पूर्णिमा का दिन वाराणसी का प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट। जगह-जगह चिताएं जल रही है, चड्ड़-चड्ड़ कि आवाज के साथ मृत मानवों के चर्म, मांस-मज्जा जलकर वातावरण को अजीब सी गंध से भर देते हैं। घाट के किनारे ही डोम का घर, और उस के पास ही छोटी-सी बगीची - जहां से पुरा श्मशान घाट और जलती हुई चिताएं साफ़-साफ दिखाई दे रही है।
पिछले दो महीनों से मैं हिडिम्बा साधना कर रहा था। मेरे साथ थे योगी निखिलेश्वरानंन्द, फक्कड़, मस्त, निर्द्वन्द्व, निस्पृह, कोई माया-मोह-ममता नहीं, न काया कि चिन्ता और न माया कि परवाह, अदभुत व्यक्तित्व से सम्पन्न, पैरो में खडाऊं, कटि पर धोती, शरीर का उपरी भाग अनावृत्त, कोई वस्त्र नही। लंबी जटाएं, देदीप्यमान चेहरा, दिप-दिप कराती ज्वलित आंखें। कुल मिलाकर पुरा व्यक्तित्व एक अपूर्व, चुम्बकीय शक्ति से आवृत, पर यह फक्कड़ व्यक्तित्व अकेला, एकांत प्रिय, साधना मे लीन, तल्लीन, कठोर-से-कठोर साधना करने को तैयार, पिछले कुछ महीनों से अघोर साधना मै रत था। श्मशान साधना, चिता साधना, शव साधना, अघोरियों के बीच साधना मे रत, कोई हिचकिचाहट नहीं। मैं दो महीनों से साथ था, पर उदासीन, निस्पृह, निर्मोही। कभी संभव हुआ तो दो-चार मिनिट बोल लिया, कभी वह भी नहीं। मैं जितना ही ज्यादा इस व्यक्तित्व को समझने कि कोशिश करता, उतना ही उलझ जाता।
दशाश्वमेध घाट पर आएं छः दिन हो गए थे, आज सातवां दिन था। सारी रात श्मशान मे साधनारत। यहीं पर अघोरी पाशुपथनाथ से भेट होनी थी, ऐसी संभावना थी, ऐसा ही आभास हुआ।
इन दिनों स्वामी निखिलेश्वरानंन्द कृत्या साधना मै रत थे। कठिन कठोर साधना, ज़रा भी चूक हुई तो प्राण समाप्त। भगवान शंकर की कृत्या को रिझाना, अनुकूल करना क्या कोई मामूली साधना हो सकती हैं?
तभ उस सांझ के धुंधलके में श्मशान घाट कि तरफ़ से एक अघोरी आता हुआ दिखाई दिया। पास आने पर उसे साफ़-साफ़ देखा जना संभव हो सका, मैला, गन्दा, लम्बी उलझी हुई जटाएं, चेहरा गन्दला सा, धंसी हुई पिली आंखें, हाथ में एक खप्पर, लम्बे-लम्बे मैले गन्दगी से भरे नाख़ून और सारा शरीर बदबू से भरा, देखकर घिन आ रही थी। हवा के साथ-साथ बदबू का झोंका सारे सिर को झनझना देता। ऐसी बदबू तो जलते हुए मुरदे से भी नहीं आ रही थी। गन्दगी का साक्षात जीवंत रुप।
वह आकर बैठ गया, हाथ मै खप्पर, खप्पर मै कुछ खाद्य पदार्थ-सा, हाथों मै पीप-सी निकल रही थी और वह उन्ही हाथों से खाद्य पदार्थ लेकर मूंह मे डालता -- ऊफ
बोला, स्वामी! ले बूख लगी तो आ, खा ले। संकेत निखिल्श्वरानंद कि तरफ़ था।
निखिलेश्वरानंद जी उठे और उस अघोरी से सटकर बैठ गए। अघोरी ने उन पीप भरे हाथों से लड्डू का छोटा-सा टुकडा खप्पर से निकाला और आगे बढाया। निखिलेश्वरानंद जी ने लड्डू को अपने हाथ मे ले लिया - ऊफ़, गन्दा घृणित, दुर्गन्धपूर्ण
पर यह क्या? दुसरे ही क्षण सामने पीप-भरा अघोरी अद्रुश्य था, और खडे थे साक्षात् शंकर भगवान विश्वनाथ और निखिलेश्वारानन्द उनके चरणों के पास बैठे थे। उनके सिर पर था, काशी के बाबा विश्वनाथ का वरद हस्त।
uttam ....... lekh mein dashashwamegh ghat pe kriyane nahi hoti ...... kewal harishchandra aur manikarnika ghat pe aisa hota hai...... kyoki wahi shamshan hai.......
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