भारत की महान अध्यात्मिक परम्परा में श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम अमर है, और अमर है नाम उन्हीं के द्वारा प्राप्त उनके शिष्य विवेकानंद का।
स्वामी विवेकानंद किस प्रकार में गुरुत्व को उतार कर, साक्षात श्री रामकृष्ण परमहंस का 'मुख' ही कहेलाने के बाद भी अंतिम क्षणों तक केवल शिष्य ही बने रहे, इसके संदर्भ में एक घटना का विवरण रोचक रहेगा।
... प्रारम्भ के दिन थे जब स्वामी विवेकानंद, स्वामी विवेकानंद नहीं वरन नरेंद्र दत्त और अपने गुरु के लिए केवल नरेन् ही थे। नरेन् अपने गुरुदेव से मिलने प्रायः दक्षिणेश्वर आया करते थे और गुरु शिष्य की यह अमर जोड़ी पता नहीं किन-किन गूढ़ विषयों के विवेचन में लीन रहकर परमानंद का अनुभव करती थी। एक बार पता नहीं श्री रामकृष्ण को क्या सूझा, कि उन्होनें नरेन् के आने पर उससे बात करना तो दूर, उसकी ओर देखा तक नहीं। स्वामी विवेकानंद थोडी देर बैठे रहे और प्रणाम करके चले गए। अगले दिन भी यही घटना दोहराई गई और अगले तीन-चार दिनों तक यही क्रम चलता रहा। अन्ततोगत्वा श्री रामकृष्ण परमहंस ने ही अपना मौन तोडा और स्वामी विवेकानंद से पूछा
"जब मैं तुझसे बात नहीं करता था तो तू यहां क्या करने आता रहा?"
प्रत्युत्तर में स्वामी विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण परमहंस को ( जिन्हें वे 'महाराज' से सम्भोधित करते थे) कुछ आश्चर्य से देखा और सहज भाव से बोल पड़े-
"आपको क्या करना है, क्या नहीं करना है, वह तो महाराज आप ही जाने। मैं कोई आपसे बात करने थोड़े ही आता हूं... मैं तो बस आपको देखने आता हूं... "
... और गुरु को केवल देख-देख कर ही स्वामी विवेकानंद कहां पहुंच गए इसको स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में जिसे स्वामी विवेकानंद ने 'देखना' कहा वह निहारना था गुरुदेव को। जिसने गुरुदेव को 'निहारने' की कला सीख ली फिर उसे और कुछ करने की आवश्यकता ही कहां? दृष्टि भी एक पथ ही होती है जिस पर जब शिष्य अपने आग्रह के पुष्प बिखेर देता है तो गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता से उस पथ पर अपने पग रखते हुए स्वयंमेव आकर शिष्य के ह्रदय में समा जाते है।
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