मंत्र शक्ति आज के युग में भी पूर्ण सत्य एवं प्रत्येक कसौटी पर खरी है
हमारे ऋषियों ने जब वेद और मंत्रों की रचना की तो उनका उद्देश्य मंत्र और साधना को जीवन में जोड़ना था। ऋषि केवल साधना करने वाले अथवा जंगलों में आश्रम बनाकर रहने वाले व्यक्ति नही थे, वे उस युग के वैज्ञानिक, चिकित्सक, अध्यापक, राजनीतिज्ञ, कलाकार व्यक्तित्व थे। उन्होंने जो लिखा वह पूर्ण शोध और अनुसंधान से युक्त था।
किसी भी मंत्र का अभ्यास करते समय यदि कुछ नियमों का पालन किया जाये, तो साधक को सफलता निश्चित रूप में मिल सकती है -
सर्वप्रथम आपने जिस मंत्र का भी चयन किया है, उसकी सम्पूर्ण साधना-प्रक्रिया की जानकारी होना नितांत आवश्यक है। यह सत्य है की साधनाओं की जो शास्त्र वर्णित विधि है, उसमे रंचमात्र त्रुटी भी विनाशकारी हो सकती है, साथ ही इस शास्त्र वर्णित विधि में किसी प्रकार का संशोधन स्वयं करना भी उचित नहीं है।
वैसे अधिकतर साधनाओं में पूर्ण शुद्धता, सात्विकता तथा प्राण प्रतिष्ठित सामग्री के प्रयोग का विधान होता है, जबकि कुछ साधनाओं जैसे कर्णपिशाचिनि साधना, घन्टाकर्ण साधना, स्वप्न कर्णपिशाचिनि साधना तथा श्मशान में की जाने वाली समस्त प्रकार की साधनाओं में कुछ क्रियाओं का निषेध व कुछ का विशेष विधान है। इस प्रकार मंत्र साधना की असफलता का सर्वप्रथम कारण सही विधि का निर्धारित ज्ञान न होना है।
एक अन्य ध्यान देने योग्य विषय है - मंत्र का सही व शुद्ध उच्चारण। किसी भी मंत्र का जप प्रारम्भ करने से पूर्व समस्त संधियों को अच्छी प्रकार समझ लें। उच्चारण शुद्ध न होने पर मंत्र शक्ति का वांछित लाभ प्राप्त नहीं होता। मंत्र का जप पूर्ण स्पष्ट व दृढ़ स्वर में किया जाना चाहिए।
जहा तक संभव हो, पूजा-स्थल एकांत में होना चाहिये, जहां की साधना काल में कोई व्यवधान न पड़े।
एक बात सदैव याद रखें, की जिस किसी भी मंत्र का जप आप करते हैं, तो उस पर आस्था, पूर्ण विश्वास रखें। यदि आपको मंत्र और इसकी शक्ति में लेश मात्र भी शंका है व इसकी शक्ति पर पूर्ण आस्था नहीं है, तो आप निर्धारित जप संख्या का दस गुना रूप भी कर लें, तब भी यह निष्फल ही रहेगा।
मंत्र के उच्चारण के समय को एकाग्र रखने की परम आवश्यकता होती है। यदि मंत्र जपते समय विचार स्थिर है, ध्यान पूर्ण एकाग्र है और मंत्र की शक्ति पर पूर्ण आस्था है, तो असफलता का कोई कारण निर्मित ही नहीं होता है।
मंत्र जप आरम्भ करते समय पहले से ही साधना का उद्देश्य मन में रहना चाहिए। साधना के उद्देश्य को बराबर परिवर्तित करना सर्वथा अनुचित है।
उद्देश्य के साथ ही जप जप की संख्या का संकल्प भी प्रारम्भ में लेना चाहिये। जप की संख्या को पहले दिन से दूसरे दिन अधिक किया जा सकता है, किन्तु इसे कभी भी घटाना नहीं चाहिये। अपवाद स्वरुप एक-दो प्रकार की साधनाओं को छोड़कर।
एक ही मंत्र का जप लगातार करने से सम्बन्धित शक्ति जाग्रत रहती है। थोड़े समय तक एक मंत्र छोड़ देने और नये मंत्र प्रारंभ करने से पहले वाले मंत्र की शक्ति का ह्रास तो होता ही है और नये मंत्र को आपको फिर नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है। पहले एक मंत्र को सिद्ध करना चाहिये, उसके पश्चात किसी अन्य को। एक मंत्र सिद्ध कर लेने पश्चात किसी दूसरे मंत्र को सिद्ध करना पहले मंत्र की तुलना में ज्यादा सरल होता है।
ज्यों-ज्यों आपकी साधना का स्तर बढ़ता जायेगा, सिद्धि की दुरुहता स्वतः ही कम होती जायेगी। किसी भी मंत्र की सिद्धि हेतु अव्रुतियों की जो शास्त्र वर्णित संख्या होती है, वह पहले से ही साधना की उत्तम पृष्ठभूमि रखने वाले साधकों के लिए ही मान्य है, नये साधक को इसका तिन गुना, चार गुना या इससे भी अधिक जप करना पड़ सकता है।
अंत में एक महत्वपूर्ण व ध्यान देने योग्य बात है की मंत्र साधना सही मुहूर्त में की जानी चाहिये। विभिन्न साधनाओं के लिए विभिन्न मुहूर्त निर्धारित है।
इसके पश्चात् अपनी सुविधा के अनुसार जप कर सकते है। वैसे तो वर्षभर जप करना श्रेष्ठ है, किन्तु एक बार सिद्ध करने के पश्चात ११, २१, ५१ या १०८ की संख्या में जप करने से भी तुरन्त मनोवांछित फल प्राप्त होता है। आप किसी भी मंत्र का जप करते है, उसे वर्ष में एक बार उपरोक्त वर्णित अवसरों पर जाग्रत अवश्य करना चाहिये।
- वैसे तो प्रत्येक साधना अपने-आप में अत्यन्त जटिल होती है, किन्तु यदि इन जटिलताओं से साधक बचना चाहे, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है - 'योग्य गुरु का आश्रय प्राप्त करना'। गुरु के निर्देशानुसार साधना करते समय साधना की सफलता की संभावना शतप्रतिशत रहती है।
- सदगुरुदेव डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली।