स्वामी जी ने पूछा, "यह कौन है?" फिर उसकी और मुखातिब होकर बोले, "कापालिक हो?"
उसने खड़े होकर हाथ जोड़े और बोला, "कापालिक ही नहीं भैरव हूं! साक्षात् भैरव।"
स्वामी जी हंस दिए, बोले, "भैरव तो कुछ और होता है। तू तो भीख मांगने वाला और नरमुंड खाने वाला कापालिक ही हो सकता है।"
इतना सुनते ही उसकी त्यौरियां चढ़ गई। यह पहला मौका होगा, जब किसी ने उसके सामने इतनी कठोर बात कही। वह उठ खडा हुआ उसकी आंखों से रक्त की बूंदे टप-टप टपक पड़ीं।
स्वामी जी ने कहा, "उत्तेजित होने कि जरूरत नहीं। तू जो कुछ कर रहा है मैं समझ रहा हूं और मैंने वर्षों पूर्व यह सब-कुछ करके छोड़ दिया है। अपने-आप में दर्प करना ठीक नहीं। कापालिक को तो सीखना चाहिए और अपने जीवन में भगवान् रुद्र के अवतार भैरव को हृदयस्थ करना चाहिए।"
हमने अनुभव किया कि कापालिक कुछ वामाचारी क्रिया संपन्न कर रहा है और इसलिए अपने नेत्रों से रक्त की बूंदे प्रवाहित कर रहा है, पर इससे स्वामी जी बिल्कुल विचलित नहीं हुए। लगभग दस मिनट बीत गए। उस पहाडी पर बिल्कुल निस्तब्धता थी। सुई भी गिरती तो आवाज सुनाई दे सकती थी। तभी गुरुदेव ने मौन भंग किया, बोले, "कापालिक, ऐसी छोटी और मामूली मारण क्रियायें मेरे ऊपर लागू नहीं होंगी, बेकार अपना समय बरबाद कर रहा है। तू कहे तो मैं तेरे आराध्य को यहीं पर प्रकट कर सकता हूं।"
कापालिक ने एक क्षण के लिए गुरुदेव को देखा, और अनुभव किया कि वास्तव में ही उसकी मारण क्रियायों का कोई भी प्रभाव स्वामी जी पर नहीं पड़ रहा। यही नहीं, अपितु वह सामने खडा व्यक्ति तो कह रहा हैं कि यदि कहो तो आराध्य काल भैरव को प्रकट किया जाए।
कापालिक ने कहा, "आप मेरे इष्ट, 'काल भैरव' के दर्शन करा देंगे?"
"अवश्य। यदि तू चाहेगा तो अवश्य दर्शन होंगे।"
कापालिक घुटनों के बल झुक गया जैसे उसने पूज्य गुरुदेव कि अभ्यर्थना की हो। तभी स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी के मुंह से भैरव ध्यान स्वतः उच्चारित हो गया -
फूं फूं फुल्लारशब्दो वसति फणिपतिर्जायते यस्य कंठे।
डिं डिं डिन्नातिडिन्नं कलयति डमरू यस्य प्राणौ प्रक्म्पम।
तक तक तन्दातितन्दान घिगीती गीर्गीयते व्यम्वाग्मिः
कल्पान्ते तांडवीय सकलभयहरो भैरवो नः स पायात ॥
डिं डिं डिन्नातिडिन्नं कलयति डमरू यस्य प्राणौ प्रक्म्पम।
तक तक तन्दातितन्दान घिगीती गीर्गीयते व्यम्वाग्मिः
कल्पान्ते तांडवीय सकलभयहरो भैरवो नः स पायात ॥
और तभी एक भीमकाय तेज पुंज पुरुषाकृति साकार हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं काल ही पुरूष रूप में साकार हो गया हो। सारे शरीर से तेजस्वी किरणें निकल रही थीं, और ऐसा लग रहा था जैसे उस जंगल में उनचास पवन प्रवाहित होने लग गए हैं। पहाड़ स्वयं थरथराने-सा लग लगा और प्रचंड वेग से आंधी बहने लगी। हमारे देखते-देखते उस पहाड़ पर कई पेड़ जड़ सहित उखड कर गिरने लगे। सूर्य का ताप जरूरत से ज्यादा बढ़ गया और हम सब उस व्यक्तित्व के तेजस-ताप से झुलसने लगे।
यह स्थिति लगभाग एक या डेढ़ मिनट रही होगी, परन्तु यह एक मिनट ही अपने-आप में एक वर्ष के समान लगा। हम सब काल भैरव को साक्षात् अपने सामने देख रहे थे। इतनी भयंकर, तेजस्वी और अद्वितीय पुरुषाकृति पहली बार ही हमारे सामने उपस्थिति थी।
कुछ ही क्षणों में वह पुरुषाकृति शून्य में विलीन हो गई, पर्वत का थरथराना स्वतः रूक गया और वायु पुनः धीरे-धीरे बहने लगी।
(गुरुदेव के और भी काफी कथाएं आपको "हिमालय के योगियों की गुप्त सिद्धियां" बुक में पढ़ने मिलेगी। यह पुस्तक आपको किसी भी बुक स्टाल में मिलनी चाहिए। - Published by Hind Pocket Books, Author - Dr. Narayan Dutt Shrimaliji)