- ऐसी ही कुछ सामाजिक कुरीतियों के कारण तंत्र जैसी गौरवशाली विधा घृणित हो गई, परन्तु तंत्र में बलि का तात्पर्य क्या नर बलि या पशु बलि से है ?
परम्परागत तरीके से चले आ रहे इन तंत्र विद्याओं में परिवर्तन आवश्यक है| परम्परागत और नवीनता तो प्रकृति का नियम है| परम्परागत रूप से चली आ रही साधना पद्धतियों में भी समयानुकूल परिवर्तन आवश्यक है तभी तंत्र और मंत्र की विशाल शक्ति से समाज का प्रत्येक व्यक्ति लाभान्वित हो सकेगा| यह युग के अनुकूल मंत्र साधनाएं प्रस्तुत कर सकें, चिन्तन दे सकें जिसे सामान्य व्यक्ति भी संपन्न कर लाभान्वित हो सके| और जब तक परिवर्तन नहीं होगा तब तक न अज्ञान मिटेगा और न ही ज्ञान का संचार ही हो सकेगा|
समाज में आज बहुत ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो भौतिक चिन्तन से ऊपर उठाकर साधनात्मक जीवन जीने की ललक रखते हैं| मात्र दैनिक पूजा या अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं, परन्तु उनमें दुर्लभ साधनाओं के प्रति बिल्कुल कोई लालसा नहीं है| पूजा एक अलग चीज है, साधना एक बिल्कुल अलग चीज है|
साधना केवल वही दे सकता है जो गुरु है| आज गाँव, नुक्कड़ में कई पुजारी मिल जायेंगे, पंडित मिल जायेंगे पर वे गुरु नहीं हो सकते, उनमें कोई साधनात्मक बल नहीं होता है| वह पूजा, कर्मकांड मात्र एक ढकोसला है जिसमें समाज आज पुरी तरह फंसा है| यही कारण है कि व्यक्ति जीवन भर मन्दिर जाते हैं, सत्य नारायण की कथा तो कराते हैं, यज्ञ भी कराते हैं, परन्तु उन्हें न तो किसी प्रकार की कोई साधनात्मक अनुभूति होती है और न ही किसी देवी या देवता के दर्शन ही होते हैं फिर भी वे स्वयं साधना के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करते| यदि व्यक्ति इन्हें जीवन में स्थान दें, तो वह सब कुछ स्वयं ही प्राप्त कर सकता है|
साधना से या तंत्र से न तो भयभीत होने की आवश्यकता है और न ही घृणा करने की आवश्यकता है| इसके वास्तविक अर्थ को समझ कर तीव्रता से इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की| अधिकांशतः लोग तंत्र को वामाचार अथवा बलि परम्परा से जोड़ते हैं परन्तु तंत्र में बलि का वास्तविक अर्थ क्या है इस और ध्यान दिया ही नहीं गया| ग्राम देवता, कुल देवता या इष्ट देवता को प्रसन्न करने के लिये बलि परम्परा आदि गाँवों में प्रचलित है, और कई ओझा, तांत्रिक बलि देते भी हैं, परन्तु शायद उन ढोंगियों को यह ज्ञात नहीं है कि बलि का तात्पर्य होता है अपने अहंकार की बलि, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों की बलि न कि किसी पशु या भैस की बलि| इस अहम् की बलि के बाद इष्ट देवता के प्रति समर्पण का भाव उत्पन्न होता है और ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है|
तंत्र या साधना क्षेत्र तो पूर्ण सात्विक प्रक्रिया है, जिसे मात्र आत्म शुद्धि द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है| इसमें मांस, मदिरा, मैथुन आदि का तो नाम ही नहीं है, अपितु इसके विपरीत साधनाओं में सफलता तभी मिल सकती है, जब साधक अपने विकारों, काम, क्रोध, लोभ, अहम् की बलि दे सके| केवल यही बलि साधक को देनी होती हैं|
- सगुरुदेव परमहंस डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी
jai gurudev, sahi sacchi aur samayik baat hai gurudev ki
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