के लक्ष्य की निरंतर उच्छवास ध्वनि हो रही थी, उनके बिना जीवन की कल्पना भी भयावह प्रतीत होने लगी। सायं काल गंगा जल का पान कर वहीं घाट पर निद्रा के आगोश में खो गया।
सजीव जगज्जननी का दर्शन
दुसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही, जब क्षुधा की ज्वाला से पीड़ित एवं ह्रदय की वेदना से दग्ध चुपचाप लेटा हुआ मैं सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा था, कि कुछ अदभुद सा सुनाई पडा। ऐक स्त्री उस घाट पर आकर मेरा नाम लेकर मुझे पुकार रही थी। अभी तक मैं आखें बंद कर चिंतन कर रहा था; उसकी पुकार को सुन मैंने नेत्र खोले और ध्यान से देखने लगा -
रक्त वर्णीय परिधान से सुशोभित एक तरुण स्त्री मेरे सम्मुख ही खडी थी। उसके हाथों में स्वर्ण निर्मित एक थाली थी। उसकी आकृति अत्यन्त दिव्य व् लावण्यमयी थी, केशर मिश्रित दुग्ध सा गौर वर्ण, मेघ रुपी लहराती खुली केश राशि व् ग्रीवा में गुलाब के पुष्पों का कंठाहार... लगा जैसे उसके रोम-रोम से प्रकाश फूट कर पुरे स्थान को आलोकित कर रहा है। मैंने नेत्र पुनः भींच लिए। स्निग्ध प्रकाश होने पर भी वह इत्नना तीव्र था, कि दूसरी बार देखने का साहस ही नहीं हुआ।
पूरा वातावरण दिव्य, मनमोहक सुगंध से आप्लावित हो उठा था। इसी अवस्था में मैं उस देव स्वरूपिणी स्त्री के साथ अत्यन्त अंतरंगता से वार्तालाप करने लगा, मानों मैं जन्म जन्मान्तर से उनका अत्यन्त परिचित हूँ। तभी दूसरा आर्श्चय यह हुआ, कि नेत्र बंद करने पर भी ऐसा अनुभव हुआ, जैसे वह प्रकाश अपने भीतर से बाहर फूट रहा हो। उस स्त्री ने पुकार कर अत्यन्त स्नेहपूर्ण स्वर में कहा- 'गंगा स्नान नहीं करोगे, विलंब हो रहा है।'
अब मैंने हाथ की अंगूलियों की दरार से थोडा नेत्र खोल कर देखा - वे स्वर्ण थाली में पुष्प चुन रही थी। उस निर्जन स्थान पर एक अश्वत्थ वृक्ष के चातुर्दिक नाना प्रकार के फूलों के व् तुलसी के पौधे लगे हुए थे, उन्हीं में से वे तुलसी दल चुन कर थाली में सजा रही थी।
प्रेम की साकार पून्जस्वरूपा उन्होनें पुनः कहा - 'चलो! गंगा स्नान कर लो।' बिना किसी संकोच के मैंने भोलेपन से उत्तर दिया - 'हमारे घर में गंगा स्नान के लिए तिल, धुप, दीप आदि की आवश्यकता होती है'... कहने के साथ मैंने देखा, उसकी थाली में तिल, धुप, हर्रे, दीप रखे हुए हैं। मैं विस्मय से संकुचित हो उठा।
उन्होनें मृदु भाव से हंसते हुए कहा - ' तुम यहाँ क्यों आए हो? मैं तो सभी के भीतर हूं।'
उस समय मैं अपने भीतर एक अत्यन्त मधुर शब्द का गुन्जरण सुनने लगा। वह किस प्रकार का शब्द था, वह वर्णन नहीं किया जा सकता, पर मुझे वह वीणा और बांसुरी की मिश्रित ध्वनि के समान अनुभव हुआ, उस दिव्य स्वर माधुरी से विमोहित हो मैं स्वयं को भूलने लगा।
तभी उन्होनें मुझे अपना मुंह खोलने की आज्ञा दी, जैसे ही मैंने अपना मुंह खोला, मुंह खोलते ही मुझे सुनाई पडा, कि मेरे मुंह और कर्णछिद्रों के भीतर से वह ध्वनि निकल रही है।
पुनः मुझे चैतन्य करते हुए उनकी वाणी गुंजरित हुई - 'मैं इस शब्द के पीछे ज्योतिर्मय आलोक रूप में हूं और आलोक के पीछे सर्वदर्शी, सर्वसाक्षी के रूप में विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूं।' इतना कह कर वह मंथर गति से गंगा की और बढ़ गयीं। मंत्रमुग्ध की भांति मैं पीछे-पीछे चलने लगा।
महाशक्ति का लीला विलास
स्नान घाट के निकट ही महाश्मशान था, वहीं जाकर वे रूक गयीं। उनकी आंखों में आसीम करूणा और वात्सल्य का निर्झर प्रवाहित हो रहा था, मेरे मस्तक पर अपना दाहिना रख कर वे बोली - 'घर लौट जाओ। मैं तुम्हारे घर के मन्दिर में स्थायी रूप से रहूंगी। तुम्हारी अत्यन्त उच्चस्तरीय दीक्षा के कारण ही मुझे यहां आने को बाध्य होना पडा, पर स्थायी रूप से मुझसे व्यवहार करने के लिए साधना पथ पर अग्रसर होना आवश्यक है। इसके लिए गुरु कृपा ही एकमात्र संबल है, उनकी कृपा के बिना पूर्णत्व सम्भव के पथ पर कुछ भी लाभ की संभावना नहीं। सत्य दर्शन होने पर भी जिसके द्वारा जीवन का वास्तविक, अत्यन्त जाज्वल्यमान ब्रह्म स्वरुप का दर्शन लाभ कर सकोगे, अभी केवल बालक के समान उनका हाथ पकड़े रहो।'
इतना कह कर उनका हाथ अभय मुद्रा में उठ गया। हाथ का उठना था, कि मेरे नेत्रों के समक्ष कई-कई सूर्यों का प्रकाश, जो अत्यन्त शीतल था, जगमगा उठा और उसी के मध्य मैंने देखा - परम आराध्य श्री गुरुदेव श्रीमालीजी राथारूड अप्पोर्व तेजस्विता और शरत चन्द्र की भांति निर्मल प्रसन्नता का प्रसार था, रोम-रोम से असीम ममत्व और करूणा प्रस्फुटित हो डिग-इगंत को आलोकित कर रही थी... दूसरे ही क्षण दृश्यपटल साफ हो गया, वे देवी भी अंतर्ध्यान हो चुकी थी।
पूर्ण ब्रह्ममयी उन जगज्जननी को साष्टांग प्रणाम कर मैं घर लौट चला। प्राची में सूर्योदय हो चुका था, पर मेरे मन में तामस को भेदने वाले उन कोटि-कोटि शीतल सूर्यों के प्रकाश में मैं अपनी परमवात्सल्यमयी शाश्वत मां का परिचय गुरुदेव के रूप में पा चुका था।
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, अगस्त २००९
बहुत सुन्दर अद्भुत पोस्ट आपको बहुत बहुत बधाई
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