रविवार, 7 नवंबर 2010

मंत्र जप प्रभाव

 जब तक किसी विषय वस्तु के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती तो व्यक्ति वह कार्य आधे अधूरे मन से करता है और आधे-अधूरे मन से किये कार्य में सफलता नहीं मिल सकती है| मंत्र के बारे में भी पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, मंत्र केवल शब्द या ध्वनि नहीं है, मंत्र जप में समय, स्थान, दिशा, माला का भी विशिष्ट स्थान है| मंत्र-जप का शारीरिक और मानसिक प्रभाव तीव्र गति से होता है| इन सब प्रश्नों का समाधान आपके लिये -

जिस शब्द में बीजाक्षर है, उसी को 'मंत्र' कहते हैं| किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण करना ही 'मंत्र-जप' कहलाता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि वास्तव में मंत्र जप क्या है? जप से क्या परिणाम होते निकलता है?

व्यक्त-अव्यक्त चेतना

१. व्यक्त चेतना (Conscious mind). २. अव्यक्त चेतना (Unconscious mind).

हमारा जो जाग्रत मन है, उसी को व्यक्त चेतना कहते हैं| अव्यक्त चेतना में हमारी अतृप्त इच्छाएं, गुप्त भावनाएं इत्यादि विद्यमान हैं| व्यक्त चेतना की अपेक्षा अव्यक्त चेतना अत्यंत शक्तिशाली है| हमारे संस्कार, वासनाएं - ये सब अव्यक्त चेतना में ही स्थित होते हैं|

किसी मंत्र का जब ताप होता है, तब अव्यक्त चेतना पर उसका प्रभाव पड़ता है| मंत्र में एक लय (Rythm) होता है, उस मंत्र ध्वनि का प्रभाव अव्यक्त चेतना को स्पन्दित करता है| मंत्र जप से मस्तिष्क की सभी नाड़ियों में चैतन्यता का प्रादुर्भाव होने लगता है और मन की चंचलता कम होने लगाती है|

मंत्र जप के माध्यम से दो तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं -
१. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological effect)
२. ध्वनि प्रभाव (Sound effect)

मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा ध्वनि प्रभाव के समन्वय से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता बढ़ने से इष्ट सिद्धि का फल मिलता ही है| मंत्र जप का मतलब है इच्छा शक्ति को तीव्र बनाना| इच्छा शक्ति की तीव्रता से क्रिया शक्ति भी तीव्र बन जाति है, जिसके परिणाम स्वरुप इष्ट का दर्शन या मनोवांछित फल प्राप्त होता ही है| मंत्र अचूक होते हैं तथा शीघ्र फलदायक भी होते हैं|

मंत्र जप और स्वास्थ्य 
लगातार मंत्र जप करने से उछ रक्तचाप, गलत धारणायें, गंदे विचार आदि समाप्त हो जाते हैं| मंत्र जप का साइड इफेक्ट (Side Effect) यही है|
मंत्र में विद्यमान हर एक बीजाक्षर शरीर की नसों को उद्दिम करता है, इससे शरीर में रक्त संचार सही ढंग से गतिशील रहता है|
"क्लीं ह्रीं" इत्यादि बीजाक्षरों का एक लयात्मक पद्धति से उच्चारण करने पर ह्रदय तथा फेफड़ों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है व् उनके विकार नष्ट होते हैं|

जप के लिये ब्रह्म मुहूर्त को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय पूरा वातावरण शान्ति पूर्ण रहता है, किसी भी प्रकार का कोलाहर या शोर नहीं होता| कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिये रात्रि का समय अत्यंत प्रभावी होता है| गुरु के निर्देशानुसार निर्दिष्ट समय में ही साधक को जप करना चाहिए| सही समय पर सही ढंग से किया हुआ जप अवश्य ही फलप्रद होता है|

अपूर्व आभा
मंत्र जप करने वाले साधक के चेहरे से एक अपूर्व आभा आ जाति है| आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाय, तो जब शरीर शुद्ध और स्वास्थ होगा, शरीर स्थित सभी संस्थान सुचारू रूप से कार्य करेंगे, तो इसके परिणाम स्वरुप मुखमंडल में नवीन कांति का प्रादुर्भाव होगा ही|

जप माला 
जप करने के लिए माला एक साधन है| शिव या काली के लिए रुद्राक्ष माला, हनुमान के लिए मूंगा माला, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टे की माला, गुरु के लिए स्फटिक माला - इस प्रकार विभिन्न मंत्रो के लिए विभिन्न मालाओं का उपयोग करना पड़ता है|

मानव शरीर में हमेशा विद्युत् का संचार होता रहता है| यह विद्युत् हाथ की उँगलियों में तीव्र होता है| इन उँगलियों के बीच जब माला फेरी जाती है, तो लयात्मक मंत्र ध्वनि (Rythmic sound of the Hymn) तथा उँगलियों में माला का भ्रमण दोनों के समन्वय से नूतन ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है|

जप माला के स्पर्श (जप के समय में) से कई लाभ हैं - 
* रुद्राक्ष से कई प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं|
* कमलगट्टे की माला से शीतलता एव अआनंद की प्राप्ति होती है|
* स्फटिक माला से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है|

दिशा 
दिशा को भी मंत्र जप में आत्याधिक महत्त्व दिया गया है| प्रत्येक दिशा में एक विशेष प्रकार की तरंगे (Vibrations) प्रवाहित होती रहती है| सही दिशा के चयन से शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है|

जप-तप
जप में तब पूर्णता आ जाती है, पराकाष्टा की स्थिति आ जाती है, उस 'तप' कहते हैं| जप में एक लय होता है| लय का सरथ है ध्वनि के खण्ड| दो ध्वनि खण्डों की बीच में निःशब्दता है|  इस  निःशब्दता पर मन केन्द्रित करने की जो कला है, उसे तप कहते हैं| जब साधक तप की श्तिति को प्राप्त करता है, तो उसके समक्ष सृष्टि के सारे रहस्य अपने आप अभिव्यक्त हो जाते हैं| तपस्या में परिणति प्राप्त करने पर धीरे-धीरे हृदयगत अव्यक्त नाद सुनाई देने लगता है, तब वह साधक उच्चकोटि का योगी बन जाता है| ऐसा साधक गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी|

कर्म विध्वंस 
मनुष्य को अपने जीवन में जो दुःख, कष्ट, दारिद्य, पीड़ा, समस्याएं आदि भोगनी पड़ती हैं, उसका कारण प्रारब्ध है| जप के माध्यम से प्रारब्ध को नष्ट किया जा सकता है और जीवन में सभी दुखों का नाश कर, इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है, इष्ट देवी या देवता का दर्शन प्राप्त किया जा सकता है|

गुरु उपदेश 
मंत्र को सदगुरू के माध्यम से ही ग्रहण करना उचित होता है| सदगुरू ही सही रास्ता दिखा सकते हैं, मंत्र का उच्चारण, जप संख्या, बारीकियां समझा सकते हैं, और साधना काल में विपरीत परिश्तिती आने पर साधक की रक्षा कर सकते हैं|

साधक की प्राथमिक अवशता में सफलता व् साधना की पूर्णता मात्र सदगुरू की शक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है| यदि साधक द्वारा अनेक बार साधना करने पर भी सफलता प्राप्त न हो, तो सदगुरू विशेष शक्तिपात द्वारा उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा देते हैं|

इस प्रकार मंत्र जप के माध्यम से नर से नारायण बना जा सकता है, जीवन के दुखों को मिटाया जा सकता है तथा अदभुद आनन्द, असीम शान्ति व् पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि मंत्र जप का अर्थ मंत्र कुछ शब्दों को रतना है, अपितु मंत्र जप का अर्थ है - जीवन को पूर्ण बनाना|

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान फरवरी २०१० 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग -१

 ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः 

नए-नए साधक के मन में कुछ संशयात्मक प्रश्न, जो सहज ही घर कर बैठते हैं, वे हैं - मैं किस मंत्र को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं? 

ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?

यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|

उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...

मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|

उस समय मेरा मन भी इस  प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|

जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य  मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|

उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|

'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'

'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|

'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी  सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|

मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|

'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के  आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से  'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'

'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|

'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद  वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|

'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|

एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...

करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'

'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान जुलाई 2010

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग - २

 आखिर में उन्होनें आश्वस्त होकर निम्न बातें बताई| हमारा गुरु मंत्र 'ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः' का बाह्य अर्थ है, कि, - 'ही नारायण! आप सभी तत्वों के भी मूल तत्व हैं और सभी साकार और निर्विकार शक्तियों से भी परे हैं, हम आपको गुरु रूप में श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं|'...यह मंत्र किसी के द्वारा रचित नहीं है, जब गुरुदेव के चरण पहली बार दिव्य भूमि सिद्धाश्रम में पड़े, तो स्वतः ही दसों दिशाएं और सारा ब्रह्माण्ड इस तेजस्वी मंत्र की ध्वनि से गुंजरित हो उठा था, ऐसा लग रहा था, मानो सारा ब्रह्माण्ड उस अद्वितीय अनिर्वचनीय विभूति का अभिनन्दन कर रहा हो...'

'उसी दिन से गुरुदेव अपने शिष्यों को दीक्षा देते समय यही मंत्र प्रदान करते हैं, जो कि वास्तव में ब्रह्माण्ड द्वारा गुरुदेव के वास्तविक स्वरुप का प्रकटीकरण है|'

'तो क्या वे...' - मैं अपने आपको रोक न सका| 'श S S  S ..'  उन्होनें अपने मूंह पर उंगली रखते हुए मुझे आलोचनात्मक दृष्टी से देखा - 'बीच में मत बोलो, बस ध्यानपूर्वक सुनते रहो|

मुझे आखें नीचे किये सर हिलाते देख कर वे आगे बोले - 'यह सोलह बीजाक्षरों से युक्त मंत्र उन षोडश दिव्य कलाओं को दर्शाता है, जिसमें गुरुदेव परिपूर्ण हैं| ये ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ अनिर्वचनीय सिद्धियों के भी प्रतिक हैं| अब में एक-एक करके इस मंत्र के हर बीज को तुम्हारे सामने स्पष्ट करूंगा और उसमें निहित शक्तियों के बारे में बताउंगा| अच्छा, ज़रा तुम गुरु मंत्र बोलो तो!'

"ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः"

'बहुत खूब!, उन्होनें मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा - 'अच्छा, तो सबसे पहले हम पहला बीज 'प' लेते हैं| क्या तुम इसके बारे में बता सकते हो? नहीं, तो मैं बताता हूं| इसका अर्थ है - 'पराकाष्ठा', अर्थात जीवन के हर क्षेत्र में, हर आयाम में सर्वश्रेष्ठ सफलता, ऐसी सफलता जो और किसी के पास न हो| इस बीज मंत्र के जपने मात्र से एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवन को सफलता की अनछुई उंचाई तक ले जा सकता है, चाहे वह भौतिक जीवन हो अथवा आध्यात्मिक| ऐसे व्यक्ति को स्वतः ही अटूट धन-संपदा, ऐश्वर्य, मान, सम्मान प्राप्त हो जाता है| वह भीड़ में भी 'नायक' ही रहता है, वह मानव जाति का 'मार्गदर्शक' कहलाता है और आने वाली पीढियां उसे 'युगपुरुष' कह कर पूजती हैं|

'इसके द्वारा व्यक्ति को सूक्ष्म एवं दिव्य दृष्टी भी प्राप्त हो जाती ई और वह 'काल ज्ञान' में भी पारंगत हो जाता है| अतः वह आसानी से किसी भी व्यक्ति, सभ्यता और देश के भूत, भविष्य और वर्त्तमान को आसानि से देख लेता है|'

'वाह!' - मेरे मूंह से सहज निकल पडा|  'हां, पर ... क्या तुम और भी जानना चाहोगे या तुम इतने से ही खुश हो' - उनकी आँखों में शरारत झलक रही थी|

'नहीं! रुकिए मत! मैं सब कुछ जानना चाहता हूं|' वे मेरी परेशानी में प्रसन्नता महसूस कर रहे थे और मेरी व्यग्रता उन्हें एक संतोष सा प्रदान कर रही थी|

'तो अब हम दुसरे बीज 'र' को लेते हैं| यह शरीर में स्थित 'अग्नि' को दर्शाता है, जिसका कार्य व्यक्ति को रोग, दुष्प्रभावों आदि से बचाना है| इसके अलावा यह इच्छित व्यक्तियों को 'रति सुख' (काम) प्रदान करता है, जो मानव जीवन की एक आवश्यकता है|'

'यह सूक्ष्म अग्नि का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो कि ऊपर बताई गई अग्नि से भिन्न होता हैं इसका कार्य, व्यक्ति के चित्त से उसकी सारी कमियों और विकारों को जला कर पवित्र करता है| ये विकार 'पांच विकारों' के नाम से जाने जाते हैं| अच्छा ज़रा बताओ तो, वे कौन-कौन से हैं?'

'काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार|'

'बिल्कुल सही| इन पांच मुख्य व्याधियों अथवा विकारों को नष्ट करने से मानव चेतना का पवित्रीकरण हो जाता है, उसमें दिव्यता आ जाती है और सबसे बड़ी बात यह है, कि सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसके मस्तिष्क में स्थित हो जाता है|'

'ऐसा व्यक्ति सबके द्वारा पूजनीय 'अग्नि विद्या' में पारंगत हो जाता है, और यदि वह पूर्ण विधि-विधान के साथ सही ढंग से इस बीज मंत्र का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है, तो वह किसी भी इच्छित अवधि तक जीवित रह सकता है, सरल शब्दों में कहे तो भीष्म की तरह वह इच्छा मृत्यु की स्थिति प्राप्त कर लेता है|'

'तीसरा बीज है 'म', जो कि 'माधुर्य' को इंगित करता है| माधुर्य का तात्पर्य है - शरीर के अन्दर छिपा हुआ सत चित आनन्द, आत्मिक शान्ति| इस बीज को साध लेने से व्यक्ति के जीवन में, चाहे वह पारिवारिक हो अथवा सामाजिक, एक पूर्ण सामंजस्य प्राप्त हो जाता है, उसके जीवन के सभी बाधाएं एवं परेशानियां समाप्त हो जाती हैं| परिणाम स्वरुप उसे असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और वह हर चीज को एक रचनात्मक दृष्टी से देखता है| उसकी संतान उसे आदर प्रदान करती है, उसके सेवक और परिचित उसे श्रद्धा से देखते है एवं उसकी पत्नी उसे सम्मान देती है और आजीवन वफादार रहती है| बेशक वह स्वयं भी एक दृढ़ एवं पवित्र चरित्र का स्वामी बन जाता है|'

'चौथा बीज 'त' तत्वमसि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका अर्थ है वह दिव्य स्थिति, जो कि उच्चतम योगी भी प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं| तत्वमसि का अर्थ है - 'मैं तत्व हूं' या 'मैं ही वही हूं'| यह वास्तव में एके आध्यात्मिक चैतन्य स्थिति है, जब साधक पहली बार यह एहसास करता है, कि वह ही सर्वव्याप, सर्वकालीन एवं सर्वशक्तिशाली आत्मा है उसमें और परमात्मा (ब्रह्म) में लेश मात्र भी अन्तर नहीं है|

'इस बीज का अनुष्ठान सफलता पूर्वक करने पर व्यक्ति स्वतः ही अध्यात्म की उच्चतम स्थिति पर अवस्थित हो जाता है, यहां तक की आधिदैविक स्थितियां भी उसमे सामने स्पष्ट हो जाती हैं और वह इस बात से अनभिज्ञ नहीं रह जाता, कि वह पूर्ण 'ब्रह्ममय' हैं उसे जो उपलब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं, उसका तुम अनुमान भी नहीं कर सकते और न ही उन्हें शब्दों में ढालना संभव है| क्या अव्यक्त को व्यक्त किया जा सकता है? उसको तो केवल स्वयं ऐसी स्थिति प्राप्त कर अनुभव किया जा सकता है| बस तुम्हारे लिए इतना समझना काफी है, कि उससे असीमित शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं| अच्छा पांचवा बीज बोलना तो ज़रा|'

'पांचवा बीज है.. ॐ परम तत्वा... 'वा'..."

"हां, यह मानव शरीर में व्याप्त पांच प्रकार की वायु को दर्शाता है, वे हैं - प्राण, अपान, व्यान, सामान और उदान| इन पांचो पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर ही, व्यक्ति क्रिया योग में पारंगत हो पाता है| 'क्रिया' का अर्थ उस तकनीक से है, जिसे इस्तेमाल कर व्यक्ति इच्छित परिणाम प्राप्त कर लेता है|  क्रिया से मुद्राओं, बंधों एवं आसनों का अभ्यास शमित है, परन्तु यह एक लम्बी और दुस्साध्य प्रक्रिया है, जिसमें कोई ठोस परिणाम प्राप्त करने में कई वर्ष लग सकते हैं|"

'परन्तु इस गुरु मंत्र के उच्चारण से, जिसमें क्रिया योग का तत्व निहित है, व्यक्ति इस दिशा में महारत हासिल कर सकता है और अपनी इच्छानुसार कितने ही दिनों की समाधि ले सकता है|'

'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति 'लोकानुलोक गमन' कि सिद्धि प्राप्त कर लेता है और पलक झपकते ही ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में जा कर वापिस आ सकता है| दूसरी उपलब्धि जो उसे प्राप्त होती है, वह है - 'वर' अर्थात वह जो कुछ कहता है, वह निकट भविष्य में सत्य होता ही है| सरल शब्दों में वह किसी को वरदान या श्राप दे सकता है|'

'परन्तु यह तो एक खतरनाक स्थिति है है, क्या आपको ऐसा नहीं लगता? मेरा मतलब है, कि व्यक्ति किसी को भी अवर्णनीय नुकसान पहुंचा सकता है|'

'अरे बिल्कुल नहीं! क्योंकि इस स्थिति पर पहुंचने पर साधक दया, ममता और मानवीयता के उच्चतम सोपान पर पहुंच जाता है| ऐसे व्यक्ति बिल्कुल लापरवाह नहीं होते और स्वार्थ से कोसों दूर होते हैं| अतः दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की कल्पना वे स्वप्न में भी नहीं कर सकते| ठीक है न! अब मैं आगे बोलू?'

मैंने हां में सर हिलाया|

शनिवार, 11 सितंबर 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग - ३

 'अगला बीज है 'य', जिस्से बनाता है 'यम' (यम-नियम), अर्थात जीवन को एक सही, पवित्र एवं लय के साथ जीने का तरीका| इसके द्वारा व्यक्ति को एक अद्वितीय, आकर्षक शरीर प्राप्त हो जाता है और उसका व्यक्तित्व कई गुना निखर जाता है| जो कोई भी उसके सम्पर्क में आता है, वह स्वतः ही उसकी और आकर्षित हो जाता है और उसकी हर एक बात मानाने को तैयार हो जाता है|'

'एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐसा व्यक्ति 'यम' (जो यहां यमराज को इंगित करता है) पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है, साधारण शब्दों में वह मृत्युंजय हो जाता है, अमर हो जाता है, मृत्यु कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकती...मुझे एक बेवकूफ की भांति घूरने की जरूरत नहीं (शायद उसने मेरी आँखों में उभरती संशय की लकीरों को देख लिया था)| गोरखनाथ, वशिष्ठ, हनुमान आदि ने इस उपलब्धि को प्राचीन काल में प्राप्त किया है, यह कोई नवीन स्थिति नहीं|'

वे सत्य ही कह रहे थे| 'फिर आता है 'ना' यानी 'नाद', 'अनहद नाद' अर्थात दिव्य संगीत, एक आनंदमय, शक्तिप्रद गुन्जरण, जो कि ऐसे व्यक्ति के आत्म में, जो नित्य गुरु मंत्र का जप करता है, गुंजरित होता रहता है| यह नाद वास्तव में व्यक्ति की वास्तविकता पर बहुत निर्भर करता है| उदाहरणतः जो व्यक्ति भक्ति के पथ पर कायल हो, उसे साधारणतः बांसुरी जैसी ध्वनि सुनाई देती है, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय वाद्य है| इसके अतिरिक्त ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने वाले (ज्ञानी) को अधिकतर ज्ञान स्वरुप भगवान शिव का डमरू का शाश्वत नाद सुनाई पड़ता है|'

अदभुत! - मैंने कहा - 'परन्तु यही दो ध्वनियाँ है, जो साधक के समक्ष उपस्थित होती हैं?'

'नहीं, ऐसा तो निश्चित मापदण्ड नहीं है, फिर भी ये दो प्रकार के नाद ही मुख्य हैं और अधिकांशतः सुनाई पड़ते हैं| जो व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाता है, वह स्वतः ही संगीत में पारंगत हो जाता है उसकी आवाज अपने आप सुरीली, मधुरता  युक्त और एक आकर्षण लिये हुए हो जाती है| जो कोई भी उसे सुनता है, वह एक अद्वितीय आनन्द वर्षा से सरोबार हो जाता है और सभी परेशानियों से मुक्त होता हुआ, असीम शान्ति अनुभव करता है|'

'अगला बीज है 'रा' यानी 'रास' जिसका अर्थ है...एक दिव्य उत्सव, एक अनिवर्चनीय मस्ती, जो कि मानव जीवन की असली पहचान है| क्या तुम बिना उत्साह, ख़ुशी और जीवन्तता के जीने का कल्पना कर सकते हो? क्या तुम बिना उत्सव और प्रसन्नता के जीवन की विषय में विचार कर सकते हो? नहीं| इसलिए इस बीज मंत्र की मदद से व्यक्ति अपने जीवन में उस तत्व को उतार पाने में सफल होता है, जिसके द्वारा उसका सम्पूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है, दरिद्रता, सम्पन्नता में बदल जाती है, दुःख खुशियों में परिवर्तित हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं और असफलताएं सफलताओं में परिवर्तित हो जाती हैं'

'यदि इसका सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो यह उस गुप्त प्रक्रिया को दर्शाता है, जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों पर की गई थी| वास्तव में महारास एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार में स्पन्दित के ऊपर की ओर अग्रसर किया जाता है| इस बीज के अनवरत जप से व्यक्ति सहज ही भाव समाधि में पहुंच जाता है वह गुरु में लीन हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी पूर्णतः जाग्रय हो जाती है, फलस्वरूप सह्गैनी सिद्धियां जैसे कि परकाया प्रवेश, जलगमन अटूट लक्ष्मी एवं असीमित शक्ति व्यक्ति को सहज ही प्राप्त हो जाती है|'

ऐसा कहते कहते उन्होनें अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और दुसरे ही क्षण उसमें एक केतली और दो गिलास आ गए| केतली में से बाष्प निकल रही थी| आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया और एक विस्मय से उनकी ओर देखता रह गया| उन्होनें केतली मेर से कोई तरल पदार्थ गिलास में डाला और एक गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया| वह पेरिस की मशहूर 'क्रीम्ड कॉफ़ी' थी|

'हां, मैं जानता हूं, कि तुम क्या सोच रहे हो?' - त्रिजटा ने एक चुस्की लेते हुए कहा - 'पर विशवास करो, यह कोई असामान्य घटना नहीं हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्तियां निहित हैं, जरूरत है मात्र उनको उभारने की|'

उन्होनें फिर एक चुस्की भरी और तरोताजा हो उन्होनें अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - 'अगला बीज है 'य' और इसका तात्पर्य है 'यथार्थ' अर्थात वास्तविकता, सच्चाई, परम सत्य| इस बीज पर मनन करने से व्यक्ति को अपनी न्यूनताओं का भान होता है और वह पहली बार इसके कारण अर्थात 'माया' के स्वरुप देखता है और जान पाता है|'

'यदि व्यक्ति नित्य गुरु मंत्र का जप करे, तो वह माया जाल को काटने में सफल हो सकता है जिसमें कि वह जकड़ा हुआ है, स्वतः ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह 'दिव्य बोध' से युक्त हो जाता है, एक जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेता है, फिर वह समाज में रह कर एवं नाना प्रकार के लोगों से मिल कर भी अपनी आतंरिक पवित्रता एवं चेतना बनाए रखने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में खिल कर भी अछूता रहता है|'

'जनक की तरह...!' - स्वतः ही मेरे मुंह से निकला!
'हां, जनक की तरह, राम, कृष्ण और नानक की तरह..!'

'इसके उपरांत आता है बीज मंत्र 'ण', जो कि 'अणु' या ब्रह्म की शक्ति अपने में निहित किये हुए है| ब्रहम के विषय में एक जगह कहा गया है - 'अणोरणीयाम' अर्थात सूक्ष्मतम पदार्थ अणु से भी हजारों गुना सूक्ष्म क्योंकि वह तो अणुओं में भी व्याप्त है|'

'तो इस बीज के नित्य उच्चारण से व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप हो जाता है| वह हर पदार्थ में खुद को ही देखता है, हर स्वरुप में खुद के ही दर्शन करता है, चाहे वह पशु हो, व्यक्ति हो अथवा पत्थर| दया, ममता उसकी प्रकृति बन जाते हैं और वह समस्त विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम' की दृष्टि से देखता है| वह किसी की मदद अथवा सेवा करने का कोई भी अवसर नहीं गवाता और..'

'और?'

'और वह स्वतः उन गोपनीय अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, जो कि ग्रंथो में वर्णित है| अणिमा, महिमा, गरिमा इत्यादि उसे प्राप्त हो जाती हैं, हालांकि यह अलग बात है, कि वह उनका उपयोग नहीं करता और एक अति सामान्य मनुष्य की भांति ही प्रतीत होता है|'

'इसके बाद आता है 'य' अर्थात 'यज्ञ' और इस बीज को निरन्तर जपने से व्यक्ति स्वतः ही यज्ञ शास्त्र एव यज्ञ विज्ञान में परंगत  हो जाता है, उसे प्राचीन गोपनीय तथ्यों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह विद्वत समाज द्वारा पूजित होता है, धन एवं वैभव की देवी महालक्ष्मी उसके गृह में निरन्तर स्थापित रहती है और वह धनवान, ऐश्वर्यवान हो संतोष पूर्वक एवं शान्ति पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है|'

'यज्ञ शब्द का गूढ़ अर्थ है - अपने समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों की आहुति को 'ज्ञान की अग्नि' के द्वारा गुरु के चरणों में समर्पित करना| यही वास्तविक यज्ञ है और व्यक्ति इस स्थिति को इस बीज मंत्र के जप मात्र से शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, जिससे कि वह कर्मों के कठोर बन्धन से मुक्त हो जन्म-मृत्यु के आवागमन चक्र से भी छूट जाता है|'

'अगला बीज है 'गु' अर्थात 'गुन्जरण'  और यह व्यक्ति के आतंरिक शरीरों - भू, भवः, स्वः, मः, जनः, तपः, सत्यम - से उसके चित्त के योग को दर्शाता है| यह अत्यंत ही उच्च एवं भव्य स्थिति है, जिसे प्राप्त कर वह योगी अन्य योगियों में श्रेष्ठ कहलाता है और 'योगिराज' की उपाधि से विभूषित हो जाता है| ऐसे व्यक्ति की देवता एवं श्रेष्ठ ऋषि भी पूजा करते हैं और उसकी झलक मात्र के लिये लालायित रहते हैं|'

'चूंकि 'गु'  गुरु का भी बीज मंत्र हैं अतः इसको जपने से व्यक्ति स्वतः ही गुरुमय हो जाता है और गुरु का सारा ज्ञान, शक्तियां एवं तेजस्विता उसके शरीर में उतर जाती हैं| वह समस्त विश्व में पूजनीय हो जाता है और इच्छानुसार किसी भी लोक अथवा गृह में आ-जा सकता है|'

'परा जगत के लोग एवं गृह... तो क्या पृथ्वी के अलावा भी जीवन की स्थिति है?

'कैसे मूर्खों का प्रश्न है?' - त्रिजटा कुछ उत्तेजित होकर बोले - 'क्या तुम सोचते हो कि मात्र पृथ्वी पर ही जीवन है? तुम लोग अहम्  से इतने पीड़ित हो, कि अपने आपको ही 'भगवान् द्वारा चुने गए' समझते हो' - वे व्यंग से मुस्कुराये|

'परन्तु एक बार तुम इस बीज को साध लो, तो तुम कोई अदभुत और अनसुनी घटनाओं के साक्षी बन जाओगे| बेशक देर से ही सही अब तो विज्ञान ने भी अन्य लोकों पर जीवन के तथ्य को स्वीकार कर लिया है|'

'फिर आता है 'रु' अर्थात रूद्र जो कि इस ब्रह्माण्ड का मुख्य पुरुष तत्व है, उसे चाहे गुणात्मक शक्ति कहो या शिव अथवा कुछ और| इस बीज  को सिद्ध करने पर व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता, न ही काल-कवलित होता है और न ही उसे बार-बार जन्म लेता पड़ता है| वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता एवं सर्वशक्तिशाली हो जाता है|'

'वह चाहे, तो विश्वामित्र की भांति एक नवीन सृष्टि रच सकता है और शिव की तरह उसे नष्ट भी कर सकता है सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारों पर नृत्य करती प्रतीत होती है| उसे भोजन, जल, निद्रा आदि कि आवश्यकता नहीं होती, परिणाम स्वरुप उसे मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं करना पड़ता| एक स्वर्णिम, दिव्य आभा मंडल उसके चतुर्दिक बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके समीप आता है, उससे प्रभावित होता है और उसका भी आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है, उसकी सारी इच्छाएं स्वतः पूर्ण हो जाति हैं|'

रविवार, 29 अगस्त 2010

गुरु मंत्र रहस्य भाग - ४

'अगले बीज 'यो' का अर्थ है - 'योनी'| मानव जन्म के विषय में कहा जाता है, कि यह तभी प्राप्त होता है, जब जीव विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में विचरण कर लेता है, परन्तु इस बीज के दिव्य प्रभाव से व्यक्ति अपनी समस्त पाप राशि को भस्म करने में सफल हो जाता है और फिर उसे पुनः निम्न योनियों में जन्म लेना नहीं पड़ता|

'योनी का एक दूसरा अर्थ है - शिव कि शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का मुख्य स्त्री तत्व, ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी शक्ति के फलस्वरूप गतिशील है और साधक इस बीज को सिद्ध कर लेता है, उसके शरीर में हजारों अणु बमों की शक्ति उतर आती है|'

मैं उनकी ओर भाव शून्य आँखों से ताक रहा था| मेरे संशय युक्त चहरे पर देख उन्होनें मुझे आश्वस्त करने के लिये एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि ऐसा कुछ किया, जो इससे लाख गुणा बेहतर था| उन्होनें अपनी दृष्टि एक विशाल चट्टान पर स्थिर कि, जो कि मेरी दाहिनी तरफ लगभग १५ मीटर की दूरी पर स्थित थी... और दुसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ उसका नामोनिशान मिट गया|

भय और विस्मय एक साथ मेरे चहरे पर क्रीडा कर रहे थे, साथ ही मेरे रक्तहीन चेहरे पर विश्वास कि किरणें भी उभर रही थीं| उन्होनें अपनी 'कथनी' को 'करनी' में बदल दिया था, इससे अधिक और क्या हो सकता था...

'इसके अलावा- उन्होनें सामान्य ढंग से बात आगे बढाई, मानो कुछ हुआ न हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने दिव्य व्यक्तित्व को छुपाने के लिए दूसरों पर माया का एक आवरण डाल सकता है, अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने पर भी वह इस तरह बर्ताव करता है, कि आसपास के सभी लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने की भयंकर भूल कर बैठते हैं| वह सामान्य लोगों की तरह ही उठता-बैठता है, खाता-पीता है, हसता-रोता है, अतः लोग उसके वास्तविक स्वरुप को न तो देख पाते हैं और न ही पहचान पाते हैं|'

सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद प्रकाश की छटा बिखेरता हुआ अस्तांचल की ओर खिसक रहा था, पशु-पक्षी अपने-अपने घरों की ओर विश्राम के लिए जा रहे थे| मैं उसी मुद्रा में बुत सा विस्मय के साथ त्रिजटा के द्वारा इन रहस्यों को उजागर होते हुए  सुन रहा था| हम कॉफ़ी पी चुके थे और उसकी सामग्री शुन्य में उसी रहस्यमय ढंग से विलुप्त हो गई थी, जिस प्रकार से आई थी| मैं सोच रहा था, कि गुरु मंत्र में कितनी सारी गूढ़ संभावनाएं छुपी हुई हैं और मैं अज्ञानियों कि भांति तथाकथित श्रेणी की छोटी-मोटी साधनाओं के पीछे पडा हूं| मैं यही सोच रहा था, जब त्रिजटा कि किंचित तेज आवाज ने मेरे विचार-क्रम को भंग कर दिया|

'मैं देख रहा हूं, कि तुम ध्यान पूर्वक नहीं सुन रहे हो' - उसके शब्द क्रोधयुक्त थे - 'और यदि यहीं तुम्हारा व्यवहार है, तो मैं आगे एक शब्द भी नहीं कहूंगा|'

'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न में भी आपको या आपके प्रवचन की उपेक्षा करने की नहीं सोच सकता...मैं तो अपनी और दुसरे अन्य साधकों की न्यून मानसिकता पर तरस खा रहा हूं, जो कि गुरु मंत्र रुपी 'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर के भी दूसरी अन्य साधनाओं के कंकड़-पत्थरों की पीछे पागल हैं...'

एक अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर फैल गई और उनकी आँखों में संतोष कि किरणें झलक उठी| वे समझ गए, कि मैंने उनकी हर  बात बखूबी हृदयंगम कर ली है, अतः वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे|

'आखिरी शब्द का पहला बीज है 'न' अर्थात 'नवीनता', जिसका अर्थ है - एक नयापन, एक नूतनता और ऐसी अद्वितीय क्षमता, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको अथवा दूसरों को भी समय की मांग के अनुसार ढाल सकता है, बदल सकता है या चाहे तो ठीक इसके विपरीत भी कर सकता है अर्थात  समय को अपनी मांगों के अनुकूल बना सकता है| जो व्यक्ति इस बीज को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है, वह किसी भी समाज में जाएं, वहां उसे साम्मान प्राप्त होता है, फलस्वरूप वह हर कार्य में सफल होता हुआ शीघ्रातिशीघ्र शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है, जीवन में उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी महसूस नहीं होती|'

'वह किसी भी व्यवसाय में हाथ डाले, हमेशा सफल होता है और समय-समय पर वह अपने बाह्य व्यक्तित्व को बदलने में सक्षम होता है, उदाहरण के तौर पर अपना कद, रंग-रूप, आँखों का रंग आदि| जब कोई उसे व्यक्ति उससे मिलता है, हर बार वह एक नवीन स्वरुप में दिखाई देता है| ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो सकता है और अपने आसपास के लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'

'इसका सूक्ष्म अर्थ यह है, कि उसका कोई भी व्यक्तित्व इतनी देर तक ही रहता है, कि वह इच्छाओं एवं विभिन्न पाशों में जकड़ा जाये| हर क्षण पुराना व्यक्तित्व नष्ट होकर एक नवीन, पवित्र, व्यक्तित्व में परिवर्तित होता रहता है| इसी को नवीनता कहते हैं| ऐसा व्यक्ति हर प्रकार के कर्म करता हुआ भी उनसे और उनके परिणामों से अछूता रहता है|'

'अंतिम बीज 'म' 'मातृत्व' का बोधक है, जिसका अर्थ है असीमित ममता, दया और व्यक्ति को उत्थान की ओर अग्रसर करने की शक्ति, जो मात्र माँ अथवा मातृ स्वरूपा प्रकृति में ही मिलती है| माँ कभी भी क्रूर एवं प्रेम रहित नहीं हो सकती, यही सत्य है| शंकराचार्य ने इसी विषय पर एक भावात्मक पंक्ति कही है -

'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति|'

अर्थात 'पुत्र तो कुमार्गी एवं कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती| वह हमेशा ही अपनी संतान को अपने जीवन से ज्यादा महत्त्व देती है|'

'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति स्वयं दया और मातृत्व का एक सागर बन जाता है| फिर वह जगज्जननी मां की भांति ही हर किसी के दुःख और परेशानियों को अपने ऊपर लेने को तत्पर हो, उनको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता रहता है| वह अपनी सिद्धियों और शक्तियों का उपयोग केवल और केवल दूसरों की एवं मानव जाति कि भलाई के लिए ही करता है| बुद्ध और महावीर इस स्थिति के अच्छे उदाहरण है|'

त्रिजटा अचानक चुप हो गए और अब वे अपने आप में ही खोये हुए मौन बैठे थे| मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था, परन्तु मैं तो गुरु मंत्र के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानने का व्यग्र था|

मैं जान-बूझ कर कई बार खांसा और अंततः उनकी आँखें एक बार फिर मेरी ओर घूम गई ..वे गीली थीं...

'जो कुछ भी मैंने गुरु मंत्र के बारे में उजागर किया है' ...उन्होनें कहा - 'यह वास्तविकता का शतांश भी नहीं है और सही कहूं तो यदि कोई इसकी दस ग्रंथों में भी विवेचना करना चाहे, तो यह संभव नहीं, परन्तु ...' उनकी आंखों का भाव सहसा बदल गया था - 'परन्तु मैं सौ से ऊपर उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों को जानता हूं, जिनके सामने सारा सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही पूर्णता प्राप्त की है...'

'कई गृहस्थों ने इसी के द्वारा जीवन में सफलता और सम्पन्नता की उचाईयों को छुआ है| औरों की क्या कहूं स्वयं मैंने भी 'परकाया प्रवेश सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप सिद्धि' इसी मंत्र के द्वारा प्राप्त की है..'

उनकी विशाल देह में भावो के आवेग उमड़ रहे थे| वे किसी खोये हुए बालक की भांति प्रतीत हो रहे थे, जो अपनी मां को पुकार रहा हो, प्रेमाश्रु उनके चहरे पर अनवरत बह रहे थे, जबकि उनके नेत्र उगते हुए चन्द्र की ज्योत्स्ना पर लगे हुए थे|

'तुम इस व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसका मंत्र तुम सबको देवताओं की श्रेणी में पहुंचाने में सक्षम है|'

"श्री सार्थक्यं नारायणः'

- 'वे तुम्हें सब कुछ खेल-खेल में प्रदान कर सकते हैं| अभी भी समय है, कंकड़-पत्थरों को छोडो और सीधे जगमगाते हीरक खण्ड को प्राप्त कर लो|'

ऐसा कहते-कहते उन्होनें मेरी ओर एक छटा युक्त रुद्राक्ष एव स्फटिक की माला उछाली और तीव्र गति से एक चट्टान के पीछे पूर्ण भक्ति भाव से उच्चरित करते हुए चले गए -

नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||

बिजली की तीव्रता के साथ मैं उठा और त्रिजटा के पीछे भागा..परन्तु चट्टान के पीछे कोई भी न था..केवल शीतल पवन तीव्र वेग से बहता हुआ मेरे केश उड़ा रहा था| वे वायु में ही विलीन हो गए थे| मैं मन ही मन उस निष्काम दिव्य मानव को श्रद्धा से प्रणिपात किया, जिसने गुरु मंत्र के विषय में गूढ़तम रहस्य मेरे सामने स्पष्ट कर दिए थे|

..तभी अचानक मेरी दृष्टी नीचे अन्धकार से ग्रसित घाटी पर गई, ऊपर शून्य में 'निखिल' (संस्कृत में पूर्ण चन्द्र को 'निखिल' भी कहते हैं) अपने पूर्ण यौवन के साथ जगमगा कर चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सारा वायुमंडल, सारी प्रकृति उस दिव्य श्लोक के नाद से गुज्जरित हो रही हो -


नमस्ते पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||


-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई २०१० 

रविवार, 8 अगस्त 2010

जीवन के दुःख

 जो दुःख आया नहीं है उसे टाला जाना चाहिए | कोशिश करनी चाहिए उसे टालने की| जो दुःख वर्त्तमान में मिल रहा है उसे तो सहकर ही समाप्त किया जा सकता है| कर्म सिद्धांत के अनुसार भी जो कर्म परिपक्व हों दुःख देते हैं| उनसे किसी भी प्रकार से बच पाना संभव नहीं होता| उनसे छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता उन्हें भोग कर ही समाप्त करना होता है| परन्तु जो अभी आया नहीं है हम उसके आगमन को अवश्य रोक सकते हैं| जब तक शरीर विद्यमान है, दुःख तो लगे ही रहेंगे, परन्तु भविष्य को बदलना हमारे हाथ में होता है|

 उदाहरण के लिये आपने खेत में जो कुछ बोया है उसकी फसल तो काटना आनिवार्य है क्योंकि अब उसे बदल पाना आपके हाथ में नहीं होता| परन्तु जहां तक भविष्य की फसलों का सवाल है, आप पूरी तरह स्वतंत्र है कि किन परिस्थितियों में कैसी फसल हों| बन्दूक से एक बार छूटी गोली पुनः उसमें वापिस नहीं लाइ जा सकती| परन्तु अभी उसमें जो गोली बची है उसे न दागना आपके हाथ में होता है| इसके लिये अपने वर्त्तमान कर्मों को सही ढंग से इच्छित फल के अनुरूप करना आवश्यक होता है|

मनुष्य जीवन में कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो अपना फल देना प्रारम्भ करने के निकट होते हैं| उनके फल को प्रारब्ध कहते हैं जिसे सुख अथवा दुःख के रूप में प्रत्येक को भोगना आनिवार्य होता है| तपस्या, विवेक और साधना द्वारा उनका सामना करना चाहिए| परन्तु ऐसे कर्म जो भविष्य में फल देंगे, आप उनसे बच सकते हैं| इसके लिये आपको वर्त्तमान में, जो आपके हाथ में है, सुकर्म करना होगा| कर्म के सिद्धांत के अनुसार कर्मों का एक समूह ऐसा है जिससे आप लाख उपाय करने पर भी बच नहीं सकते| परन्तु दुसरा समूह ऐसा है जिसे आप इच्छानुसार बदल अथवा स्थगित कर सकते हैं| इस प्रकार यह सूत्र घोषणापूर्वक बताता है कि आने वाले दुःख (कर्मफल) को रोकना व्यक्ति के अपने हाथ में होता हैं|

-सदगुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

इच्छाएं

संसार में प्रत्येक व्यक्ति सदैव यही कामना करता रहता है कि उसे मन फल मिले| उसे उसकी इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो| जो वह सोचता है कल्पना करता है, वह उसे मिल जाये| भगवान् से जब यह प्रार्थना करते है तो यही कहते हैं, कि हमें यह दे वह दे| प्रार्थना और भजनों में ऐसे भाव छुपे होते हैं, जिनमें इश्वर से बहुत कुछ मांगा ही जाता है| यह तो ठीक है कि कोई या आप इश्वर से कुछ मंगाते है; प्रार्थना करते हैं| लेकिन इसके साथ ही यदि आप उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते और अपनी असफलताओं; गरीबी या परेशानियों के विषय में सोच-सोचकर इश्वर की मूर्ती के सामने रोते-गिडगिडाते हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है| क्योंकि आपके मन में गरीबी के विचार भरे हैं, असफलता भरी है, आपके ह्रदय में परेशानियों के भाव भरे हैं और उस असफलता को आप किसी दैवी चमत्कार से दूर भगाना चाहते हैं| जो कभी संभव नहीं है|

आपके पास जो कुछ है, वह क्यों है? वह इसलिए तो हैं कि मन में उनके प्रति आकर्षण है| आप उन सब चीजों को चाहते हैं| जो आपके पास हैं| मन में जिन चीजों के प्रति आकर्षण होता है, उन्हें मनुष्य पा लेता है| किन्तु शर्त यह भी है कि वह मनुष्य उसी विषय पर सोचता है, उसके लिये प्रयास करता हो और आत्मविश्वास भी हो| जो वह पाना चाहता है उसके प्रति आकर्षण के साथ-साथ वह उसके बारे में गंभीरता से सोचता भी हो|

दृढ आत्मविश्वास और परिश्रम की शक्ति से आप भी सफलता को अपनी ओर खींच सकते हैं| ईश्वरीय प्रेरणाओं से आप शक्ति ले सकते हैं और अपनी अभिलाषाओं को पुरी कर सकते हैं|

आप अपने  जीवन स्वप्न को पूरा करते की दिशा में प्रयास करें| उसे ईश्वरीय प्रेरणा मानकर आगे बढे|

-सदगुरुदेव 

रविवार, 11 जुलाई 2010

साधनाओं के नियम

  • साधनाओं को कोई भी गृहस्थ संपन्न कर सकता है, इसके लिये किसी भी विशेष वर्ग या जाति के आधार पर कोई बन्धन नहीं है, जिसको भी इस प्रकार की साधनाओं में आस्था हो, वह इन साधनाओं को संपन्न कर सकता है|
  • इस प्रकार की साधनाओं में पुरुष या स्त्री, युवा या वृद्ध, विवाहित या अविवाहित जैसा कोई भेद नहीं है, कोई भी साधना संपन्न कर सकता है| महिलाओं के लिये रजस्वला-समय किसी भी प्रकार की साधना के लिए वर्जित है, जिस दिन रजस्वला  हो उस दिन से अगले पांच दिनों तक वह किसी भी प्रकार की साधना या पूजा अनुष्ठान संपन्न न करे, परन्तु यदि उसने अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया हो और बीच में रजस्वला हो गयी हो, तो उस अनुष्ठान या साधना को पांच दिनों के लिये छोड़ दे और छटे दिन स्नान कर, सर को धो कर, पवित्र होकर पुनः साधना या अनुष्ठान प्रारम्भ कर सकती है, ऐसा होने पर साधना में व्यवधान नहीं माना जाता| पीछे जहां तक साधना की है या जीतनी संख्या में जप कर ली है, उसके आगे की गणना की जा सकती है|
  • प्रत्येक साधना की जप संख्या, दिनों की संख्या निश्चित होती है; तब तक साधना चलती रहे, उस अवधि में साधक को चाहिए कि एक समय भोजन करें और सात्त्विक आहार ग्रहण करें, मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि वर्जित है; भोजन का सीधा सम्बन्ध है, अतः शुद्ध खान-पान के मामले में सतर्कता बरतें, होटल में खाना यथासंभव टालें, क्योंकि वहां पर शुद्धता का पूरा ध्यान नहीं रह पाता, जो कि इस कार्य के लिये आवश्यक होता है|
  • साधना करते समय किसी भी प्रकार की वस्तु खाना या सेवन करना अनुकूल नहीं हैं, व्यक्ति मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दूध, चाय या भोजन ले सकता है| जब मंत्र जप चालू हो तब चाय, जल, भी पीना वर्जित है, यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न भी हो जाये, तो इसके बाद पवित्रीकरण करने के उपरांत ही पुनः मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए|
  • साधनाकाल में यथासंभव भूमि पर सोना उचित रहता है, भूमि पर किसी भी प्रकार का बिछौना सो सकते हैं, विशेष परिस्थितियों में पलंग आदि का उपयोग कर सकते हैं, परन्तु जहां तक संभव हो भूमि शयन ही करें|
  • साधनाकाल में स्त्री संसर्ग सर्वथा वर्जित है, इस अवधि में पूरी तरह से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें, इस अवधि में फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ना, सिनेमा देखना, अन्य स्त्रियों से लम्बिई बातचीत करना आदि निषेध है, यथासंभव मन को संयत और शांत बनाए रखें|
  • साधना प्रारम्भ करने से पूर्व स्नान कर लेता उचित रहता है, यदि बीमार हो या अशक्त हो, तो ऐसी परिस्थिति में कपड़ा भिगोकर पुरे शरीर को पौंछ लेता चाहिए, परन्तु जहां तक हो सके स्नान करना ही उत्तम माना जाता है|
  • पैंट, निकर या पायजामा पहन कर साधना नहीं की जा सकती, इसके लिये धोती पहनना उचित माना गया है|
  • एक धोती कमर के नीची पहिन लें और गुरु पीताम्बर ओढ़ लें, परन्तु यदि सर्दी का मौसम हो, तो उनी कम्बल भी ओढ़ सकता है, धोती  हमेशा धूलि हुई स्वच्छ हो|
  • साधना काल में क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए, अर्थात सर के या दाढ़ी के बाल नहीं कटावें|
  • साधना काल में बीडी-सिगरेट, तम्बाकू, पान आदि का सेवन वर्जित है, जितने दिन तक साधना चले उतने दिन तक किसी प्रकार का व्यसन न करें|
  • साधना काल में स्नान करते समय साबुन का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इत्र आदि का प्रयोग न करें, साधना के बाद कहीं बहार जाते समय जूतों का प्रयोग किया जा सकता है|
  • यदि साधक नौकरी या व्यापार कर रहा हो और रात्रिकालीन साधना हो, तो दिन में नौकरी कर सकतें, यदि साधना पूरी होने तक व्यापार अथवा नौकरी से अवकाश ले लें, तो ज्यादा उचित रहता है|
  • साधना काल में सिनेमा देखना या किसी राग-रंग, गायन, संगीत महफिल आदि में भाग लेता वर्जित है|
  • साधना काल में कम से कम बोलें, बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही बातचीत करें और उतनी ही बातचीत करें, जीतनी जरूरी है, व्यर्थ में गप्पे लगाना बहस करना सर्वथा वर्जित हैं|
  • साधना घर के एकांत कक्ष में, किसी मन्दिर, नदी तट आदि स्थान पर जाकर की जा सकती है, पर इस बात का ध्यान रखें कि साधना स्थल ऐसा हो, जो शांत और कोलाहल से दूर हो; वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहां किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित न होता हो|
  • साधना प्रारंभ करने से पूर्व साधना संबंदी सारे उपकरण चित्र, यंत्र, माला आदि एक स्थान पर एकत्र कर लेनी चाहिए, पूजन सामग्री की व्यवस्था भी पहले से ही कर लेनी चाहिए, साथ ही साथ अपने गुरु या साधना बताने वाले व्यक्ति से साधना से सम्बंधित सरे तथ्य पहले से ही भली प्रकार समझ लेने चाहिए|
  • कभी-कभी साधना काल में आखोने के सामने कई अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ते हैं, कई बार विचित्र आवाजें सुनाई पड़ती है, कई बार ऐसा भी अनुभव होता है, कि जैसे आपको कोई आवाज दे रहा हो, परन्तु इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए और बराबर अपनी साधना में लगे रहना चाहिए|
  • साधना काल में अपने सामने जल का लोटा भर रख देना चाहिए, उबासी, जम्भाई या अपां वायु के निकलने पर जल को कानों से स्पर्श कर लेने से यह दोष मिट जाता है; यदि बीच में लघुशंका तेवर हो जाय, तो उठ कर लघुशंका कर लेता चाहिए, पर इसके बाद पुनः स्नान कर दूसरी धोती पहिन कर ही साधना में बैठना चाहिए|
  • साधनाकाल में माला हाथ से गिरानी नहीं चाहिए, इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखें, यदि गिर जाय, तो पुनः प्रारम्भ से मंत्र जप करना चाहिए, ज्यादा अच्छा यह होगा कि गौमुखी (माला रखने का वस्त्र) में माला रख कर मंत्र जप करें, जिससे कि माला गिरने की समस्या नहीं रहे, गौमुखी किसी भी प्रकार के कपडे की हो सकती हैं|
  • किसी भी प्रकार की साधना या मंत्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व दीक्षित होना जरूरी है, क्योंकि दीक्षा प्राप्त साधक ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता हैं; इसके बाद साधना प्रारम्भ करें, तो सबसे पहले एक माला गुरु मंत्र की जप कर, गुरु की पूजा कर उनके सामने निवेदन कर मंत्र जप प्रारम्भ करें, ऐसा क्रम नित्य रखना चाहिए, जिससे कि अप्रत्यक्ष रूप से गुरु सहायक बने रहे|
  • मंत्र जप के बीच में कैसी भी परिस्थिति आ जाय, उठाना नहीं चाइए, किसी से बातचीत होठों या संकेतों से नहीं करना चाहिए, यदि ऐसी परिस्थिति आ भी जाय तो उठ कर आचमन तथा पवित्रिकर्ण कर पुनः साधना में बैठे|
  • साधना के प्रति साधक को पूरा विश्वास और श्रद्धा होनी चाहिए, बिना आस्था, विश्वास के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती|
  • साधक सर्वथा शांत बने रहे, किसी भी प्रकार का सन्देह मन में नहीं आवें और न उग्रता अथावा क्रोध ही प्रदर्शित करें, साधना की अवधि में अशुद्ध भाषण न करें, असत्य न बोलें और कोई ऐसा कार्य न करें जो निति के विरुद्ध हो, पूरी निष्ठा और गुरु आशीर्वाद लेकर साधना में प्रवृत्त होने से निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है| 
--- ये किसी भी प्रकार की साधना के आधारभूत तथ्य है, जो साधक को अपनाने चाहिए, ऐसा करने पर उसे सफलता स्वाभाविक रूप में मिल जाती है|

- सदगुरुदेव श्री अरविन्द श्रीमालीजी 

रविवार, 27 जून 2010

युग परिवर्तन

संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और समय के साथ-साथ व्यक्ति की मान्यताएं, भावनाएं और इच्छाएं बदलती रही हैं; कुछ समय पूर्व सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं न्यून थीं और वे परस्पर मिल कर अपनी आवश्यकाओं की पूर्ति कर लेते थे, किसान अपना अनाज मोची को देता था और बदले में जूते बनवा लेता था, मोची चमड़े का काम करके दर्जी को देता था, और बदले में अपने कपडे सिलवा लेता था, इस प्रकार वे परस्पर एक-दुसरे के सहयोग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे|

परन्तु धीरे-धीरे युग में परिवर्तन आया और व्यक्ति के मन में एक-दुसरे के प्रति सन्देह का भाव बढ़ा; उसने सोचा, कि मैं अनाज दे रहा हूं, वह ज्यादा कीमती है, इसकी अपेक्षा यह जो मोची मुझे काम करके देता है, उसका मूल्य कम है, ऐसी स्थिति आने पर मुद्रा का विनिमय प्रारम्भ हुआ, तब जीवन में एक-दुसरे के कार्य की पूर्ति में मुद्रा मुख्य आधार बन गया|

लेकिन समय परिवर्तन के साथ ही साथ सामाजिक जीवन ज्यादा से ज्यादा जटिल होता गया, एक-दुसरे से आगे बढ़ने की होड़ लग गई और जल्दी से जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुंचने की भावना तीव्र हो गई, प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयत्न में लग गया, कि जल्दी से जल्दी  उस गंतव्य स्थल पर पहुंच जाय, जो कि उसका लक्ष्य है; फलस्वरूप उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दुसरे को पछाड़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई, व्यापारी जल्दी से जल्दी लखपति बनने की फिराक में मशगूल हो गए, अधिकारियों ने अपने विभाग में सबसे ऊँचे पद पर पहुंचने के लिए जी-तोड़ प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार एक ऐसी होड़ लग गई, जिसके रहते किसी प्रकार की शान्ति नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक छटपटाहट, एक बेचैनी, एक असंतोष की भावना बढ़ने लगी .. परन्तु इससे एक लाभ यह भी हुआ, कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सक्रीय हो गया और इस प्रकार इस प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप उन्नति के द्वार सभी के लिए सामान रूप से खुल गए|

परन्तु जब एक लक्ष्य हो और प्रतिस्पर्धी ज्यादा हों, तो एक विशेष प्रकार की होड़ व्यक्ति के मन में जम जाती है, वह अपने भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ भारत की प्राचीन विद्याओं की तरफ भी उन्मुख होने लगा और उनके माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी प्रयत्नशील बना, उसने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये और जब उसने अनुभव किया, कि अन्य भौतिक प्रयत्नों की अपेक्षा इनसे जल्दी और निश्चित सफलता मिलती है, तब वह इसकी खोज में ज्यादा प्रयत्नशील बना, वह ऐसे मन्त्रों व् साधना विधियों की खोज में बढ़ा, जिससे उसकी इच्छा पूर्ति सहजता से और शीघ्र हो सके|

मंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ आदि हमारी प्राचीन संस्कृति का मजबूत आधार है| एक ऐसा समय भी था, जब हम इनकी बदौलत संसार में अग्रगण्य थे और हमने समस्त भौतिक सुविधाओं को सुलभ कर लिया था, जिस समय पूरा संसार अज्ञान और अशिक्षा के अन्धकार में डूबा था, उस समय भी हमने प्रकृति को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया था, लंकाधिपति रावण ने पवन, अग्नि और अन्य प्राकृतिक तत्वों को मन्त्रों की सहायाता से इतना आधिक नियंत्रण में कर लिया था, कि वे उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करते थे, हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और अपने स्थान पर बैठे-बैठे हजारों-लाखों मील दूर घटित घटनाओं को अपनी आँखों से देखने में समर्थ थे - ये सारे तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं, कि हमारी परम्परा अत्यंत समृद्ध रही है और हमने इन मंत्र, तंत्र, यंत्रों के माध्यम से अदभुत सफलताएं प्राप्त की हैं|

कालांतर में हम पर विदेशी आक्रमण होते गए और उन लोगों ने हमारे उच्चकोटि के ग्रन्थ जला कर राख कर दिए, इस प्रकार से हम एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गए, हममे वह क्षमता नहीं रही, जो कि हमारे पूर्वजों में थी|

फिर समय बदला और लोगों ने यह महसूस किया, कि बिना इन मंत्र-तंत्रों की सहायता से हम अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते; इस संघर्ष में यदि हमें टिके रहना है, तो यह जरूरी है, कि इस उच्चकोटि की विद्या को पुनः प्राप्त कर योग्य गुरु से भली प्रकार समझा जाय, उन सारे नियमों-उपनियमों का पालन कर इन साधनाओं में सफलता प्राप्त की जाय, जिससे कि हमारा जीवन सुखमय, उन्नतिदायक और परिपूर्ण हो|

परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है, ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ मंत्र मर्मज्ञ प्रकाश में नहीं आये; जिनको ज्ञान है, वे स्वान्तः सुखाय पद्धति में विश्वास करते हैं और हिमालय के उन स्थानों पर तपस्यारत हैं, जहां आम आदमी का जाना संभव नहीं है| जो गृहस्थ जीवन में उच्चकोटि के अध्येता हैं, वे अपनी ही साधना में लीन हैं, उन्हें स्वार्थ का, छल-कपट का ज्ञान नहीं है, इसकी अपेक्षा नकली चमक-दमक वाले साधू-सन्तों और संन्यासियों की भीड़ एकत्र हो गई, जो आडम्बर से तो परिपूर्ण थे, लेकिन उनमे ठोस ज्ञान का सर्वथा अभाव था| सामान्य जन श्रेष्ठ और नकली साधू-सन्तों में भेद या अन्तर नहीं कर पाता, फ़लस्वरूप वे कई स्थानों पर धोके के शिकार हुए और इस प्रकार धीरे-धीरे जब उनका कार्य नहीं हुआ तो उनका विश्वास डगमगाने लगा, उन्हें आशंका होने लगी - ये मंत्र-तंत्र वास्तविक है भी या नहीं?

और इस प्रकार के विचारों ने उनकी आस्था की नींव हिला दी| परन्तु नकली चमक-दमक के बीच में ऐसे भी साधू, योगी या  गृहस्थ गुरु विद्यमान रहे, जो निःस्वार्थ भाव से अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील बने रहे, चमक-दमक को देखने के बाद वे उस  नकली जमात में नहीं मिले, जो स्वार्थ पर आधारित थी, क्योंकि उनके पास ठोस ज्ञान था, एक समृद्ध परम्परा थी, जिससे माध्यम से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता था|

जब सामान्य जनता उन नकली लोगों से उब गई, तो उन्हें अपनी गलती महसूस और वे इस खोज में लगे, कि हमारे पूर्वजों की यह समृद्ध परम्परा गलत नहीं हो सकती, अवश्य ही इन नकली लोगों में ही त्रुटी है या इन्हें इस सम्बन्ध में पूरा ज्ञान नहीं है, जिससे कि मनोकामना सिद्धि हो सके|

आज का मानव-समाज इतना अधिक जटिल हो गया है, कि मानव की समस्याओं का कोई अंत नहीं है, आगे बढ़ने में पग-पग पर कठिनाइयां और समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है|

आर्थिक समस्या, पुत्र न होने की समस्या, पुत्र प्राप्त होने पर भी कुपुत्र होने की समस्या, दुराचारी पत्नी की समस्या, पति-पत्नी में अनबन की समस्या, व्यर्थ में मुकदमे और बाधाओं की समस्या, रोजी की समस्या, व्यापार प्रारंभ न होने की समस्या, व्यापार वृद्धि की समस्या, विभिन्न रोगों से ग्रसित होने की समस्या, मानसिक चिंता दूर न होने की समस्या, पुत्री के लिये उपयुक्त वर न मिलने की समस्या, पुत्री का विवाह होने के बाद उसका वैवाहिक जीवन सुखी न होने की समस्या, नौकरी की समस्या, प्रमोशन की समस्या, घर में सुख शान्ति की समस्या, अधिकारीयों से मतभेद होने की समस्या, आकस्मिक मृत्यु की समस्या, भाग्योदय न होने की समस्या, जरूरत से ज्यादा कर्जा बढ़ जाने की समस्या, समय पर उच्च सम्मान प्राप्त न होने की समस्या, भूत-प्रेत-पिशाच बाधा, घर में सुख-शान्ति न रहने की समस्या|

-- और इस प्रकार की सैंकड़ों-हजारों समस्याएं हैं, जिनसे पग-पग पर व्यक्ति को जूझना पड़ता है, जिससे उनका अत्यधिक श्रम और शक्ति इन्हीं समस्याओं को हल करने में लग जाती हैं|

इन समस्याओं का समाधान सामाजिक कार्यों के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही विज्ञान के पास इसका कोई हल है, इनके लिये कुछ आधार या कुछ ऐसी विद्याओं की जरूरत है, जो गूढ़ विद्याएं कही जाती हैं, इन विद्याओं के अन्तर्गत यंत्र-तंत्र, साधना-उपासना, पूजा-पाठ मंत्र जप आदि जरूरी है|

अभी तक ये कार्य विशेष पंडित वर्ग ही संपन्न करता रहा, परन्तु धीरे-धीरे इन पंडितों के स्तर में भी न्यूनता आ गई, उनकी आगे की पीढ़ी इतनी योग्य न हो  सकी, जो दुसरे लोगों की समस्याओं को इन विद्याओं के माध्यम से दूर कर सकें; तब वे व्यक्ति अपने गुरु के समीप बैठ कर उन उपायों की खोज करने लगे, जिसके माध्यम से वे स्वयं इस प्रकार की साधनाएं संपन्न कर समस्याओं से मुक्ति पा  सके| आपके भी जीवन में ऐसे गुरु का आगमन हो यही आपको आशीर्वाद|

- श्री नारायण दत्त श्रीमाली

शनिवार, 8 मई 2010

तिमिर

सूर्य की रश्मियों से ही चन्द्रमा में प्रकाश है और वह प्रकाशवान दिखाई देता है| जबकि यह दृश्य प्रत्यक्षतः स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, कि सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर है और अन्य तारा मंडल पर पड़ रहा है और वे उसी से जगमगा रहे हैं| यह सब अदृश्य रूप से होता है और यह बात ध्रुव सत्य है| ठीक ऐसा ही शिष्य का जीवन होता है, उसके स्व के अन्दर कोई विशेषता नहीं होती, पर वह धीरे-धीरे  प्रसिद्धि के शिखर की ओर उन्मुख होता ही जाता है, ज्यों-ज्यों उसके अन्दर गुरु के प्रति समर्पण, सेवा और भक्ति का चन्द्रमा जगमगता है ... उसका नाम, यश, समाज में चन्द्रमा की किरणों की भांति बिखरता ही जता है और शिष्य को यह भान भी नहीं होता कि यह सब कैसे हो रहा है| वह तो सोचता है, कि यह प्रतिभा उसकी स्वयं की है और एक क्षण ऐसा आता है, कि वह प्रसिद्धि के मद में आकर गुरु के सान्निध्य को त्याग देता है, अपने निज स्वार्थ की पूर्ती के लिये| और गुरु से अलग होते ही उसे वस्तु-स्थिति का भान हो जाता है, कि क्या सही है? समाज कि विषमताओं के बीच जाकर धीरे-धीरे वह अधोगामी होता जाता है| इस सम्बन्ध में मुझे एक कथा स्मरण आ राहे है -

पौष की कडकडाती  ठंड में ऋषि गर्ग विचार मग्न बैठे हुए थे .. सांझ की बेला थी| ठंड कम करने के लिये कोयलों से भरा अलाव धधक रहा था| गर्ग का प्रिय शिष्य 'विश्रवानंद', जिसके ज्ञान की गरिमा कि चर्चा जनमानस में फैलती जा रही थी, इस बात से उसे धीरे-धीरे अभिमान हो गया और गुरु आश्रम त्यागने का निश्चय कर वह गुरु के पास गया ... ऋषि गर्ग उसकी मनोस्थिति को पढ़ रहे थे| पर फिर भी मौन थे, उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था, कि मेरे द्वारा लगाया हुआ पौधा मुरझा नहीं सकता| विश्रवानंद ने गुरु से  आज्ञा मांगी| ऋषि गर्ग मौन बैठे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होनें धदकते अलाव से एक कोयले के तुकडे को, जो काफी तेजी से दहक रहा था ... बाहर निकाला ..कोयले का टुकड़ा कुछ देर तो जलता रहा ... पर धीरे-धीरे उसकी दहकता शांत हो गयी, उस पर राख की परत चढ़ती गयी, देखते-देखते उसकी आभा धूमिल हो गयी| विश्रवानंद खड़े-खड़े यह क्रिया देख रहे थे .. समझ लिया गुरु के मौन संकेत को ... और चुपचाप आश्रम के अन्दर जा कर साधनारत हो गए|

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, अप्रैल २०१० 

रविवार, 18 अप्रैल 2010

कुल देवता - कुल देवी साधना

जिनकी कृपा से कु;परिवार में शान्ति एवं सम्पन्नता आती है| कुल देवी-कुल देवता पुरे परिवार की रक्षा करते हैं, आने वाले संकटों को हटा देते हैं| इसीलिए सारी पूजाओं में यज्ञ में कुल देवता-देवी पूजा का विधान है, कुल देवी-कुल देवता साधना करने से परिवार में पितृ दोष भी दूर हो जाता है|

जिस परकार मां-बाप स्वतः ही अपने पुत्र-पुत्रियों के कल्याण के प्रति चिंतित रहते हैं, ठीक उसी प्रकार कुलदेवता या कुलदेवी अपने कुल के सभी मनुष्यों पर कृपा करने को तत्पर रहते हैं, ठीक माता-पिता और एक कुशल अभिभावक की तरह जब अपने कुल के मनुष्यों को उन्नति करते, समृद्धि और साधन से युक्त होते हुए उस कुल के देवता देखते हैं, तो उन्हें अपूर्व आनन्द होता है|

मूल रूप से कुलदेवता अपनी कृपा कुल पर बरसाने को तैयार रहते हैं, परन्तु देवयोनि में होने के कारण बिना मांगे स्वतः देना उनके लिये उचित नहीं होता हैं| परन्तु यह देने की क्रिया तभी होती है, जब साधक मांग करता है| इसीलिए प्रार्थना, आरती पूजा का विधान होता है|

इस साधना द्वारा निश्चय ही कुलदेव की कृपा से जीवन संवर जाता है, और भौतिक सफलता के लिये तो यह शीघ्र प्रभावी साधना है|

व्यक्ति की पहचान सर्वप्रथम उसके कुल से होती है| प्रत्येक व्यक्ति का जिस प्रकार नाम होता है, गोत्र होता है, उसी प्रकार कुल भी होता है| 'कुल' अर्थात खानदान या उसकी वंश परम्परा| जिस वंश वह सम्बंधित होता है, वह वंश तो हजारो-लाखों वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन आज सामान्य व्यक्ति अपने कुल की तीन-चार पीढ़ियों से अधिक नाम नहीं जनता| यह कैसी विडम्बना है? यदि किसी व्यक्ति से उसके परदादा के भाइयों के नाम पूछे जाएं, तो वह बता नहीं पाता है| यह न भी याद रहे तो भी अपने कुल और गोत्र सदैव ध्यान रखना तो आवश्यक ही है क्योंकि प्रत्येक कुल परम्परा में उस कुल के पूजित देवी-देवता अवश्य होते हैं, इसलिए वार, त्यौहार, पर्व आदि पर स्वर्गीय दादा, परदादा दे साठ ही कुल देवता अथवा कुलदेवी को भोग अर्पण अवश्य ही किया जाता है|

कुल देवता का तात्पर्य है - जिस देवता की कृपा से कुल में अभिवृद्धि हुई है, परिवार को सड़ाव एक अबे छात्र प्राप्त होता रहा है| आज की तीव्र जीवन शैली में हम अपनी मूल संस्कृति से उतना अधिक सम्पर्कित नहीं रह सके हैं, परन्तु यदि कुल की परम्पराओं और कुल के अस्तित्व को देखना हो, तो आज भी भारत के कुछ प्रमुख नगरों को छोड़कर शेष सभी स्थानों में ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर भारतीय देव संस्कृति आज भी कई रूपों में जीवित है| कुल के देवताओं का अलग से मन्दिर होता है, उनकी पूजा होती है, और मात्र इसी के कई प्राकृतिक आपदाओं और बीमारियाँ में उनकी रक्षा होती है|

वाल्मीकि रामायण में देखने को मिलता है कि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या अर्जित कर पुनः लौटने पर भगवान् राम ने अपने कुल के सभी देवी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए साधना की थी| राजमहल के अन्दर ही एक मन्दिर में सभी देवी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था, जिसके कारण वे आने वाले समय में युगपुरुष सिद्ध हो सके|

यदि ध्यान दिया जाए, तो विशेष साधनाओं के पूर्व जिस प्रकार गणपति पूजन, गुरु पूजन, भैरव स्मरण आदि रूप से आवश्यक रूप से संपन्न किया जाता है, उसी प्रकार संक्षिप्त रूप में 'कुलदेवताभ्यो नमः' प्रभूत शब्दों को भी उच्चारण किया जाता है| यह कुलदेवता के प्रति अभिवादन है जिससे उनका आशीर्वाद प्राप्त हो पूर्व साधना में सफलता प्राप्त हो सके| वस्तुतः कुल देवता ही साधक को समस्त प्रकार के वैभव, उन्नति, शक्ति, प्रतिष्ठा, सुख, शान्ति प्रदान करने में सक्षम होते हैं, यदि उन्हें साधना द्वारा प्रसन्न कर लिया जाए तो|

यह दो सप्ताह की साधना है जो, किसी भी अमावास्या से प्रारम्भ की जा सकती है| अर्थात यदि साधना सोमवार को प्रारंभ की जाए, तो पंद्रह दिन बाद सोमवार को ही उस साधना का समापन किया जाना चाहिए| इस साधना हेतु 'कुलदेवता यंत्र', कुलदेवी भैषज एवं प्रत्यक्ष सिद्धि माला की आवश्यकता होती है| इस साधना में कुल मिलाकर २१ माला प्रतिदिन मंत्र जप करना पड़ता है| यह विशेष कुलदेवी-कुलदेवता मंत्र है, जो कि आपको पत्रिका में मिलेगा|

-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका जनवरी २००७ 

रविवार, 28 मार्च 2010

गुरु कृपा से कुल देवी की कृपा

 गुरु आये और मैं जान भी नहीं पाया 
लेकिन
गुरुदेव तो कृपालु है,
इस जन्म के क्या पूर्व जन्म के शिष्यों का ध्या रखते है 
जब मैंने कुल देवी की कृपा प्राप्त की

यद्यपि मैं संन्यासी तो नहीं रहा हूं, पर अपनी आदतों और स्वाभाविक प्रवृत्तियों को देखकर मैं अपने आप को किसी संन्यासी से कम भी नहीं समझता था| अकेले ही जंगलों में भटकना, और जड़ी-बूटियों की खोज करना यह मेरा बचपन से शौक था| यद्यपि आज मैं एक नागरिक जीवन व्यतीत कर रहा हूं, परन्तु आज भी मुझे बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं, जब मैं गाँव में अपने पिता  के साथ रहता था| वे गाँव के एक प्रसिद्द वैद्य थे| आज मुझे आयुर्वेद का जो अच्छा ज्ञान है, वह सब उनके साथ रहने से ही हुआ है|

उन दिनों मेरी आयु लगबघ १८ वर्ष की रही होगी| मैं गाँव के समीपवर्ती जंगलों में अमलतास, गिलोय, अपामार्ग, श्वेतार्क, सर्पगंधा, कठ्चंपा आदि औषधियों की तलाश में गया था| प्रकृति के मध्य जब मैं होता हूं तो प्रायः उसमें खो जाता हूं, और उस दिन मैं अपनी मस्ती में जंगल से सुदूर भीतर आ पहुंचा था, जिस स्थान पर शायद ही कोई आया हो| इस का एहेसास मुझे तब हुआ, जब आसमान से हल्की-हल्की फुहारें शरीर पर पड़ने लगी| बरसात का मौसम चल रहा था, औषधियों को ढूँढना तो दूर मैं उमड़ते मेघों को ही देखता रहा, बारिश मूसलाधार हो रही थी, मैं बारिश के रुकने तक पीपल के एक पेड़ के नीचे खडा रहा, परन्तु बारिश रुकने का नाम तक न ले रही थी| थोड़ी देर में अन्धेरा गहराने लगा और दिशा भ्रम के कारण मैं घर का मार्ग भूल चुका था| अब मैं सूर्योदय तक वहीँ रुकने को विवश था|

रात्रि के गहन अंधकार में दूर-दूर तक किसी प्रकार की कोई सहायता मिलने का आसार नहीं था| वृक्ष के नीचे खड़े होकर मैं स्वयं को वर्षा से बचाने की चेष्ठा तो कर रहा था, परन्तु फिर भी पानी और ठण्ड से मुझे कंपकंपी सी लग रही थी| कुछ देर में मुझे ऐसा लगा कि दूर कहीं घण्टी बजने की आवाज आ रही हैं, ऐसा लग रहा था कि पास ही कोई मंदिर है, और कोई उसमें आरती या पूजा कर रहा है| मुझे लगा कि यदि मंदिर होगा तो रात्रि में वहां आश्रय मिल सकता है, फिर सुबह घर वापिस निकल चलूँगा| उसी आवाज की दिशा में अँधेरे में आगे कुछ दूर चलने पर गोल चबूतरे पर बना छोटा सा मंदिर दिखाई दिया| मन्दिर के भीतर चिराग का प्रकाश बाहर तक आ रहा था| देखने से लग रहा था, कि मन्दिर पुराणी ईटों से बना हुआ है और उसकी हालत देखकर ऐसा लगता था, जैसे यहां कोई आता नहीं हो| परन्तु अन्दर दीपक होने और घण्टी की आवाज सुनाई देने से इतना तो कहा जा सकता था कि कोई न कोई अवश्य ही वहां का रख रखाव करता है| आस-पास घूमकर भी देखा, परन्तु कोई नजर न आया, तो मैंने मन्दिर में प्रवेश किया| मन्दिर क्या था, चार दीवारों और एक छत से मिलकर बना एक कक्ष मात्र था, जिसमें पूर्व दिशा की ओर एक देवी की मूर्ती स्थापित थी| मूर्ती पुरानी थी, उसके पास दीपक जल रहा था, परन्तु आस पास इतनी अधिक धुल जमी थी, कि यह समझ नहीं आ रहा था, कि जिसने दीपक जला कर रखा है, क्या वह साफ सफाई नहीं करता है|

कुछ भी हो, मैं प्रसन्न अवश्य था, कि मुझे रात्रि में वर्षा से भीगना नहीं पडेगा| यही सोचकर मैंने उस स्थान की साफ सफाई की, मूर्ती पर जमी धुल को झाड-पौंछ कर साफ कर दिया और उस कक्ष को दीपक की रोशनी में पूरा साफ कर लकड़ी के एक तख्ते पर, जो वहीँ रखा था, पर लेट गया, एक मस्त संन्यासी की भांति| दिन भर की थकावट से थोड़ी ही देर में मुझे नींद आ गई|

रात्रि  का दूसरा पहर था, मुझे ऐसा लगा कि धरती हिल रही है और मैं अपने को सम्हाल नहीं पा रहा हूं, वातावरण दुर्गन्ध से भर गया, ऐसा लगा जैसे कोई जानवर पास ही कहीं मर गया हो| मैंने दुर्गन्ध से नाक बंद कर ली, परन्तु आँख से जो दृश्य दिखा उससे मेरी घिग्घी बंध गई - सामने एक औघड लाल लाल आँखें किए मुझे घूरे जा रहा था, उसके हाथ में एक लंबा फरसा था, उसके पुरे शरीर पर गुप्त अंगो को ढकने के अलावा कुछ भी न था| पूरा बदन बेडौल और वीभत्स, कि देखते ही व्यक्ति बेहोश हो जाय| वह दुर्गन्ध उसके ही शरीर से आ रही थी| अब वह मेरी ओर बढ़ रहा था, और मुझे घबराया हुआ देखकर वह जोरों से अट्टाहास करने लगा|

मैं बुरी तरह घबरा गया था, मुझे साक्षात अपनी मृत्यु ही दिखाई दे रही थी, त्योंही मैंने मन्दिर के द्वार के बाहर भागने की कोशिश की, वह भी मेरी ओर जोरों से लपका| मैं पुरी जान लगाकर अंधाधुंद भागता रहा, काफी दूर निकल जाने पर मुझे एक संन्यासी के दर्शन हुए| संन्यासी को देखते ही मेरा भय जाता रहा, मुझे ऐसा लगा कि इस संन्यासी के होते हुए मेरा कोई भी अमंगल नहीं हो सकता है| संन्यासी ने मुझे निर्भय होने के लिये कहा, और बताया कि जिस मन्दिर में तुम अभी थे, वह तुम्हारी कुल की देवी - जंगल माई का मन्दिर है| बस्ती से दूर होने के कारण यह मन्दिर बिल्कुल ही उपेक्षित सा हो गया है| इस मन्दिर में तुम्हारे ही पूर्वजों ने देवी मूर्ती स्थापित की थी, आज से बीस वर्ष पूर्व तक भी लोग इस मन्दिर में पूर्णिमा के दिन और हर शुभ अवसर पर आकर पूजा आदि करते थे, पर अब इसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है| इसी वजह से इतर योनियों का यहां बसेरा हो गया है, जिससे देवी अप्रसन्न है| यदि इस मन्दिर में पुनः लोग आने लगे, तो उन्हें जंगली माई की कृपा प्राप्त हो सकेगी|

यह बोलकर संन्यासी ने मेरे सर पर हाथ फेरा, मुझे मन में बड़े आनन्द की अनुभूति हुई| मेरा रोम-रोम खिल उठा था, इसी आनन्दतिरेक में मेरी आँख खुल गईं, मैंने देखा कि सुबह होने वाली है, और मैं स्वप्न देख रहा था| आँख खुलने के बाद मुझे मन में विशेष प्रसन्नता अनुभव हो रही थी, मैंने मन्दिर की पुरी धुलाई की, मूर्ती को जल से साफ किया और मन्दिर के बाहर लगे कुछ फूलों को तोड़कर मैं देवी प्रतिमा पर अर्पित किए और प्रणाम कर घर की ओर वापस लौट आया|

रात भर घर न पहुंच सकने के कारण घर पर लोग चिंतित थे, परन्तु मुझे सकुशल पाकर प्रसन्न हो गए| मन्दिर में रात्रि व्यतीत करने वाली घटना मैंने घर में सभी को बताई, तो मां ने मुझे वहां पर फिर न जाने की हिदायत दी| मां ने कहा - 'उस मन्दिर में कोई जाता नहीं है, वहां पर रात में औघड़ तांत्रिक नर बलि एवं पशु बलि दे कर कई क्रियाएं करते हैं| वहां पर जो भी जाता है, वह या तो पागल हो जाता है, या उसकी मृत्यु हो जाती है| अब तुम उधर कभी मत जाना|'

मेरा परिक्षण कर मां ने जब मेरा माथा छुआ, तो बोली, - 'तेरा माथा तो तप रहा है, तुझे तो तेज बुखार है, यह सब उस मन्दिर में जाने से ही हुआ है|'

बुखार में ही लेटा रहा घर में रात्रि मुझे पुनः स्वप्न आया, और मुझे पुनः संन्यासी के दर्शन हुए उन्होनें कहा - 'बेटा! तू व्यर्थ में परेशान हो रहा है, तेरी तबीयत तो वर्षा में भीग जाने से खराब हुई है, वैसी कोई बात नहीं है जसी तू या तेरे घर वाले सोच रहे हैं|  उल्टे जंगली माई तो तुम पर बहुत प्रसन्न है, तुने मन्दिर की धुलाई कर, मूर्ती साफ कर उस पर पुष्प चढ़ाएं हैं इतने वर्षों के बाद| वहा कोई औघड नहीं है, तू वहां नित्य सुबह जाकर फूल चाढाएगा तो  तेरा कल्याण होगा, देवी स्वयं तेरा कल्याण करने को आतुर है|'

दुसरे दिन प्रातः निद्रा खुली तो यद्यपि बुखार तो अभी भी था, परन्तु मैं मन में पुरी तरह आश्वस्त था कि निश्चय ही मेरे जीवन में किसी शक्ति की कृपा हो रही है| पिताजी की औषधियों से दो दिन में मैं स्वस्थ हो गया और अगले दिन से नित्य सुबह मैं उस मन्दिर में जाता, वहां साफ सफाई कर पुष्पादि चढ़ाकर अगरबत्ती आदि लगाकर आ जाता| मात्र इतनी ही थी मेरी पूजा या साधना| परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में मुझे देवी के दर्शन हुए और उसके बाद फिर एक के बाद एक मुझे सफलता मिल गई, प्रतिभा और क्षमता का ऐसा विकास हुआ कि कॉलेज में उच्च स्थान आने लगा, बाद में उच्च श्रेणी का सरकारी पद प्राप्त हुआ, घर परिवार में हर प्रकार के साधन उपलब्ध हो सके, ये सब मात्र बचपन में कुलदेवी के मन्दिर में की गई सेवा के फलस्वरूप हुआ है|

आज के कुछ वर्ष पूर्व मैं किसी कार्यवश ट्रेन द्वारा यात्रा कर रहा था कि गुजरात वडोदरा स्टेशन पर एक सज्जन से मेरी मुलाक़ात हुई जो कि मेरी ही सीट के सामने आकर बैठे थे| उनके हाथ में 'मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान' का जुलाई-९३ का अंक देखा, जिस पर सदगुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी का संन्यासी चित्र छपा था| कवर के चित्र को देख कर मैं एकदम से चौंक गया, क्योंकि वह चित्र बिल्कुल उस संन्यासी के चेहरे से मिलता था, जिन्होनें मुझे मेरी कुल देवी के बारे में जानकारी दे कर स्वप्न में मुझे उनकी सेवा करने का आदेश दिया था| बाद में मैंने उन सज्जन द्वारा जानकारी प्राप्त कर पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली अर्थात स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से गुरु दीक्षा प्राप्त की| उन्हीं ने मुझे कुलदेवता/देवी की प्रामाणिक साधना स्पष्ट की, जिससे मैं अपनी कुलदेवी और कुल देवता के पूर्ण दर्शन कर कृत-कृत्य हो सका|

आज भी जब भी मैं किसी समस्या से ग्रस्त हो जाता हूं, तो मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कुलदेवी के दर्शन हो जाते हैं| समय बीता और मैं तो शहर चला गया पर गाँव के सदस्य आज उस मन्दिर में बड़ी श्रद्धा से जाकर पूजन करते हैं, आज वहां एक पुजारी अलग से नियुक्त है| कुलदेवी की कृपा से आज गाँव में हमारे कुल के सभी घरों में सम्पन्नता है, और लोग विकास कर रहे हैं| उसके बाद तो पूज्य गुरुदेव के सान्दिध्य में मैंने और भी साधनाएं संपन्न की, परन्तु जो सफलता और प्रत्यक्षीकरण की स्थिति मुझे इस साधना में मिली उतनी अधिक सफलता मुझे अन्य साधानाओं में न मिल सकी| निश्चय ही कुल देव या देवी अपने कुल के मनुष्यों के संरक्षक होते हैं, परन्तु जब हम स्वयं ही अपने कुल के देवता की सहायता न लेकर अन्य कही भटकते हैं, तो उन्हें कष्ट होता है, और वे सहायता करना चाहते हुए भी असमर्थ हो जाते हैं, और फिर उन के खिन्न या रुष्ट रहने पर परिवार में समृद्धि, सुख, सफलता होनी चाहिए थी, वह हो नहीं पाती हैं|

-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जनवरी २००७

रविवार, 14 मार्च 2010

वास्तविक तंत्र क्या है ?

- ऐसी ही कुछ सामाजिक कुरीतियों के कारण तंत्र जैसी गौरवशाली विधा घृणित हो गई, परन्तु तंत्र में बलि का तात्पर्य क्या नर बलि या पशु बलि से है ?

मंत्र साधनाओं एवं तंत्र के क्षेत्र में आज लोगों में रूचि बड़ी है, परन्तु फिर भी समाज में तंत्र के नाम से अभी भी भय व्याप्त है| यह पूर्ण शुद्ध सात्विक प्रक्रिया है, विद्या है परन्तु कालान्तर में तंत्र साधनाओं में विकृतियां आ गई| समाज के कुछ ओछे व्यक्तियों ने अपने निजी स्वार्थवश ऋषियों द्वारा बताए अर्थ को परिवर्तित कर अपनी अनुकूलता के अनुसार परिभाषा दे दी| वह विडम्बना रही है, कि भारतीय ज्ञान का यह उज्ज्वलतम पक्ष अर्थात तंत्र समाज में घृणित हो गया और आज भी समाज का अधिकांश भाग तंत्र के इस घृणित पक्ष से त्रस्त और भयभीत है|

परम्परागत तरीके से चले आ रहे इन तंत्र विद्याओं में परिवर्तन आवश्यक है| परम्परागत और नवीनता तो प्रकृति का नियम है| परम्परागत रूप से  चली आ रही साधना पद्धतियों में भी समयानुकूल परिवर्तन आवश्यक है तभी तंत्र और मंत्र की विशाल शक्ति से समाज का प्रत्येक व्यक्ति लाभान्वित हो सकेगा| यह युग के अनुकूल मंत्र साधनाएं प्रस्तुत कर सकें, चिन्तन दे सकें जिसे सामान्य व्यक्ति भी संपन्न कर लाभान्वित हो सके| और जब तक परिवर्तन नहीं होगा तब तक न अज्ञान मिटेगा और न ही ज्ञान का संचार ही हो सकेगा|

समाज में आज बहुत ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो भौतिक चिन्तन से ऊपर उठाकर साधनात्मक जीवन जीने की ललक रखते हैं| मात्र दैनिक पूजा या अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं, परन्तु उनमें दुर्लभ साधनाओं के प्रति बिल्कुल कोई लालसा नहीं है| पूजा एक अलग चीज है, साधना एक बिल्कुल अलग चीज है|

साधना केवल वही दे सकता है जो गुरु है| आज गाँव, नुक्कड़ में कई पुजारी मिल जायेंगे, पंडित मिल जायेंगे पर वे गुरु नहीं हो सकते, उनमें कोई साधनात्मक बल नहीं होता है| वह पूजा, कर्मकांड मात्र एक ढकोसला है जिसमें समाज आज पुरी तरह फंसा है| यही कारण है कि व्यक्ति जीवन भर मन्दिर जाते हैं, सत्य नारायण की कथा तो कराते हैं, यज्ञ भी कराते हैं, परन्तु उन्हें न तो किसी प्रकार की कोई साधनात्मक अनुभूति होती है और न ही किसी देवी या देवता के दर्शन ही होते हैं फिर भी वे स्वयं साधना के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करते| यदि व्यक्ति इन्हें जीवन में स्थान दें, तो वह सब कुछ स्वयं ही प्राप्त कर सकता है|

साधना से या तंत्र से न तो भयभीत होने की आवश्यकता है और न ही घृणा करने की आवश्यकता है| इसके वास्तविक अर्थ को समझ कर तीव्रता से इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की| अधिकांशतः लोग तंत्र को वामाचार अथवा बलि परम्परा से जोड़ते हैं परन्तु तंत्र में बलि का वास्तविक अर्थ क्या है इस और ध्यान दिया ही नहीं गया| ग्राम देवता, कुल देवता या इष्ट देवता को प्रसन्न करने के लिये बलि परम्परा आदि गाँवों में प्रचलित है, और कई ओझा, तांत्रिक बलि देते भी हैं, परन्तु शायद उन ढोंगियों  को यह ज्ञात नहीं है कि बलि का तात्पर्य होता है अपने अहंकार की बलि, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों की बलि न कि किसी पशु या भैस की बलि| इस अहम् की बलि के बाद इष्ट देवता के प्रति समर्पण का भाव उत्पन्न होता है और ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है|

तंत्र या साधना क्षेत्र तो पूर्ण सात्विक प्रक्रिया है, जिसे मात्र आत्म शुद्धि द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है| इसमें मांस, मदिरा, मैथुन आदि का तो नाम ही नहीं है, अपितु इसके विपरीत साधनाओं में सफलता तभी मिल सकती है, जब साधक अपने विकारों, काम, क्रोध, लोभ, अहम् की बलि दे सके| केवल यही बलि साधक को देनी होती हैं|

- सगुरुदेव परमहंस डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी 

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

समर्पण

कथा महाभारत के युद्ध की है| अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया| स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई| एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण| अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ... अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया| नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा| वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे| नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया| मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा|

भीम ने रथ से  नीचे उतर कर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया|

यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ... जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ... कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते| उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ... वह गुरुदेव के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ... धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी ... और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी|

- मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान फरवरी २००१

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

शिवरात्री विशेष प्रार्थना

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः
अखण्ड मंडलाकार व्याप्तं येन चराचरम
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः

गुरुदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्वरूप हैं| तथा साक्षात परब्रह्म स्वरुप हैं उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार हो| गुरु अखण्ड और ब्रह्म स्वरुप में समस्त चराचर में व्याप्त हैं, उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार है |

देवो गुण त्रयातीत श्चातुर्व्यहो महेश्वर,
सकलः सकलाधारशक्ते रुत्प्त्तीकारणम |
सोSयमात्मा त्रयस्याय प्रकृतेः पुरुषस्य ,
लीलाकृतजगत्स्रुष्टिरीश्वरत्वे व्यवस्थितः ||

चतुर्व्याह के रूप में प्रकट देवाधिदेव महेश्वर तीनों गुणों से अतीत हैं, वे सब की आधार रूपा शक्ति भी उत्पत्ति के कारण है| वे ही प्रकृति और पुरुष दोनों की आत्मा हैं| लीला से खेल ही खेल में वे अनंत ब्रह्माण्ड की रचना कर देते हैं, जगन्नियंता इश्वर रूप में वे ही स्थित हैं|


शिवत्वं सदा सर्व कल्याण रूपं,
ज़रा मृत्यु रोगम क्लेशं हेरण्यं
शिवः गुरु र्न भेदोएक स्वरूपं,
तस्मै नमः गुरु पूर्ण शिवत्व रूपं

भगवान् शिव हमेशा कल्याणकारी समस्त प्राणियों के दुःख, कष्ट, बुढ़ापा, रोग आदि दूर करने वाले औधार्दानी कृपामय हैं, शास्त्रों के अनुसार गुरु और शिव में कोई भेद नहीं हैं, एक ही स्वरुप हैं, इसलिए शिवरात्री के अवसर पर मैं शिवमय गुरुदेव को भक्तिभाव से प्रणाम करता हूं।


नमस्ते नाथ भगवान शिवाय गुरुरुपिणे |
विद्यावतारसंसिद्धये स्वकृतानेकविग्रह ||१||
नारायणस्वरूपाय परमारथैकरूपिणे |
सर्वाज्ञानतमोभेदभाविने चिदाधानाय ते ||२||
स्वतन्त्राय दयाक्लुप्त्विग्रहाय शिवात्मने |
परतन्त्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे  ||३||
विवेकिनां विवेकाय विमढ़साय विमाशीनां   |
प्रकाशानां  प्रकाशय ज्ञानिनं ज्ञानदायिने ||४||
पुरस्तात पार्श्वर्योः पृष्ठे नाम्स्कुर्यादुपर्यधः |
सदा सच्चितास्वरूपेण विधेहि भवदासनम ||५||

हे परम पूज्य नाथ! भगवन सदगुरू रूप धारी शिव!! आपको नमस्कार!!! इस चराचर जगत में ज्ञान विद्या के उद्भव हेतु, सिद्धि हेतु आपने यह स्वरुप ग्रहण किया है, आप साक्षात नारायण स्वरुप हैं, परमार्थ, सेवा, परमार्थ ध्यान ही आपकी शुद्धतम श्री विग्रह रूप है, सम्पूर्ण अज्ञान रुपी अंधकार दोष का भेदन करने वाले, चिदघन स्वरुप आपको नमो नमः! आप परम स्वतंत्र हैं, केवल शिष्यों, साधकों, जीवों पर कृपा, करूणा करने हेतु ही शरीर धारण किये हैं, स्वतंत्र होते हुए भी प्रेमवश अपने भक्तों, शिष्यों के आधीन हैं, कल्याणों के भी कल्याण, मंगलों के भी मंगल, भव्यों के भी भाची, आपके रूप को नमस्कार, आप ही विवेकियों के विवेक, विचारको के विचार, प्रकाशकों के प्रकाश हैं, ज्ञानियों को ज्ञान देने वाले आप ही श्री स्वरुप हैं, बार-बार नमस्कार, आपको! आपका यह शिष्य हर दिशा में आपको हर ओर से प्रणाम करता है, केवल इतना ही निवेदन है, कि सदा मेरे चित्त को आसन बनाएं, और मुझे कृतार्थ करें|      

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

दुर्लभ यंत्र और माला

कामदेव यंत्र
'काम' का तात्पर्य है क्रिया और यह क्रिया जब पूर्ण आवेश के साठ संपन्न की जाती है तो जीवन में कार्यों में सफलता प्राप्त होती है| कामदेव प्रेम और अनंग के देवता है और ये जीवन प्रेम-अनंग के साठ आनन्द पूर्वक जीते हुए अपने व्यक्तित्व में ओझ, अपनी शक्ति में वृद्धि के लिये ही बना है इस हेतु कामदेव साधना श्रेष्ठ साधना है| गृहस्थ व्यक्तियों के लिये कामदेव साधना वरदान स्वरुप है| जिसका मंत्र जप कर पुष्प का अर्पण कर पंचोपचार पूजन कर धारण किया जाये तो स्वाभाविक परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते है| व्यक्ति में निराशा की भावना समाप्त हो जाती है| उसमें प्रेम रस का अवगाहन प्रारम्भ हो जाता है| यह प्रेम गृहस्थ जीवन के प्रति भी हो सकता है, इष्ट के प्रति भी हो सकता है, गुरु के प्रति भी हो सकता है| श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये एक ही उपाय, धारण कीजिये कामदेव यंत्र| यह यंत्र किसी भी शुक्रवार को प्रातः पूजन कर, कामदेव यंत्र पर सुगन्धित पुष्पों की माला अर्पण कर एक माला मंत्र जप करें और इसे अपनी दायीं भुजा में बांध लें|
मंत्र- || ॐ कामदेवाय विदमहे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नो अनंगः प्रचोदयात || 

राजेश्वरी माला
जीवन में यदि विजय यात्रा प्राराम्ब करनी है, यदि सैकड़ो हजारों के दिल पर छा जाना है, राजनीति के क्षेत्र में शिखर को चूम लेता है या आकर्षण सम्मोहन की जगमगाहट से अपने आप को भर लेता है, यदि गृहस्थ सुख में न्यूनता है, और गृहस्थ जीवन को उल्लासमय बनाना है अथवा पूर्ण पौरुष प्राप्त कर जीवन में आनन्द का उपभोग करना है तो भगवती षोडशी की वरदान स्वरुप इस 'राजेश्वरी माला' को अवश्य धारण करें और आनन्द प्राप्त करें, जीवन का|
शुक्रवार की रात्रि को पूर्व दिशा की ओर मुंह कर बैठ जाएं| अपने सामने एक लकड़ी के बाजोट पर पीले वस्त्र बिच्चा कर उस पर गुरु चित्र स्थापित कर, सर्वप्रथम संक्षिप्त गुरु पूजन करें तथा गुरु से साधना में सफलता की प्रार्थना करें| इसके पश्चात गुरु चित्र के समक्ष किसी पात्र में राजेश्वरी माला का पूजन कुंकुम, अक्षत इत्यादि से करें और दूध का बना प्रसाद अर्पित करें| इसके पश्चात राजेश्वरी माला से निम्न मंत्र की ३ माला मंत्र जप संपन्न करें|
मंत्र: || ॐ ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं ||
सवा महीने तक माला धारण रखें इसके पश्चात माला को जल सरोवर में विसर्जित कर दें| जब भी अनुकूलता चाहे निम्न मंत्र का १५ मिनिट तक जप करें|

साबर धनदा यन्त्र
क्या आपको मालूम है कि साबर मन्त्रों के जप की अजीबो गरीब व अटपटी शब्द रचना होते हुए भी ये अत्यंत प्रभावी और तीक्ष्ण होते है? क्या आपको ज्ञात है, कि साबर साधनाओं में विशेष तंत्र क्रियाओं या कर्मकांड आदि की आवश्यकता नहीं होती? क्या आपको मालूम है, कि ये साबर मंत्र नाथ सम्प्रदाय के योगियों और कई बंजारों एवं आदिवासियों के पास आज भी सुरक्षित है? क्या आपको मालूम है कि साबर पद्धतियों से तैयार की गई ऐसी कई तांत्रोक्त वस्तुएं हें, जो लक्ष्मी और धनागम के लिए अचूक टोटका होती हें? "साबर धनदा यंत्र" साबर मन्त्रों से सिद्ध किया गया ऐस्सा ही यंत्र है, जो आपकी आर्थिक उन्नति के लिए पूर्ण प्रभावी है|

स्थापन विधि - इस यंत्र को प्राप्त कर किसी भी बुधवार के दिन अपने घर में काले कपडे में लपेट कर खूँटी पर टांग दें| तीन माह बाद उसे किसी निर्जन स्थान में फेक दें| यह धनागम का कारगर टोटका है|

गणपति यंत्र
भगवान गणपति सभी देवताओं में प्रथम पूज्य देव हें| इनके बिना कोई भी कार्य, कोई भी पूजा अधूरी ही मणी जाती हें| समस्त विघ्नों का नाश करने वाले विघ्नविनाशक गणेश की यदि साधक पर कृपा बनी रहे, तो उसके घर में रिद्धि-सिद्धि, जो कि गणेश जी की पत्नियां हें, और शुभ-लाभ जो कि इनके पुत्र हें, का भी स्थायित्व होता है| ऐसा होने से साधक के घर में सुख, सौभाग्य, समृद्धि, मंगल, उन्नति, प्रगति एवं समस्त शुभ कार्य होते ही रहते हें| इस प्रकार का यंत्र अपने आप में भगवान गणपति का प्रतीक है, और इस प्रकार यंत्र प्रत्येक साधक के पूजा स्थान में स्थापित होना ही चाहिए| बाद में यदि किसी प्रकार की साधना से पूर्व गणपति पूजन करना हो तो इसिस यंत्र का संक्षिप्त पूजन कर लेता होता है| इस यंत्र को नित्य धुप आदि समर्पित करने की भी आवश्यकता नहीं हें| मात्र इसके प्रभाव से ही घर में प्रगति, उन्नति की स्थिति होने लगती है| घर में इस यन्त्र का होना ही भगवान गणपति की कृपा का द्योतक है, सुख, सौभाग्य, शान्ति का प्रतीक है|

स्थापन विधि - इस यंत्र को प्राप्त कर गणपति चित्र के सामने साठ जोड़कर 'गं गणपतये नमः' का मात्र दस मिनिट जप करें और गणपति से पूजा स्थान में यंत्र रूप में निवास करने की प्रार्थना करें|इसके पश्चात यंत्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दें| अनुकूलता हेतु नित्या यंत्र के समक्ष हाथ जोड़कर नमस्कार करें|

कनकधारा यन्त्र
वर्त्तमान सामाजिक परिवेश के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थों में अर्थ ही महत्ता सर्वाधिक अनुभव होती है, परन्तु जब भाग्य या प्रारब्ध के कारण जीवन में अर्थ की न्यूनता व्याप्त हो, तो साधक के लिए यह आवश्यक हो जाता है, कि वह किसी दैविक सहायता का सहारा लेकर प्रारब्ध के लेख को बदलते हुए उसके स्थान पर मनचाही रचना करे| कनकधारा यंत्र एक ऐसा अदभुत यंत्र है, जो गरीब से गरीब ब्यक्ति के लिए भी, धन के स्त्रोत खोल देता है| यह अपने आपमें तीव्रतम स्वर्नाकर्षण के गुणों को समाविष्ट किए हुए है| लक्ष्मी से संभंधित सभी ग्रंथों में इसकी महिमा गाई गई है| शंकराचार्य ने भी निर्धन ब्राह्मणी के घर स्वर्ण वर्षा हेतु इसी यंत्र की ही चमत्कारिक शक्तियों का प्रयोग किया था|

स्थापन विधि - साधक को चाहिए कि इस यंत्र को किसी भी बुधवार को अपने पूजा स्थान में स्थापित कर दें| नित्य इसका कुंकुम, अक्षत एवं धुप से पूजन कर इसके समक्ष 'ॐ ह्रीं सहस्त्रवदने कनकेश्वरी शीघ्रं अतार्व आगच्छ ॐ फट स्वाहा' मंत्र का २१ बार जप करें| ऐसा ३ माह तक करें, फिर यंत्र को तिजोरी में रख लें|

ज्वालामालिनी यंत्र
ज्वालामालिनी शक्ति की उग्ररूपा देवी हें, परन्तु अपने साधक के लिए अभायाकारिणी हें| इनकी साधना मुख्य रूप से उन साधकों द्वारा की जाती हें, जिससे वे शक्ति संपन्न होकर पूर्ण पौरुष को प्राप्त कर सकें| ज्वालामालिनी की पूजा साधना गृहस्थों के द्वारा भूत-प्रेत बाधा, तंत्र बाधा के लिए, शत्रुओं के लिए, शत्रुओं द्वारा किए गए मूठ आदि प्राणघातक प्रयोगों को समाप्त करने के लिए की जाती हें|

साधना विधान - इसको आप मंगलवार या अमावस्या की रात्रि को प्रारम्भ करें| यह तीन रात्री की साधना है| सर्वप्रथम गुरु पूजन संपन्न करें, उसके पश्चात यंत्र का पूजन कुंकुम, अक्षत एवं पुष्प से करें और धुप दिखाएं| फिर किसी भी माला से निम्न मंत्र का ७ माला जप करें -

मंत्र - || ॐ नमो भगवती ज्वालामालिनी सर्वभूत संहारकारिके जातवेदसी ज्वलन्ती प्रज्वालान्ति ज्वल ज्वल प्रज्वल हूं रं रं हूं फट ||

साधना के तीसरे दिन यंत्र को अपने पूजा स्थान में स्थापित कर दें और जब भी अनुकूलता चांहे, ज्वालामालिनी मंत्र की ३ माला मंत्र जप अवश्य कर लें|

भाग्योदय लक्ष्मी यंत्र
जीवन में सौभाग्य जाग्रत करने का निश्चित उपाय, घर एवं व्यापार स्थल पर बरसों बरस स्थापित करने योग्य, सभी प्रकार की उन्नति में सहायक ... नवरात्रि के चैत्यन्य काल में मंत्रसिद्ध एवं प्राण प्रतिष्ठित, प्रामाणिक एवं पूर्ण रूप से शास्त्रोक्त विधि विधान युक्त ...

जीवन में भाग्योदय के अवसर कम ही आते हें, जब कर्म का सहयोग गुरु कृपा से होता है तो अनायास भाग्य जाग्रत हो जाता है| जहां भाग्य है, वहां लक्ष्मी है और वहीँ आनंद का वातावरण है| आप इस यंत्र को अवश्य स्थापित करें|

गृह क्लेश निवृत्ति यंत्र
जिस तरह आज शिक्षा बढ़ती जा रही है, जागरूकता बढ़ती जा रही है, उसी दर से मानवीय मूल्यों में वृद्धि नहीं हो रही है| यही कारण है कि आज पति और पत्नी, दोनों पढ़े-लिखे और शिक्षित होने के बावजूद भी एक दूसरे से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध दीर्घ काल तक बनाए नहीं रख पाते हैं| शहरी जीवन में घरेलु तनाव एक आम बात सी हो चुकी है| पति कुछ और सोचता है तो पत्नी कुछ और ही उम्मीदें बांधे रहती है, उसकी कुछ और ही दिनया होती है| पति-पत्नी एक गाडी के दो पहिये होते हैं, दोनों में असंतुलन हुआ, तो असर पुरे जीवन पर पड़ता है और आपसी क्लेश का विपरीत प्रभाव बच्चों के कोमल मन पर पड़ता है, जिससे उनका विकास क्रम अवरुद्ध हो जाता है| यदि पति-पत्नी में आपसी समझ न हो, तो भाई-बंधू या रिश्तेदार, अन्य सम्बन्धियों के कारण संयुक्त परिवार में आये दिन नित्य क्लेश की स्थिति बनी रहती है| इस प्रकार के घरेलू कलह का दोष किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता, कई बार भूमि दोष, स्थान दोष, गृह दोष, भाग्य दोष तथा अशुभ चाहने वाले शत्रुओं के गुप्त प्रयास भी सम्मिलित रहते हैं| कारन कुछ भी हो, इस यंत्र का निर्माण ही इस प्रकार से हुआ है कि मात्र इसके स्थापन से वातावरण में शांति की महक बिखर सके, संबंधों में प्रेम का स्थापन हो सके और लढाई-झगड़ों से मुक्ति मिले तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य की उन्नति हो|

साधना विधान
किसी मंगलवार के दिन इस यंत्र को स्नान करने के पश्चात प्रातः काल अपने पूजा स्थान में स्थापित कर दें| नित्य प्रातः यंत्र पर कुंकुम व् अक्षत चढ़ाएं तथा 'ॐ क्लीं क्लेश नाशाय क्लीं ऐं फट' मंत्र का ५ बार उच्चारण करें, तीन माह तक ऐसा करें, उसके बाद यंत्र को जल में विसर्जन कर दें|

सुमेधा सरस्वती यन्त्र
क्या आपका बच्चा पढ़ाई एवं स्मरण शक्ति में कमजोर हो रहा है? किसी आकस्मिक आघात अथवा पारिवारिक की प्रतिकूलता के कारण बच्चे की मस्तिष्क नाड़ियों पर अत्याधिक खिंचाव उत्पन्न हो जाता है| बच्चे का कोमल मस्तिष्क इस प्रतिकूलता को झेल नहीं पाता, और धीरे धीरे मंद होता जाता है, बच्चा चिडचिडा हो जाता है, हर कार्य में विरोध करना उसकी आदत बन जाती, किसी भी रचनात्मक कार्य में उसका मन नहीं लगता, पढ़ाई से उसकी अरुचि हो जाती है, उसमें आतंरिक रूप से  किसी कार्य में सफल होकर आगे बढ़ने की ललक समाप्त हो जाती है और बच्चा एक सामान्य बच्चे की तरह रह जाता है| ऐसा बच्चा आगे चलकर किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता| इसलिए अभी से उसका मानसिक विकास आवश्यक है, और यह हो सकता है, उसके मस्तिष्क तंतुओं को अतिरिक्त शक्ति/ऊर्जा प्रदान करने से, जो कि दीक्षा द्वारा हो सकता है अथवा विशेष रूप से निर्मित किये गए इस प्राण-प्रतिष्ठित मंत्रसिद्ध 'सुमेधा सरस्वती यंत्र' द्वारा| इस प्रकार के यंत्र १६ वर्ष से कम आयु के बालक/बालिकाओं/किशोरों के लिए ही विशेष फलदायी होंगे|

धारण विधि
इस यंत्र को प्राप्त कर अपने सामने किसी पात्र में रखकर उसके समक्ष दस मिनिट 'ॐ ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमो नमः' का मानसिक जप करें| इस प्रकार तीन दिन तक नित्य प्रातःकाल जप करें| तीसरे दिन यंत्र को काले या लाल धागे में बच्चे के गले में पहना दें|

महामृत्युंजय माला
कई बार ऐसी स्थितियां जीवन में आ जाती हैं, जब प्राणों पर संकट बन आता है - इसका कारण कोई भी हो सकता है, किसी षडयंत्र अथवा साजिश का शिकार होना, किसी भयंकर रोग से ग्रसित होना आदि| भगवान शिव को संहारक देवता माना गया है और मृत्यु पर भी विजय प्राप्त करने के कारण मृत्युंजय कहा गया है| अपने साधक के प्राणों पर संकट से भगवान महामृत्युंजय अवश्य ही रक्षा करते हैं, यदि प्रामाणिक रूप से उनकी साधना संपन्न कर ली जाती है तो इस यंत्र प्रयोग द्वारा समस्त प्रकार के भय - राज्य भय, शत्रु भय, रोग भय आदि सभी शून्य हो जाते हैं|


इस यंत्र को किसी सोमवार के दिन पीले कागज़ अथवा कपडे पर लाल स्याही से अंकित करें|  यंत्र में जिस पर अमुक शब्द आया है, वहां अपना नाम लिखें| यदि यह प्रयोग आप किसी अन्य के लिए कर रहे हों, तो उसका नाम लिखें| यंत्र के चारों कोनों पर त्रिशूल अंकित है, वे प्रतिक हैं इस बात का कि चरों दिशाओं से भगवान् शिव साधक की रक्षा कर रहे हैं| यंत्र के चारों कोनों पर काले तिल की एक-एक ढेरी बनाएं| प्रत्येक ढेरी पर एक-एक 'पंचमुखी रुद्राक्ष' स्थापित करें| ये चार रुद्राक्ष भगवान शिव की चार प्रमुख शक्तियां हैं| इसके पश्चात 'महामृत्युंजय माला' से निम्न महामृत्युंजय मंत्र की ५ मालाएं संपन्न करें -
|| ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धीं पुष्टिवर्धनम उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ||
इस मंत्र का ११ दिन तक जप करें, फिर माला तथा चारों रुद्राक्षों को एक काले धागे में पिरोकर धारण कर लें| एक माह धारण करने के बाद महामृत्युंजय माला तथा रुद्राक्ष को जल में विसर्जित कर दें|

तिब्बती धन प्रदाता लामा यंत्र
दिव्यतम वस्तुएं अपनी उपस्थिति की पहचान करा ही देती हैं... इस के लिए कहने की आवश्यकता नहीं होती, वह तो अपनी उपस्थिति से, अपना सुगंध से ही आस पास के लोगों को एहेसास करा देती है, अपने होने का ...

उत्तम कोटि के मंत्रसिद्ध प्राण प्रतिष्ठित दिव्या यंत्रों के लिए भी किसी विशेष साधना की आवश्यकता नहीं होती| ऐसे यंत्र तो स्वयं ही दिव्या रश्मियों के भण्डार होते हैं, जिनसे रश्मियां स्वतः ही निकल कर संपर्क में आने वाले व्यक्ति एवं स्थान को चैतन्य करती रहती हैं| हिमालय की पहाड़ियों पर बसा तिब्बत देश क्षेत्रफल में छोटा अवश्य है परन्तु तंत्र क्षेत्र में जो उपलब्धियां तिब्बत के बौद्ध लामाओं के पास हैं, वे आम आदमी को आश्चर्यचकित कर देने और दातों तले उंगलियां दबा लेने के लिए पर्याप्त हैं| ऐसे ही एक सुदूर बौद्ध लामा मठ से प्राप्त गोपनीय पद्धतियों एवं मन्त्रों से निर्मित व् अनुप्राणित यह यंत्र साधक के आर्थिक जीवन का कायाकल्प करने के लिए पर्याप्त है|

इस यंत्र के स्थापन से तिब्बती लामाओं की धन-देवी का वरद हस्त साधक के घर को धन-धान्य, समृद्धि से परिपूर्ण कर देता है, फिर अभाव उसके जीवन में नहीं रहते, ऋण का बोझ उसके सर से हट जाता हैं और उसे किसी के आगे हाथ नहीं पसारने पड़ते|

किसी रविवार की रात्रि को यह यंत्र लाल कपडे में लपेट कर 'ॐ मनिपदमे धनदायै हुं फट' मंत्र का ११ बार उच्चारण कर मौली से बांध दें, फिर इसे अपने घर की तिजोरी में रख दें| इससे निरन्तर अर्थ-वृद्धि होगी|

राज्य बाधा निवारण यंत्र
यदि कोई व्यक्ति मुकदमें में फस जाए, क्र्त्काचाहरी के चक्कर लगाने में फस जाए, तो उसका हंसता-खेलता जीवन बिल्कुल मृतप्राय हो जाता है, जीवन छलनी-छलनी हो जाता है.. और ऐसी स्थिति आ जाती हैं कि व्यक्ति जीवन को समाप्त कर देने की सोचने लग जाता हैं| परिश्रम से इकट्ठी की गई जमा पूंजी पानी की तरह बहने लगती हैं|

आपको न्याय मिल सके, मुकदमें में सफलता प्राप्त हो सके, तथा इस उलझन से आपको छुटकारा मिल असके, इसी दृष्टि से इस यंत्र का निर्माण किया गया हैं| अपने पूजा स्थान में स्थापित कर, गुरुदेव का ध्यान करते हुए इस यंत्र का नित्य प्रातः काल पूजन करें| तीन माह पश्चात यंत्र को जल में विसर्जित कर दें|

महाकाल माला
भगवान् शिव की तीव्रता का अनुभव हर उस व्यक्ति को होता है, जो काल के ज्वार भाटे का अनुभव करता हैं, इन क्षणों में व्यक्ति किसी भी अन्य पर विश्वास नहीं करता, वह निर्भर होता है, तो मात्र स्वयं पर या काल पर, लेकिन जो समर्थ व्यक्ति होते हैं, वे काल पर भी निर्भर नहीं होते, अपितु अपने साधनात्मक बल से काल को अपने अनुसार चलने पर बाध्य कर देते हैं| 'महाकाल माला' भी ऐसी ही अद्वितीय माला हैं, जिसे धारण करके साधक अपने मार्ग की रुकावट को धकेल कर हटा सकता है, बाधाओं को पैर की ठोकरों से उड़ा सकता है| आप इसे सवा माह तक धारण करने के उपरांत नदी में विसर्जित कर दें तथा नित्य भगवान् शिव का ध्यान मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का जप करें|

सिद्धि प्रदायक तारा यंत्र
'साधकानां सुखं कन्नी सर्व लोक भयंकरीम' अर्थात भगवती तारा तीनों लोकों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हैं, साधकों को सुख देने वाली और सर्व लोक भयंकरी हैं| तारा की साधना की श्रेष्ठता और अनिवार्यता का समर्थन विशिष्ठ, विश्वामित्र, रावण, गुरु गोरखनाथ व अनेक ऋषि मुनियों ने एक स्वर में किया हैं| 'संकेत चंद्रोदय' में शंकाराचार्य ने तारा-साधना को ही जीवन का प्रमुख आधार बताया है| कुबेर भी भगवती तारा की साधना से ही अतुलनीय भण्डार को प्राप्त कर सके थे| तारा साधना अत्यंत ही प्राचीन विद्या है, और महाविद्या साधना होने की बावजूद भी शीघ्र सिद्ध होने वाली है, इसी कारण साधकों के मध्य तारा-यंत्र के प्रति आकर्षण विशेष रूप से रहता है|

वर्त्तमान समय में ऐश्वर्य और आर्थिक सुदृढ़ता ही सफलता का मापदण्ड है, पुण्य कार्य करने के लिए भी धन की आवश्यकता है ही, इसीलिए अर्थ को शास्त्रों में पुरुषार्थ कहा गया है| साधकों के हितार्थ शुभ मुहूर्त में कुछ ऐसे यंत्रों की प्राण-प्रतिष्ठा कराई गई है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने घर में स्थापित कर कुछ दिनों में ही इसके प्रभाव को अनुभव कर सकता है, अपने जीवन में सम्पन्नता और ऐश्वर्य को साकार होते, आय नए स्त्रोत निकलते देख सकता है|

आपदा उद्धारक बटुक भैरव यंत्र
किसी भी शुभ कार्य में, चाहे वह यज्ञ हो, विव्वः हो, शाक्त साधना हो, तंत्र साधना हो, गृह प्रवेश अथवा कोई मांगलिक कार्य हो, भैरव की स्थापना एवं पूजा अवश्य ही की जाती है, क्योंकि भैरव ऐसे समर्थ रक्षक देव है, जो कि सब प्रकार के विघ्नों को, बाधाओं को रोक सकते हैं, और कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो जाता है| आपदा उद्वारक बटुक भैरव यंत्र स्थापित करने के निम्न लाभ हैं -
- व्यक्ति को मुकदमें में विजय प्राप्त होती है|
- समाज में उसके मां-सम्मान और पौरुष में वृद्धि होती है|
- किसी भी प्रकार की राज्य बाधा, जैसे प्रमोशन अथवा ट्रांसफर में आ रही बाधाओं से निवृत्ति प्राप्त होती है|
- आपके शत्रु द्वारा कराया गया तंत्र प्रयोग समाप्त हो जाता है|
यदि आपके जीवन में उपरोक्त प्रकार की बाधाएं लगातार आ रही हों, और आप कई प्रकार के उपाय कर चुके है, इसके बावजूद भी आपकी आपदा समाप्त नहीं हो रही है, तो आपको आपदा उद्वारक बटुक भैरव यंत्र अवश्य ही स्थापित करना चाहिए| इस यंत्र को स्थापित कर बताई गई लघु विधि द्वारा पुजन करने मात्र से ही आपकी आपदाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं| इस यंत्र के लिए किसी विशेष पूजन क्रम की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे अमृत योग, शुभ मुहूर्त में सदगुरुदेव द्वारा बताई गई विशेष विधि द्वारा प्राण-प्रतिष्ठित किया गया है|

स्थापन विधि - बटुक भैरव यंत्र को किसी भी षष्ठी अथवा बुधवार को रात्रि में काले तिल की ढेरी पर स्थापित कर कुंकुम, अक्षत, धुप से संक्षिप्त पूजन कर लें| इसके पश्चात पूर्ण चैतन्य भाव से निम्न मंत्र का १ घंटे तक जप करें|

|| ॐ ह्रीं बटुकाय आपद उद्वारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ स्वाहा ||

उपरोक्त मंत्र का यंत्र के समक्ष ७ दिन तक लगातार जप करने के पश्चात यंत्र को किसी जल-सरोवर में विसर्जीत कर दें| कुछ ही दिनों में आपकी समस्त आपदाएं स्वतः ही समाप्त हो जायेगी|

जगदम्बा यंत्र
आज जब जीवन बिल्कुल असुरास्खित बन गया है, पग-पग पर संकट, और खतरे मुंह बाए खड़े हैं, तो अपनी प्राण रक्षा अत्यंत आवश्यक हो जाती है| यदि किसी शत्रु अथवा किसी आकस्मिक दुर्घटना से जान का भय हो, तो व्यक्ति का जीवन चाहे कितना ही धन-धान्य से पूरित हो, उसका कोई भी अर्थ नहीं| प्रत्येक व्यक्ति अपनी ओर से अपनी सुरक्षा की ओर से सचेष्ट रहता ही है, परन्तु दुर्घटनाएं बिना सूचना दिए आती हैं| ऐसी स्थिति में दैवी सहायता या कृपा ही एक मात्र उपाय शेष रहता है|

ज्योतिषीय दृष्टि से दुर्घटना का कारण होता है, कि अमुक व्यक्ति अमुक समय पर अमुक स्थान पर उपस्थित हो ही| परन्तु ग्रहों के प्रभाव से यदि दुर्घटना किसी विशेष स्थान पर होनी ही है, परन्तु यदि व्यक्ति उस विशेष क्षण में उस स्थान पर उपस्थित न होकर समय थोडा आगे पीछे हो जाए, तो उस दुर्घटना से बच सकता है| ग्रहों का प्रभाव ऐसा होता है, कि अपने आप ही उस विशेष समय में व्यक्ति को निश्चित दुर्घटना स्थल की ओर खीचता ही है, परन्तु जगदम्बा यंत्र एक ऐसा उपाय है, जो ग्रहों के इस क्रुप्रभाव को क्षीण कर देता है| इस यंत्र को सिर्फ अपने पूजा स्थान में स्थापित ही करना है| और नित्य धुप, दीपक दिखाकर पुष्प अर्पित करें|

तंत्र बाधा निवारक वीर भैरव यंत्र
तंत्र की सैकड़ों-हजारों विधियां हैं, परन्तु जितनी तीव्र और अचूक भैरव या भैरवी शक्ति होती है, उतनी अन्य कोई नहीं होती| वीर भैरव शिव और पारवती के प्रमुख गण हैं, जिनको प्रसन्न कर मनोवांछित लाभ प्राप्त किया जा सकता है| मूलतः इस साधना को गृहस्थ जीवन को वीरता से जीने के लिए संपन्न किया जाता है| वीरता का अर्थ है प्रत्येक बाधा, समस्या, अड़चन और परिस्थिति को अपने नियंत्रण में लेकर, उस परिस्थिति पर पूर्ण वर्चस्व स्थापित करते हुए, वीरता से जूझते हुए विजय प्राप्त करने की क्रिया| यही वीरता वीर भैरव-यंत्र को घर में स्थापित करने पर प्राप्त होने लगती है| गृहस्थ जीवन सुख, शान्ति और निर्विघ्न रूप से गतिशील होता है| समस्याओं पर हावी होते हुए भी पूर्ण आनंदयुक्त बने रहना - यही वीर - भाव है| मुख्यतः इस साधना को तंत्र बाधा, मूठ आदि को समाप्त करने के लिए किया जाता है|

सुदर्शन चक्र
समस्त प्रकार की आपदाओं, विपत्तियों, बाधाओं, कष्टों, अकाल मृत्यु निवारण तथा परिवार के समस्त सदस्यों की पूर्ण सुरक्षा हेतु! भगवान् कृष्ण ने सुदर्शन चक्र धारण किया और अपने शत्रुओं का पूर्ण रूप से विनाश कर दिया था| सुदर्शन चक्र का तात्पर्य है वह शक्ति चक्र, जिसे धारण कर साधक विशेष ऊर्जा युक्त हो जाता है और जीवन की समस्याओं से लड़ने की सहज क्षमता आ जाती है| कृष्ण मन्त्रों से सिद्ध प्राण-प्रतिष्ठा युक्त यह सुदर्शन चक्र कृष्ण को अपने भीतर धारण करने के सामान ही है| जिस घर में सुदर्शन चक्र होता है वह घर भूत-प्रेत बाधाओं से मुक्त हो जाता है, साधक में तीव्र आकर्षण शक्ति आने लगती है जो उसे निर्भय बनाती है|

स्थापन विधि - किसी भी कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन प्रातः ७:३६ से ८:२४ की बीच गुरु पूजन एवं कृष्ण पूजन संपन्न कर, गुरु चित्र के सामने सुदर्शन चक्र रख दे और उस पर कुंकुम, अक्षत अर्पित करें| फिर दायें हाथ की मुट्ठी में सुदर्शन चक्र लेकर 'क्लीं कृष्णाय नमः' मंत्र का १०८ बार जा करें तथा चक्र को पुनः अपने पूजा स्थान में रख दें| जब भी कोई विशेष कार्य के लिए जाएँ, इस चक्र को जेब में रखें| कार्य में सफलता अवश्य प्राप्त होगी|

आदित्य सूर्य यंत्र
मनुष्य का शरीर अपने आपमें सृष्टि के सारे क्रम को समेटे हुए है, और जब यक क्रम बिगड़ जाता है, तो शरीर में दोष उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण व्याधि, पीड़ा, बीमारी का आगमन होता है, इसके अतिरिक्त शरीर की आतंरिक व्यवस्था के दोष के कारण मन के भीतर दोष उत्पन्न होते हैं, जो कि मानसिक शक्ति, इच्छा की हनी पहुंचाते हैं, व्यक्ति की सोचने-समझाने की शक्ति, बुद्धि क्षीण होती हैं, इन सब दोषों का नाश सूर्य तत्व को जाग्रत किया जा सकता है| क्या कारन है कि एक मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंच जाता है और एक व्यक्ति पुरे जीवन सामान्य ही बना रहता हैं दोनों में भेद शरीर के भीतर जाग्रत सूर्य तत्व का है, नाभि चक्र, सूर्य चक्र का उदगम स्थल है, और यह अचेतन मन के संस्कार तथा चेतना का प्रधान केंद्र है, शकरी का स्रोत बिंदु है| साधारण मनुष्यों में यह तत्व सुप्त होता है, न तो इनकी शक्ति का सामान्य व्यक्ति को ज्ञान होता है और न ही वह इसका लाभ उठा पाता है| इस तत्व को अर्थात्भीटर के मणिपुर सूर्य चक्र को जाग्रत करने के लिए बाहर के सूर्य तत्व की साधना आवश्यक है, बाहर का स्रुया अनंत शक्ति का स्रोत है, और इसको जब भीतर के सूर्य चक्र से जोड़ दिया जाता है, तो साधारण मनुष्य भी अनंत मानसिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है, और जब यह तत्व जाग्रत हो जाता है, तो बीमारी, पीड़ा, बाधाएं उस मनुष्य के पास आ ही नहीं सकती हैं|

स्थापन विधि - रविवार के दिन साधक प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठाकर स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर लें| उसके पश्चात पूर्व दिशा की ओर मुख कर एक ताम्बे के पात्र में शुद्ध जल भर उसमें आदित्य सूर्य यंत्र रख दें| इसके पश्चात निम्न मंत्र की १ माला जप करें| मंत्र - 'ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः'|  मंत्र जप के पश्चात पात्र में सूर्य यंत्र निकाल कर जल सूर्य को अर्घ्य कर दें| ऐसा चार रविव्वर करने के पश्चात सूर्य यंत्र को जल में समर्पित कर दें|

पारद मुद्रिका
हमारे शात्रों में पारद को पूर्ण वशीकरण युक्त पदार्थ माना है, यदि किसी प्रकार से पारद की अंगूठी बन जाए और कोई व्यक्ति इसे धारण कर लें, तो यह अपने आप में अलौकिक और महत्वपूर्ण घटना मानी जाती हैं| सैकड़ों हाजारों साधकों के आग्रह पर पारद मुद्रिका का निर्माण किया गया है| इस मुद्रिका को आसानी से किसी भी हाथ में या किसी भी उंगली धारण किया जा सकता है, क्योंकि यह सभी प्रकार के नाप की बनाई गई है| जब पारद मुद्रिका का निर्माण हो जाता है, तब इसे विशेष मन्त्रों से मंत्र सिद्ध किया जाता है, वशीकरण मन्त्रों से सम्पुटित बनाया जाता है, सम्मोहन मन्त्रों से सम्पुटित किया जाता है, और चैतन्य मन्त्रों से इसे सिद्ध किया जाता है| आज के युग में यह अलौकिक तथ्य है, यह अद्वितीय मुद्रिका है, तंत्र के क्षेत्र में सर्वोपरि है, जिससे हमारा जीवन, सहज, सुगम, सरल और प्रभावयुक्त बन जाता है|